मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


आत्मकथा (चौथा भाग)

अभिज्ञात

भूलने वाले तुझे क्या याद भी आता हूँ मैं - स्मरण : शलभ श्रीराम सिंह 

भूलने वाले तुझे क्या याद भी आता हूँ मैं। शलभ जी ने मुझे एक खत में लिखा था। यह शेर किसी और का था मगर वह रह–रह कर मेरे जेहन में जो छवि बनाता है वह एक ऐसी शख्सियत का है जिससे चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। अंतराल के बीच वह शख्स एकबारगी मेरे जीवन में घुसपैठ कर जाता था और कुछ दिनों के लिये जीवन को‚ जीवन के प्रचलित ढर्रे को लेकर मुझे नए सिरे से सोचने पर विवश कर देता था। एक ऐसी जीवन पद्धति का नाम था शलभ जो जीवन के प्रचलित प्रतिमानों में एक हस्तक्षेप की तरह था।

उनका होना और उनके होने का अर्थ मेरे तईं एक ऐसे द्वंद्व के बीच घिरना था जो किसी व्यक्ति और रचना के बीच के अंतरसंबंध पर कुछ जरूरी सवाल खड़े करता है। क्या अस्वाभाविक जीवन शैली किसी रचनाकार को अतिरिक्त रचनात्मक खुराक देती है। क्या साहित्य की दुनिया में ईमानदारी का स्वरूप जीवन के प्रति ईमानदारी से अलग होता है। क्या कोई व्यक्ति तमाम बेईमानियों के भरोसे किसी बड़ी ईमानदारी का प्रारूप तैयार कर सकता है। क्या जीवन के तमाम प्रश्नों और समस्याओं से भागता हुआ व्यक्ति किसी खास मोर्चे पर मुठभेड़ की मुद्रा में दिखाई देने भर से और मुठभेड़ की बातें करने भर से लड़ाका मान लिया जाना चाहिए।

क्या अपने आपको असाधारण मान कर जीने और बाकी लोगों और उनके जीवन मूल्यों को क्षुद्र मान कर जीया गया जीवन दूसरों के समक्ष सचमुच कोई आदर्श रख सकता है। दरअसल‚ मुझे अक्सर लगा कि शलभ जी की समस्या यह थी कि उन्होंने लगातार दुनिया को हेय मानते हुए 'पृथ्वी का प्रेम गीत’ लिखा है। उनकी रचना प्रक्रिया कुत्सा‚ ईर्ष्या और युयुत्सा को जीवन संचालक तत्व के तौर पर देखने की थी। वे भावना के नहीं‚ भंगिमा के रचनाकार रहे हैं। वे व्यक्ति को व्यक्त से हेय मानते रहे। अपने आपको मार्क्स के बरक्स रखकर देखने से कम पर वे राजी नहीं थे। एक महान व्यक्ति–सा जीने की कोशिश और लोगों द्वारा उनकी महानता के अस्वीकार ने उन्हें अराजक बना दिया था। वे अपने जीवन में लगातार ड्रामा करते रहे। वे अपनी हरकतों को किस्से की शक्ल में लोगों तक प्रचारित करने को भी लगातार उत्सुक रहे। वे दूसरों के नाम से अपने बारे में लिख सकते थे और अपने पर किसी को घंटों समझा कर उसे शलभ को समझने की दृष्टि से सम्पन्न कर सकते थे।

दुर्भाग्य से ऐसे लेखकों की कमी नहीं जिन्हें अपने नाम से दूसरे का लेख छपने पर गुरेज नहीं‚ इसलिये खुद शलभ श्रीराम सिंह पर कई लेखों अथवा उनके समकालीनों के साथ उनकी तुलना करते हुए लिखे गए लेखों के वास्तविक लेखक खुद शलभ रहे‚ जिनकी शिनाख्त हिन्दी आलोचना के लिये भी दिलचस्प होगी। शलभ की भाषा और मुहावरे के अध्येता यह खोज सकते हैं कि शलभ के बारे में शलभ के शब्दों में ही कितने लेख हैं‚ जो अलग–अलग नामों से प्रकाशित होते रहे हैं। शलभ जी ही ऐसा कर सकते थे कि अपनी एक पुस्तक में अपने बारे में अपनी हस्तलिपि में लिखकर बाबा (नागार्जुन) के उस पर हस्ताक्षर करवा लें और फिर उसे जस–का–तस पुस्तक में प्रकाशित भी करवा दें।

