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आत्मकथा (सातवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

गिनकर गुजारे दिनों की जिन्दगी


सबसे पहला काम मैंने घर पर पिता को तार देने का किया, 'लीविंग इण्डिया ऑन सेवेन्टींथ फेब मॉर्निंग' फोन की सुविधा तबतक मोहल्ले में नहीं थी। सरकारी कॉलोनी में फोन केवल कर्मचारी यूनियन के सक्रेटरी के घर में था। उनका घर दूर भी था। लेकिन उन दिनों तक मेरे घर के लोग तार पढ़ने से पहले सामान्य होना सीख चुके थे। 

जबसे सिक्किम में नौकरी लगी थी तभी से हर यात्रा में वहाँ पहुँचने के बाद तार देना आदत हो गई थी। पाँच वर्षों में लगभग पन्द्रह-सोलह यात्राएँ तो मैंने की ही थीं। उन यात्राओं में प्राय: सुबीर दास साथ होता था। सिलीगुड़ी से वह जोरथांक जाता और मैं गैंगटोक। दोनों अपने-अपने ठिकाने पर पहुँचकर पहला काम कानपुर तार देने का करते। बैंक ऑफ बड़ौदा से बाम्बे वी. टी. स्टेशन वाकिंग डिस्टेंस पर था। वहाँ तक जाने में सड़क पर आस–पास के फुटपाथों से होकर जाना होता था जिनपर पैदल चलने की जगह दूकानों ने घेर रखी थी। कंघी, रूमाल, ताले, पीली किताबें और टी-शर्ट के अलावा जींस पैंट बेचती दूकानों पर कुछ खरीदती भीड़ थी या उनके पास से गुजरने वालों की संख्या भीड़–सी लगती थी, कहना कठिन था। उस भीड़ में नये लोग, बाहरी लोग, पहचान लिये जाते थे। उनके पीछे चिपकू दलाल पड़ जाते थे, "मँगता?"
"क्या...?" मैंने पूछा। ‘मँगता’ शब्द के आंचलिक अर्थ की चोट से मैं उबर चुका था।
"महाभारत... रामायन...।"
" नहीं...मैं इतना बड़ा धार्मिक नहीं हूँ...।"
" ले...ना...सस्ते में देगा..."
"गीता प्रेस गोरखपुर से सस्ता तो नहीं ही दोगे"
"गीता प्रेस...। क्या है...ये देखेगा तो ट्रिपल एक्स भूल जाएगा..." समझ में आया कि वह ब्लू फिल्में बेच रहा है। मैंने उससे किसी तरह पिण्ड छुड़ाया। बिजनेस भी क्या चीज है। लोग अवतारों का नाम भी नहीं छोड़ते। चाहे गणेश बीड़ी हो या गदा छाप सुर्ती।

दोपहर हो चुकी थी। मैंने वापसी के लिये टैक्सी पकड़ ली। तय किया कि राजेश्वर के घर के पास किसी रेस्तराँ में लंच लूँगा और फिर कुछ समय आस–पास घूमने के बाद शाम होने से पहले कमरे पर पहुँच जाऊँगा। चौराहे पर हमेशा कुछ ज्यादा ही भीड़ होती थी। उसका कारण वहाँ तीन सिनेमाघरों का होना भी था। साथ ही एक टैक्सी स्टैण्ड भी था जहाँ हरदम चहल–पहल रहती थी। वहीं उतरकर सड़क के दूसरी ओर कई रेस्तराँ थे। मैं जिसमें घुसा उसमें बार भी था। मुझे पता नहीं कि आस–पास के अन्य रेस्तराँ में यह सुविधा थी या नहीं। रेस्तराँ के काउण्टर पर खड़ा व्यक्ति कर्नाटक का रहने वाला था। मैंने उसे बताया कि हिन्दी अखबार में काम करता हूँ। एक हफ्ते बाद अबूधाबी जा रहा हूँ। यह वक्त जो अचानक ठहर गया है, मैं उसे इस रेस्तराँ में काटना चाहता हूँ। वह मुझसे प्रभावित हुआ कि मेरे हालात पर उसमें करूणा उपजी, कुछ कह नहीं सकता। मैंने उसे राजी कर लिया कि वह मुझे दोपहर से पहले और दोपहर के बाद एक–एक बियर के साथ वक्त बिताने दे। मैंने हिसाब लगाया कि लंच के साथ लगभग चालीस रूपये रोज का खर्च आएगा। बियर की एक बोतल बारह रूपये की थी। कानपुर में वर्माजी ने मुझसे कहा था कि बम्बई में शराब सस्ती है। बियर भी। कानपुर में जो ब्राण्ड सोलह रूपये का मिलता था वह बम्बई में बारह का था। अलग–अलग प्रदेशों की एक्साइज ड्यूटी अलग–अलग होने के कारण कीमतों में फर्क होता है।