शलभ जी का लिखा मैं चाहकर भी बहुत नहीं पढ़ सका। उनका लेखन मुझे लगातार कृत्रिम लगा। हालाँकि उन्होंने अपनी प्रथम पुस्तक की अंतिम और फटी हालत में एक प्रति मुझे सप्रेम लिखकर भेंट की थी। शायद वह 'कल सुबह होने से पहले’ ही थी। मुझे यह अजीब–सा लगा था‚ लेकिन वह उनके गणित वाले स्वभाव के अनुरूप था। वे यह सब करके जैसे किसी को कोई विशेष तरजीह दे रहे होते थे और दूसरे भी ऐसा करके उन्हें उपकृत करें यह मन ही मन चाहते थे। सकलदीप सिंह की पुस्तक प्रतिशब्द आई तो मैं सकलदीप जी के साथ उनके घर बेलूड़ गया था (जो दरअसल कल्याणी सिंह का ही अधिक था‚ जहाँ वे कभी कभार वर्षों बाद लौटते रहते थे)। उन्हें यह जानकर अच्छा– सा लगा था कि यह उनके पुस्तक की पहली प्रति थी। उनके आग्रह पर सकलदीप जी ने पुस्तक की पहली प्रति लिखकर उन्हें भेंट की थी हालाँकि वे इस तरह की औपचारिकताओं के कायल न थे। वे उस तरह की साहित्य धारा में से कभी थे जो अपनी पुस्तकें साहित्य के अध्येताओं के पास यह लिख कर देते थे कि कृपया इस पुस्तक की समीक्षा न करें।

जगदीश चतुर्वेदी की निषेध पीढ़ी में शामिल तथा साठोतरी साहित्याँदोलनों के दौर में कलकत्ता से श्मशानी पीढ़ी के नाम से आंदोलन छेड़ने वाले सकलदीप सिंह न सिर्फ अपने काव्य वैशिष्ट्य के चलते अकेले पड़ जाने का दंश झेलने को विवश रहे हैं‚ बल्कि उनके लेखन पर गंभीरता से विचार करने को मोटी पोथियों की संख्या बढ़ाने में लगे आलोचक भी तैयार नहीं हैं‚ क्योंकि जल्दबाजी में सकलदीप को न तो समझा जा सकता है और न ही आलोचना के प्रचलित मुहावरों में से किसी एक को आनन—फानन में उन पर चस्पा ही किया जा सकता है।

मैं १६ साल पहले कोलकाता पहुँचा तो वहीं की साहित्यिक महफिलों‚ साहित्यकारों से उनकी चर्चा सुनी थी। मुलाकात नहीं हुई थी। तीन साल बाद भिलाई में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तो पी.एचडी. की मेरी शोधनिर्देशिका डॉ. इलारानी सिंह को भी आमंत्रित किया गया था। उन्होंने आयोजकों से मेरे आने के बारे में भी पूछ लिया और मैं उनके साथ भिलाई सम्मेलन में पहुँच गया। वहाँ काव्य पाठ का अवसर भी मुझे दिया गया था‚ हालाँकि जलेस का सदस्य मैं बाद में बना।

वहाँ मुख्य आयोजकों में विजय बहादुर सिंह भी थे। कोलकाता से इस सम्मेलन में पहुँचने वालों में हमारे अलावा केवल राजकिशोर जी थे। वे उन दिनों 'रविवार’ में थे। जिनके साथ प्रथम परिचय के साथ ही जाम टकराने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ था। कोलकाता लौटकर उन्होंने रविवार के लिये समीक्षा करने को मुझे असद जैदी का काव्य संग्रह 'कविता का जीवन’ दिया था।

भिलाई के इस सम्मेलन में अदम गोंडवी से मुलाकात एक ऐसे बुर्जुग दोस्त से मुलाकात साबित हुई जिससे सादगी पर तमाम नफासतें कुर्बान की जा सकती हैं। विजय जी ने इस सम्मेलन के बाद अदम गोंडवी को अपने शहर विदिशा में काव्य पाठ के लिये न्यौता था। अदम जी के आग्रह पर मैं भी विदिशा जाने को तैयार हो गया‚ इधर इला जी भी सागर विश्वविद्यालय के अपने सहपाठी विजय जी के यहाँ जाने को तैयार सी थीं। हम विदिशा में तीन दिन रहे। अदम जी के साथ एक्के पर साँची तक की यात्रा सुखद रही‚ लेकिन यहाँ विदिशा आकर जाना की शलभ जी विदिशा में अक्सर रहे हैं। विजय जी उनके अपनों से अपने थे‚ इसलिये उनकी चर्चा अक्सर छिड़ती रहती थी। पता यह भी चला कि इन दिनों वे विजय जी से नाराज चल रहे थे इसलिये किसी और शहर में थे।