शाम होने तक का समय मैंने रेस्तराँ में बिताया। वहाँ से राजेश्वर का घर बहुत पास था। वे शाम छह बजे तक ऑफिस से लौट आते थे। मैंने उनके वापस आने का इंतजार सड़क के उस मोड़ पर किया जहाँ से एक गली मिलन–धारा बिल्डिंग को जाती थी। बच्चों के लिये मैंने थोड़े–से फल खरीदे थे। जब राजेश्वर का इंतजार कुछ ज्यादा ही हो गया तो मैं उनके फ्लैट की ओर चल पड़ा।

मैं जब घर में घुसा तो चिर–परिचित दृश्य था। शतरंज की बिसात बिछी हुई थी। बच्चे अपने पुराने अंदाज में माँ–बाप की ओर थे। मैंने टेबल पर फल रखे तो चौंका। जो कपड़े मैं सुबह उतारकर खूँटी पर टाँगे थे वे धुले और प्रेस करके रखे थे। मेरे लिये यह भीतर तक बिंध जाने वाली बात थी। यह क्या बात हुई कि मैं किसी से ऐसी सेवा लूँ? मैंने मन ही मन सोचा कि कल से ऐसा मौका ही नहीं दूँगा कि कोई मेरे कपड़े पा भी सके। मैं उसे खुद ही लाण्ड्री में दे दूँगा। यह सब सोच ही रहा था कि राजेश्वर ने पूछा, "कहाँ–कहाँ घूम आए...?" मैंने उन्हें दिन–भर की घटनाएँ बताईं मगर एयर इण्डिया के ऑफिस में हुई अप्रिय घटना और रेस्तराँ में बैठने की बात नहीं बताई। जब मैंने कहा कि अगर पता होता कि फ्लॉइट हफ्ते भर बाद है तो मैं पन्द्रह–सोलह को आया होता तो उन्होंने कहा, "भीग रहे हो क्या...? बम्बई घूमो...परेशान होने की क्या बात है...? और उस पैकेट में क्या लाए हो ?"
"कुछ नहीं...थोड़े–से फल हैं..."

"फॉरमेलिटी की कोई जरूरत नहीं है...कल से यह सब न लाना...समझे" उन्होंने खेल में डूबे हुए ही कहा। खेल बदस्तूर चलता रहा। उनकी बेटी मेरे सामने चाय का प्याला रख गई। मैं उन्हें क्या बताता कि परेशान होने की बात क्यों है। कोई मेरे कपड़े साफ करे। कोई चाय बनाकर लाए। कोई मेरे जूठे बरतन माँजे। वह भी एक दिन नहीं, एक हफ्ते। इस स्थिति में कोई अहदी ही खुश रह सकता है।

खाना खाते हुए मैंने राजेश्वर से पूछा, "अबूधाबी एयरपोर्ट से स्कूल के पते पर जाने के लिये मुझे कोई न कोई सवारी करनी होगी...उसे भुगतान करने के लिये पैसे देने होंगे तो क्या मेरे रूपये काम आएँगे...?"
"कल सुबह थॉमस कुक के पास चले जाओ...वीजा की फोटोकॉपी दिखाकर जितनी जरूरत हो उतने ले लो...पॉसपोर्ट भी दिखाना होगा...उस पर एण्ट्री होती है..."
"कहाँ जाना होगा...।?"
"सेंट योसफ् स्कूल के पास..."
" मैं सोचता हूँ कि जब समय मिल गया है तो धर्मवीर भारती से भी मिल लूँ...।"
"ठीक सोच रहे हो..." उन्होंने टाइम्स ऑफ इण्डिया के कार्यालय का पता समझाते हुए कहा कि बाम्बे वी.टी.के पास ही जाना पड़ेगा। वहाँ से पैदल भी जाया जा सकता है।
 
अगला दिन- तुम भी गजब हो
सबसे पहले मैंने किसी लांण्ड्री में पिछले दिन के पहने कपड़े देने की बात सोची। कपड़ों को एक पैकेट में रखकर मैं राजेश्वर के फ्लैट से इस तरह निकलना चाहता था कि श्रीमती गंगवार को पता ही न चले कि क्या लेकर बाहर जा रहा हूँ मगर उन्हें शायद आभास हो गया था कि मैं कपड़ों के धुलने के मामले में आगे क्या करूँगा। उन्होंने सीधे पूछा, " ये कपड़े कहाँ जा रहे हैं...?"
"कपड़े...कपड़े कहाँ जा सकते हैं...।" मैं हकलाया।
"मालूम है...कपड़ों के पाँव नहीं होते...मगर पता तो चले कि ये कहाँ ले जाए जा रहे हैं?"
"गंदे हो गए हैं...धुलने को देना है..."
"इन्हें घर में ही छोड़ दें...धुल जाएँगे..."
"प्लीज, ऐसा मत करें...नरक में भी जगह नहीं मिलेगी मुझे...जो आप लोगों ने किया है वही कहाँ कम है..."

मेरा कोई भी तर्क श्रीमती गंगवार के सामने काम नहीं आया। कपड़ों का पैकेट छोड़ना पड़ा। किसी को इतने अच्छे लोग मिल जाते हैं तो दुनिया के प्रति उसका विश्वास कितना प्रबल हो जाता है, किसी को किसी ऐसी महिला का सदय व्यवहार मिल जाता है तो वह जीवन भर इस बात को भुला नहीं पाता।
मैं टैक्सी से सेंट योसुफ स्कूल पहुँचकर ऑफिस के पास पहुँचा। एक बोर्ड लगा था, "बैंक कम्स टू स्कूल"
मैं काउण्टर पर खड़ा था और उसके सामने एक छोटे–से छेद और खिड़की पर लगी जाली के पीछे कैशियर था। मैंने उससे पूछा, "आप मिस्टर थॉमस हैं...?"
"नो..."
"सुनिए...।"
"एस..."
"प्लीज...मुझे कुछ फॉरेन करेंसी चाहिए...मैं अबूधाबी जा रहा हूँ..."
"तो, मैं क्या करूँ...?"
"मुझे वहाँ की कुछ करेंसी दे दें..."
"यहाँ फॉरेन करेंसी नहीं मिलती..."
"प्लीज...मेरी जरूरत को समझिए..."
"आप क्या कह रहे हैं...?"
"मैं जानता हूँ कि फॉरेन करेंसी का लेन–देन गलत है...मगर आप मेरी मदद करें..."
"मैं कहाँ से दूँ फॉरेन करेंसी... ?"
"आप थॉमस कुक नहीं हैं?"
"नहीं..."
"यह बोर्डिंग स्कूल है न ?"
"एस...।"
"तो, इसमें हॉस्टेल भी होगा...?"
"है..."
"उसमें कोई खाना बनाने वाला कुक भी होगा...क्या पता वही थॉमस कुक हो...मैं उसे कुछ पैसे ज्यादा दे दूँगा... कुछ आप भी ले लीजिए...आइ नो इट इज इल्लीगल...मगर मुझे फॉरेन करेंसी चाहिए..."
"आर यू गॉन मैड...यहाँ कोई थॉमस कुक नहीं है...प्लीज...लीव द काउण्टर...दूसरे लोग लाइन में खड़े हैं...उन्हें फीस जमा करनी है...।"