कोलकाता लौटने के कुछ अरसे खबर मिली कि शलभ जी बेलूड़ आए हुए हैं। इला जी ने भी मिलने की इच्छा जाहिर की थी सो उनके साथ ही पहली बार कल्याणी जी के यहाँ जाना हो सका। कल्याणी जी बिगुल पत्रिका भी निकालती थीं और कुछ कविताओं की पुस्तकें भी उनकी आई थीं। शलभ जी से इला जी की भी पहली ही मुलाकात थी। उसके बाद शायद वे एकाध बार ही उनसे मिली होंगी‚ लेकिन मैं अक्सर शलभ जी से मिलने जाने लगा था। कभी–कभी श्रीनिवास शर्मा और सुरेश कुमार शर्मा वहाँ अवश्य जाते थे‚ मगर और किसी लेखक को मैंने उनके यहाँ नहीं देखा। अलबता कुछ बांग्ला लेखक अवश्य कल्याणी जी से मिलने पहुँचते थे। कई बार काव्य गोष्ठी जम ही जाया करती थी और बांग्ला लेखकों की रचनाएँ मुझे समझाने अथवा अपनी और मेरी कविताएँ उन्हें समझाने में शलभ जी की बहुभाषी प्रतिभा दिखाई दे जाती थी। उन्हीं दिनों मुझे पता चला था कि शलभ जी का न सिर्फ बांग्ला पर‚ बल्कि अंग्रेजी पर भी अच्छा–खासा अधिकार था। मुझे उन दिनों बांग्ला नहीं आई थी। बांग्ला मैंने पत्रकारिता में आने के बाद सीखी।

कल्याणी जी से ही मुझे पता चला था कि शलभ जी का एक दाम्पत्य जीवन फैजाबाद जिले के मसौढ़ा गाँव में भी है। कल्याणी जी से उन्हें दो बेटियाँ हैं। जिनकी सारी जिम्मेदारी कल्याणी जी ने उठाई है। पढ़ाई–लिखाई से लेकर विवाह आदि तक। कोलकाता के साहित्यिक मित्रों से उन्हीं दिनों पता चला था कि बेटी की शादी में सूचना के बावजूद वे नहींपहुँचे थे और महीनों बाद आए तो दोस्तों को न आने पर प्रतिक्रिया में कहा था–'ऐसी कितनी ही बेटियाँ मेरी हैं किस–किस की शादी मेंपहुँचूं।’ कल्याणी जी ने भी बताया था कि घर की जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से उनकी हैं। शलभ जी जब मन आता है आते हैं और फिर चले जाते हैं।

शलभ जी के पहनावे और रहने के तौर–तरीकों पर मैंने बाद में एक कविता भी लिखी थी‚ जो मेरे तीसरे काव्य संग्रह 'आवारा हवाओं के खिलाफ चुपचाप’ में है जिसमें मैंने उनका शब्द चित्र खींचा है। तैयारी के बावजूद (कवि शलभ श्रीराम सिंह के लिये) एक सुस्तगाह में फिलहाल को उपस्थित है–
वह केवल तौलिया लपेट  
जैसे वह जा रहा हो–नहाने
लेकिन नहाने की किसी योजना से सरोकारहीन
पता नहीं‚ किसमें‚ किससे‚ अपनी किन शर्तों पर
नहाएगा वह‚ कहना कठिन है
क्यों है वह बिन नहाए
नहाने की तैयारी के बावजूद
वह गुसलखाने के निरंतर आमंत्रण के विरुद्ध  
रहता है कई—कई दिन  
जस–का–तस रहता है वह  
चहल–पहल भरे बरामदे के विरद्ध
वह झटके से कभी आ जाता है  
वैसे ही बरामदे में  
बरामदे की सारी ललकार धँसक जाती है  
बरामदे की संहिता को चीथ देना
कैसा लगता होगा उसे  
वह अपराजेय लौटता है बरामदे से  
अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए  
शाबाशी देते हुए तौलिये को

कभी–कभी वह जरूर पूछता होगा
उकताकर
भई तौलिये–तुम नहाओगे?  
कैसा लगता है तुम्हें मेरे साथ
निरंतर सभ्यता की खोखली लड़ाई  
लड़ते हुए।