मुझे वहाँ से हटना पड़ा। दिमाग चकरा गया था। इस तरह के पैसे–कौड़ी के लेन–देन में मैं पहले कभी पड़ा नहीं था अतः समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। अबूधाबी की करेंसी अगर पास में नहीं होगी तो वहाँ किस तरह से निपटूँगा। तमाम सवाल थे जो उमड़ रहे थे। और, मैं सेंट योसुफ स्कूल से बाहर निकल रहा था। मैंने एकबार सोचा कि धर्मवीर भारती से ही मिल लूँ। फिर न जाने क्यों मन ही बदल गया। मैंने टैक्सी ली और सीधे रेस्तराँ का पता बताया। जब वहाँ पहुँचा तो वह लगभग खाली था। वैसे भी ग्यारह बजे किसी रेस्तराँ में भीड़ नहीं होती। कहीं भी। मैंने एक बियर ली। वक्त काटा। लंच लिया और फिर उसके आस–पास घूमने के बाद वापस उसी रेस्तराँ में बैठ गया। एक नई बियर बोतल के साथ...

कानपुर से चलते समय कुछ पत्रिकाएँ ली थीं। कुछ मैंने बाम्बे में खरीद लीं। मेरी वक्तकटी जितनी अच्छी किताबों के साथ गुजरती है उतनी अच्छी किसी अन्य के साथ नहीं। लेकिन कभी–कभी ऐसा भी होता है कि मैं किताबें और पत्रिकाएँ सिर्फ खरीदता जाता हूँ कि जहाँ जा रहा हूँ वहाँ पहुँचकर पढ़ूँगा। फिर मैं उन्हें खोलता तक नहीं। रेस्तराँ में भी पत्रिकाएँ साथ थीं मगर मैं केवल बीतते समय और आने वाले समय में ही उलझा रहा। जब रेस्तराँ से बाहर निकला तो बारिश हो रही थी। यह भी मेरे लिये अप्रत्याशित था। वाइन, वूमन और वेदर...थ्री डब्ल्यूस की अनप्रिडेक्टिबिलिटी की कहावत दिमाग में उभरी। पहले भी सुना था। सिक्किम में भी। और बाम्बे में भी देखा ही नहीं भुगता भी। पहले कभी कलकत्ता के बारे में सुना था कि सुबह–सुबह धोती–कुर्ता पहने और हाथ में छाता लिये दिखाई पड़े तो जान लो कि ट्यूशनिया मास्टर है जो चाय के प्याले और दो बिस्किटों के लिये तेज चला जा रहा है।

बाम्बे में भी लोग छाता लेकर घर से निकलते हैं, इस बात की तसदीक हो गई। सड़क पर छाते ही छाते थे जिनके बीच भीगने से बचने की कोशिश में सिर छिपे थे।

राजेश्वर की हिदायत को अनसुना करते हुए मैंने रिमझिम बारिश में फिर कुछ फल खरीदे और उनके फ्लैट पर पहुँचा। वहाँ का माहौल वही था जो अपेक्षित था। चेस के साथ उलझा परिवार। शायद उसी में उनके सुलझने की गुत्थियाँ निहित थीं।

जब मैंने उन्हें सेंट योसुफ स्कूल की घटना बताई तो राजेश्वर बोले, "तुम भी गजब आदमी हो......थॉमस कुक एक मॅनी एक्सचेंज एजेंसी का नाम है यार...कहाँ चले गए थे तुम...?"

हिन्दुस्तान में कितने लोग आज भी थॉमस कुक के बारे में जानते हैं? अखबार में काम करने के बाद भी मैं या मुझ जैसे बहुत से पत्रकार तक तो इस बारे में शून्य थे फिर सामान्य लोगों का सामान्य ज्ञान कितना हो सकता है?
 
काश कि मैं इंतजार कर लेता...।
अगले दिन मैं एक्सचेंज सेंटर पर था। वहाँ से पचास दिरहम लिये। मेरी जेब आधी से ज्यादा खाली हो गई। यह भी पता चल गया कि सौ रूपये और बचाकर रखने होंगे जो एयरपोर्ट टैक्स देना होगा। पौने पाँच रूपये के हिसाब से पचास दिरहम खरीदने और सौ रूपये एयरपोर्ट टैक्स देने के बाद की स्थिति के बाद गुणा–भाग करने के बाद जो रकम मेरे पास बची वह कसी–कुसा किसी तरह दिन निकालने लायक थी। मैंने आसमान की ओर देखा। जाने क्यों मेरे अलावा भी लोग ऐसे क्षणों में आसमान की ओर देखते हैं। क्या वहाँ कोई विपत्ति–विनाशक बैठा हुआ है। पता नहीं...

मैंने तय किया कि आज का दिन मैं धर्मवीर भारती से मिलने की कोशिश में गुजारूँगा। मैंने सुना जरूर था कि भारतीजी बहुत अरिस्ट्रोकेट टाइप के आदमी हैं। बहुत अनुशासित हैं और सामनेवाले के सामने खुलते नहीं। जबकि राजेन्द्र राव के अनुसार वे शालीन और सॉफ्ट हैं, ऐसा कई बार कहा गया था। मैंने तबतक रवीन्द्र कालिया का ‘काला रजिस्टर’ और कांता भारती का उपन्यास ‘रेत की मछली’ पढ़ा नहीं था। चर्चा बहुत सुनी थी और उस चर्चा से जो छवि बनी थी वह एक बहुत सैडिस्ट आदमी की थी। कहीं यह भी पढ़ा था कि धर्मयुग के दफ्तर के लोग उनके कड़े रवैये से बीमार तक हो जाते थे। इस मामले में कन्हैयालाल ‘नंदन’ का नाम लिया जाता था। मैं भारतीजी को न के बराबर जानता था। उन्होंने मुझे धर्मयुग में छापा था। एवरेस्ट विजेता सोनम वांग्याल के अभियान की कहानी को तो उन्होंने ‘कवर स्टोरी’ बनाकर छापा। उनके लिखे तीन पत्र मेरे पास थे। संक्षिप्त पत्र। बरसों तक वे पत्र मैं प्रमाण पत्रों की तरह रखे रहा। उन्हीं पत्रों के साथ कमलेश्वरजी का भी एक पत्र था। दो–तीन वर्ष हुए एक दिन न जाने किस झोंक में मैंने बहुत से कागज फाड़कर फेंक दिये। अब पश्चाताप होता है कि मैंने वैसा क्यों किया। खैर, जब टाइम्स ऑफ इण्डिया के ऑफिस में जाने के लिये मैं उस बिल्डिंग में घुसा तो पता चला कि लिफ्ट से जाना होगा। मुझे अचानक वर्माजी की याद आ गई।

कानपुर में वर्माजी ही ऐसे थे जो मेरे सबसे अधिक करीब थे। मैंने कभी उनसे जरूर पूछा होगा कि जहाज में यात्रा करने का अनुभव कैसा हो सकता है। जहाज जब उठता है, जमीन छोड़ता है तो कैसा लगता होगा? ऐसा शायद इसलिये कि उन्होंने एक बार कलकत्ता से पटना की हवाई यात्रा की थी। उस यात्रा में श्रीमती इन्दिरा गाँधी भी उसी फ्लॉइट में थीं। यह उन दिनों की बात है जब श्रीमती गाँधी एमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में हारकर पैदल हो गई थीं। वर्माजी ने श्रीमती गाँधी से कुछ बातें भी की थीं। हालाँकि वे कांग्रेस के सपोर्टर कभी नहीं रहे मगर श्रीमती गाँधी के साथ हुई उस अप्रत्याशित मुलाकात को अपनी यादों में सँभालकर हमेशा जीते रहे।