शलभ जी के यहाँ जाने की जो कीमत मुझे चुकानी पड़ती थी वह थी विल्स सिगरेट के दो पैकेट। उनका कहना था कि सिगरेट के बिना लिखने–पढ़ने का मूड नहीं बन पाता है और कल्याणी जी से सिगरेट की माँग नहीं कर पाते। सो उनके यहाँ से दो एक बार सिगरेट खरीदने के लिये लौटाए जाने के बाद मैं इस जहमत से बचने के लिये बेलूड़ स्टेशन उतरकर सिगरेट से लैस होकर ही उनके यहाँ जाता। मेरे लिये वे एक तिलस्मी व्यक्ति थे। मुझमें लगभग शिष्यत्व का भाव उनके प्रति जगने लगा था। वे चाहते थे कि मेरे शोध प्रबंध में उनकी कविताओं का भी जिक्र हो‚ पर उनकी कोई पुस्तक ढ़ूँढे से उन्हें नहीं मिल रही थी। और मेरा संकट यह था कि मैंने उन्हें पढ़ा ही नहीं था। उन्होंने डॉ. इंदु जोशी के नाम एक पत्र लिखकर दिया था कि वे मुझे शलभ जी की कोई पुस्तक मुहैया कराएँ‚ मुझे अपने शोधकार्य के लिये उसकी आवश्यकता है। इंदु जी ने पुस्तक तो दे दी‚ लेकिन मेरे शोधकार्य में शलभ जी का जिक्र नहीं आ सका‚ हालाँकि वह इला जी की मौत के बाद शायद दफन हो जाना है।

लगभग पूर्ण हो चुके शोधकार्य को मैं चाहकर भी न तो कहीं प्रकाशित करवा पाया और ना ही उस पर डिग्री ले पाया। अपनी मित्र हो चुकी शोधनिर्देशक की मौत मेरे अंदर उस शोधकार्य के प्रति ऐसी वितृष्णा जगा चुकी है जो सारे प्रलोभनों पर अब तक भारी पड़ती रही है। जैसे इला जी की अदृश्य छाया मेरे ऊपर मँडराने लगती है। मैं मौत से जूझती और कैंसर की दवाओं के साइड इफेक्ट के विकृत हो चुकी इला जी को देखने का साहस नहीं जुटा सका था और अंतिम दिनों में उनके दर्शन न कर पाने की शर्म ने मुझे उनके घर तक न जाने दिया। पहले जब वे इस बीमारी के दूसरे प्रभावों से त्रस्त थीं तब कितने ही डॉक्टरों के यहाँ मैं उनके साथ गया था और बीमार बिस्तर पर पड़ी रहने पर उन्हें मुक्तिबोध से लेकर बर्तोल्त ब्रेख्त तक की कविताएँ सुनाता रहा था‚ लेकिन वह मौत की आहट मुझे नहीं सुनाई दी थी। लोगों ने हमें लेकर किस्से भी बनाए थे‚ इससे वे कभी–कभार परेशान भी हो जाया करती थीं‚ लेकिन सीधे साफ तौर पर वह यह मुझे नहीं समझा सकती थीं।

तो बात बात शलभ जी की हो रही थी। शलभ से पहले खेप की मुलाकात में कुछ खास उल्लेखनीय नहीं था। सिवा इसके कि वे जब मसौढ़ा जा रहे थे तो हावड़ा स्टेशन तक मैं उन्हें छोड़ने गया था। उन्होंने चलते समय मेरा पर्स माँगा और उसमें पड़े चार सौ साठ रुपए में से साठ रुपए सहित लौटा दिया था‚ जिससे कि मुझे घर लौटने में असुविधा या फिर जेब खाली किए जाने का अधिक अफसोस न हो। उन्होंने बगैर कहे जो कहा वह मैंने सुना। मसौढ़ा से उनके दो एक पत्र आए। फिर वह सिलसिला खत्म हो गया। कई महीनों बाद लौटे। मैं मिला तो उन्होंने तपाक से मेरी पहली किताब प्रकाशित होनेकी बधाई दी और पूछा था कि उनका दूरदर्शन पर दिया गया इंटरव्यू मैंने देखा कि नहीं‚ जिसमें उन्होंने मेरी कविताओं का भी जिक्र किया था

१६ अक्तूबर २००२

पृष्ठ-  . .. . .

आगे-

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।