वर्माजी ने बताया था कि जहाज जब जमीन छोड़ता है तो दिल में धक से वैसे ही होता है जैसे लिफ्ट चल पड़ने पर होता है...।
मेरे पास लिफ्ट में चलने का भी केवल एक ही अनुभव था। उन दिनों कानपुर में नगर महापालिका की बिल्डिंग ही ऐसी थी जिसमें लिफ्ट थी। हो सकता है कि और भी बिल्डिंगों में या कि अच्छे होटेलों में लिफ्ट रही हो मगर वहाँ तक न तो अपनी समाई थी और न कभी कोई काम पड़ा था। नगर महापालिका बिल्डिंग में ही जनगणना कार्यालय था जिसमें गाँव के रिश्ते से मेरे मामा जगन्नाथ दुबे काम करते थे। उनका ऑफिस मेरे घर से करीब छह किलोमीटर पर था। कई बार मैं उनसे मिलने उनके ऑफिस जा चुका था। तीसरी मंजिल पर उनके ऑफिस में मैं सीढ़ियों से जाता था। लेकिन जिस दिन लिफ्ट में चलने का अनुभव हुआ वह यादगार बन गया। इसलिये नहीं कि लिफ्ट में चलने का अनुभव हुआ बल्कि किसी दूसरे कारण से।

मेरे एक मित्र प्रदीप सिंह, आज प्रदीप सिंह कांग्रेस के बड़े नेता हैं। प्रदेश कांग्रेस में भी उनकी हैसियत काफी असरदार है, को उसी दिन उसके पिताजी ने नई सायकिल दी थी। आज शायद किसी को यह हास्यास्पद लगे मगर १९७४–७५ में किसी के लिये भी यह बहुत बड़ी गिफ्ट थी। सायकिल लेकर प्रदीप जब मेरे पास आया तो मैंने उसके सामने मामा के ऑफिस चलने का प्रस्ताव रखा। उत्साह में वह भी मान गया। हम दोनों नयी सायकिल पर गए। हमने महापालिका के दफ्तर में सीढ़ियों के नीचे सायकिल खड़ी की और ऊपर चले गए। सायकिल में ताला भी नहीं लगाया। मैं हरदम अपनी सायकिल वहीं खड़ी करता था। मामा के ऑफिस में मैं लगभग एक घण्टे तक रहा। जब वापस चलने को हुआ तो वे खुद छोड़ने के लिये नीचे तक आए। प्रदीप ने उन्हें अपनी नयी सायकिल दिखाई। मामा ने जब सायकिल में ताला होते हुए भी न लगा देखा तो कौंचे, "ताला तो लगाकर जाना था ऊपर...तुम लोग भी लौण्डे–लपाड़ी ही हो..." प्रदीप ने तुरंत ताला लगा दिया। वह भी तब जबकि हम लोगों को घर वापस लौटना था। उसके ताला लगाते ही मामा बोले, "कभी लिफ्ट से ऊपर गए हो...?"
"नहीं..." मैंने कहा। मामा बोले, " आओ ऊपर चलते हैं...लिफ्ट से...इसी से नीचे उतर आएँगे...दो मिनट लगेगा..." 

मामा शायद यह दिखाना चाहते थे कि जिस बिल्डिंग में उनका कार्यालय है उसमें लिफ्ट भी है। हम शायद लिफ्ट में चलने की उत्सुकता से परिचित होना चाहते थे। हमने हामी भर दी। लिफ्ट के सामने खड़े हुए तो चैनेल गेट जैसा फाटक खुला। उसमें स्टूल पर एक अक्खड़ आदमी बीड़ी पीते हुए बैठा था जो आदमी कम तानाशाह ज्यादा लगता था। दरवाजे बंद होते तो डर लगता। दम घुटता। हम तीनों ऊपर गए और उसी लिफ्ट से बिना बाहर निकले नीचे उतरे। हमारी सायकिल गायब थी। जो सायकिल बिना ताले के करीब एक घण्टे तक लिफ्ट के पास सीढ़ियों के नीचे सुरक्षित पड़ी रही वही ताला लगाने के बाद दो मिनट से भी कम समय में चोरी हो गई...  

आश्चर्य की बात थी। हालाँकि उसमें आश्चर्य कुछ भी न था...कोई सायकिल को ताड़ रहा था मगर उसे यह डर भी था कि हो सकता है इसका मालिक आस–पास ही हो लेकिन जब उसने जान लिया कि ये लोग लिफ्ट से ऊपर जाकर लौटेंगे तो उसने उन्हीं दो मिनटों में सायकिल पार कर दी नीचे आने पर सायकिल न पाकर हमने बहुत बावेला किया मगर कुछ हुआ नहीं। आज बरसों बाद जब मैं इस घटना को लिख रहा हूँ तो आपको एक राय देना चाहता हूँ...। भारत में ऐसी किसी घटना पर आक्रोश न जताएँ। उस थाने के इंचार्ज के सामने अपनी जेब खोल दें। आपकी चीज मिल जाएगी। लेकिन अगर आपने महात्मा गाँधी बनने का संकल्प ले लिया है तो आपको मुँह की खानी पड़ेगी क्योंकि महात्मा गाँधी आज खुद ही अप्रासंगिक हो गए हैं।

प्रदीप सिंह की सायकिल न मिलनी थी और न मिली। उस चक्कर में लिफ्ट का अनुभव तो काफूर हो ही जाना था। हो भी गया था।

बाम्बे में टाइम्स ऑफ इण्डिया के दफ्तर में जाते हुए जब लिफ्ट में घुसना पड़ा तो वर्माजी की कही हुई बात फिर ध्यान में आई। कानपुर नगर महापालिका की लिफ्ट का अनुभव तो बस एक अनचाही याद की तरह न जाने कबका बिसर चुका था। लिफ्ट के अचानक ऊपर की ओर चल पड़ने पर एक पल के लिये वैसा ही लगा जैसे ऊपर जाने वाला झूला चल पड़ा हो।
धर्मयुग के दफ्तर में जहाँ भारतीजी का कमरा था उसके सामने विजिटर्स के बैठने के लिये कुर्सियाँ और सोफे थे। माधुरी के लोग भी बाहर अपनी–अपनी डेस्क पर थे। मुझे याद नहीं कि किससे पूछा, "मैं भारतीजी से मिलना चाहता हूँ"
"चिट भिजवा दें"
एक चिट पर, 'कृष्ण बिहारी, सिक्किम' लिखकर मैंने अंदर भिजवा दिया और उनके कमरे के बाहर बैठकर प्रतीक्षा शुरू कर दी। मैं करीब डेढ़ घण्टे प्रतीक्षा करता रहा। उनके कमरे से न तो कोई बाहर निकला और न कोई भीतर गया। शायद वे कई लोगों के साथ जरूरी मीटिंग कर रहे थे। जब मैं लगभग ऊब गया तो धर्मयुग के ऑफिस से निकल कर सड़क पर आ गया। मैंने सोचा कि किसी दूसरे दिन फिर आ जाऊँगा, अभी तो यहाँ चार दिन रहना है।

मेरा वैसा सोचना ही गलत हो गया। मैं भारतीजी से कभी नहीं मिल पाया। काश उस दिन को मैंने भारतीजी के नाम कर दिया होता। पत्र–पत्रिकाओं में छपते और एक लेखक बनने का सपना पाले हुए भी मैं अपने पूर्ववर्ती प्रसिद्ध लेखकों से व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं था। कानपुर में राजेन्द्र राव, गिरिराज किशोर, उद्भ्रांत से परिचय था। राव साहब से निकटता थी। बलराम सहपाठी रह चुके थे। बहुत लिखते थे और छोटी–बड़ी सभी पत्रिकाओं में लिखते थे। उनका देश के बहुत–से रचनाकारों से परिचय भी था। एक बार उनके ही माध्यम से मैंने कमलेश्वर, से.रा.यात्री, हिमांशु जोशी को कानपुर में सुना। राजेन्द्र यादव का एक इण्टरव्यू सन १९८५ में आई.आई.टी. कानपुर में किया था। छोटी–सी मुलाकात हुई थी। कवि धर्मपाल अवस्थी मेरे अध्यापक रह चुके थे। उन्होंने मुझे दसवीं तक संस्कृत पढ़ाई थी। रामचन्द्र नेमी शाहजहाँपुर से कानपुर ऑर्डनेंस फैक्ट्री में ट्रांसफर पर आए थे वीर रस की कविताएँ लिखते थे और बहुत ओज में पढ़ते थे। कवि सम्मेलनों में जाते थे। अर्मापुर में पहला कवि सम्मेलन ऑर्डनेंस फैक्ट्री इण्टर कॉलेज में धर्मपालजी ने कराया था। बाद में वहाँ ‘परिमल’ संस्था बनाई गई। मैं उसका संस्थापक था और नेमी सेक्रेटरी। यह १९७७ की बात है।

मैं सन ७९ से कानपुर से बाहर रहा। लेकिन संस्था को नेमीजी चलाए जा रहे हैं। कानपुर के स्थानीय कवियों से मेरा परिचय नेमीजी के माध्यम से हुआ। कुछ गोष्ठियों में मैंने कविता पाठ भी किया था मगर जल्द ही जान गया था कि मेरी असली जमीन कविता नहीं, गद्य का क्षेत्र है। कानपुर से बाहर के साहित्यकारों से मेरा परिचय तबतक लगभग शून्य था। लोगों को मैं नाम से जानता था। लोग भी मुझे नाम से जानते थे। हमारे बीच नाम पहचान था। पिछले पचीस वर्षों से हिन्दी भाषी क्षेत्रों से दूर और विदेश में रहना भी रचनाकारों से निकट का परिचय न बना पाने का प्रमुख कारण रहा है। कभी–कभी सोचता हूँ कि दूरी के कारण, करीब से अपरिचित रह जाने के कारण ही कहीं बहुत–से समकालीनों से पीछे छूट गया। और, कभी–कभी सोचता हूँ कि अपरिचय और दूरी के कारण ही खूब लिख सका और बहुतों से आगे निकल गया। हिन्दुस्तान में रहते हुए अपने सामाजिक आचरण के चलते शायद मैं कुछ और तो जरूर कर पाता पर लिखना छूट जाता या कम हो जाता। आज स्थिति दूसरी है। पिछले दस वर्षों में अपने प्रयत्नों से मैंने एक दायरा बनाया है जिसमे हिन्दी के रचनाकारों के करीब हुआ हूँ। लेकिन यह निकटता मेरे लेखन के कारण हुई है। बिना लिखे बहुत–से रचनाकार चर्चा में हैं मगर मैं लिखने के कारण चर्चा में हूँ।

मैं रेस्तराँ पहुँचकर फिर नीम अँधेरों में खो गया। एक सुकून मिलता था वहाँ। शायद मुझे अबूधाबी जाने से डर–सा लगने लगा था। अकेले होते जाने का डर। रेस्तराँ मेरी शरणगाह बन गया था।

करीब घण्टे भर मैं रेस्तराँ में बैठा। एक बियर पी। सादा खाना खाया। सादे खाने में थाली थी। उसमें चपाती, दाल–चावल, दो सब्जियाँ, रायता और पापड़ इतना होता था जो मेरे लिये पर्याप्त से अधिक होता था। मैं भूख भर खाता हूँ। अपने साथ ज्यादती नहीं करता। ऐसा भी होता है कि भूख बची रहे तभी मैं खाना बंद कर देता हूँ। किसी गेट–टुगेदर में मेरे पास बैठकर खानेवाला कभी–कभी शर्मिन्दगी का शिकार हो जाता है। या तो वह भरपेट खा नहीं पाता या फिर यह सोचकर खाता है कि ज्यादा खा रहा है। हालाँकि मैं उसके खाने की ओर देखता तक नहीं...

रेस्तराँ से निकलकर मैं आस–पास निरर्थक घूमता हुआ समय काटता रहा। शाम तीन बजे मैं फिर वापस रेस्तराँ में ही आ गया। अजब हाल था कि जिसमें रेस्तराँ में दोपहर हुयी उसी में शाम हो रही थी। मैंने तय किया कि कल सहार एयरपोर्ट और जुहू बीच देखूँगा। दिनों को गुजारना था और खुद को उन्हीं के हवाले छोड़ देने में ही बेचैनी से निजात मिलनी थी। ऊपरी ही सही...

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