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ताहिरा ने बाहर से फेंकी जाने वाली ईंट की बात करन को बताई तो वह तमक उठा। सवालों की बौछार कर दी।
"ईंट तुम्हें कहीं लगी?"
"नहीं।"
"तुमने खिड़की से बाहर किसी को खड़े या भागते देखा?"
"नहीं।"
"और वह काँच? उसका कोई टुकड़ा तुम पर गिरा?"
"नहीं।"
ताहिरा को इंतज़ार था कि करन अब उसे बाहों में लेकर कहेगा कि शुक्र है तुम ठीक हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
"वो ईंट कहाँ है?" करन ने पूछा जैसे उसे शक हो कहीं ताहिरा ने खुद ही खिड़की का शीशा तोड़ा है।
ताहिरा ने सारा दिन दम साधे करन के लौटने की राह देखी थी। चाहा था कि उसकी बाज़ुओं में सिमट कर पहले जी भर के रो ले और फिर जब वो अपने ओठों से ताहिरा के आँसू पोछे तो सिसक–सिसक कर कहे,
"हमें यहाँ नहीं रहना, करन।"

लेकिन करन था कि उसी की जवाबतलबी पर लगा था। ऐसे सुबूत इकठ्ठे कर रहा था जैसे कोई पेशावर वकील किसी मुवक्किल के नए मुकदमे की पैरवी करने की तैयारी में हो।
"वो ईंट कहाँ है ताहिरा?" करन ने फिर पूछा।
ताहिरा ने खिड़की के नीचे वाली दीवार की तरफ इशारा कर दिया। करन ने जेब से रूमाल निकाला। उसे ईंट पर रखा और फिर ईंट को ऐसे सँभाल कर कमरे के बीच वाली मेज़ पर रखा जैसे कोई ताज़े फूलों का गुलदस्ता सजा रहा हो।
ताहिरा के लिए अपनी उमड़ती रूलाई रोकना मुश्किल हो रहा था।
करन अब खिड़की के पास खड़ा परदा उठाकर पूछ रहा था,
"यह काँच तो बुरी तरह से चूर चूर हुआ है।"
ताहिरा हुमक कर फ़ायरप्लेस की तरफ बढ़ी, दीवार से टिका कर रखा एक दुहरा ब्राउन बैग उठाया और करन की तरफ बढ़ा दिया। बैग भारी था, उसे दोनों हाथो में लेने के लिए ताहिरा ने ज्योंही अपना दूसरा हाथ बैग के मुहाने पर रखा, करन ने उसके हाथों से बैग थामना चाहा। और इसी पकड़ धकड़ में बैग में से झाँकता एक नुकीला बड़ा सा काँच ताहिरा की हथेली में चुभ गया।

खून की एक बड़ी सी बूँद निकली और धार बन कर ताहिरा की हथेली से उसकी कलाई तक फैल गई। सन्न सी खड़ी ताहिरा ने अपनी ज़ख्मी हथेली को दूसरे हाथ में पकड़ा और बहते खून पर अपना अँगूठा दबा दिया।
करन काच वाले बैग को ईंट के पास मेज़. पर रख के चुपचाप ताहिरा को देख रहा था। उसको अपने अँगूठे से हथेली दबाते देखा तो बड़ी रूखाई से बोला, "इतनी ज़ोर से मत दबाओ, यहाँ आओ में देखता हूँ।"
ताहिरा अपनी जगह से नहीं हिली तो करन ने पास आकर उसका अँगूठा उसकी हथेली से हटा दिया। कलाई पकड़ कर उसकी हथेली का रुख फर्श की तरफ किया। पहले तेज़ तेज़ कदमों से चला कर ताहिरा को खिड़की के पास ले गया। फिर वैसे ही चला कर कमरे के दरवाज़े तक कई बार ताहिरा की हथेली से छूटे खून के कतरे अब तक कमरे की मटमैली फ़र्शी दरी पर यहाँ वहाँ गिर चुके थे। वह समझ नहीं पा रही थी कि करन क्या करना चाहता है। इससे पहले कि वह पूछे, करन ने उसे अपनी बाहों में थाम लिया।
"चलो ताहिरा, वहाँ कुर्सी पर बैठो। मैं तुम्हारा हाथ धोकर बैंडेज कर देता हूँ।" उसकी आवाज़ में अब नरमी थी और आँखों में फ़िक्र। कुरसी पर बैठते ही ताहिरा फफक कर रो दी।

अगले दिन करन ताहिरा को अपने साथ रसल स्क्वेयर ले गया। जहाँ कहीं कोई जान पहचान वाला दिखाई दिया, वहीं करन ने रुक कर बात की। खुद बड़ी गरमजोशी से हाथ मिलाया और ताहिरा की तरफ़ देख कर कहा।
"माफ़ी चाहता हूँ। ताहिरा आज आप से हाथ नहीं मिला पाएगी। कल शाम हमारे साथ एक अजीब हादसा हो गया था।"
कुछ करन की नक्शेबाज़ी, कुछ लिखने वाले की कलम की करामात, कुछ कश्मीर से जुड़ी हर नई खबर में इंस्टीट्यूट ऑफ़ कॉमनवेल्थ स्टडीज़ और स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल अ‍ॅण्ड आफ्रिकन स्टडीज़् की गहरी दिलचस्पी। कैम्पस जरनल में करन और ताहिरा के बारे में लिखा लेख छपते ही रसल स्क्वेयर ही नहीं, आस पास के कई इलाकों में सनसनी बन गया।

दो सफ़े के लेख में चार रंगीन तस्वीरें थी। पहले सफ़े के बीचों-बीच चित्रा की दी गई पार्टी में लिया बड़ा सा फ़ोटो। काशनी मुकैश वाले दुपट्टे में फ़िल्म स्टार जैसी खूबसूरत ताहिरा के साथ सट कर मुस्कुराता हुआ नेहरू जैकेट वाले सूट में राजकुमारों जैसी शख्सियत वाला करन। दूसरे सफ़े पर एक तस्वीर में टूटे हुए काँच के आगे से खिड़की का परदा हटाता हुआ घबराया सा करन, दूसरी तस्वीर में परेशान सी, सहमी सी ताहिरा की पट्टी बँधी हथेली को फूँक से सहलाता फ़िक्रमंद करन। और पूरे दूसरे सफ़े के ठीक उपर एक कोने से दूसरे कोने तक चढ़ते सूरज की सुर्ख सुनहरी धूप में झिलमिलाती डल लेक में फूलों से लदे शिकारों की तस्वीर।

"खूबसूरती की पैदाइश पर बदनुमा हमला" उनवान था लेख का पहले जुमले में ही ऐसा समाँ बाँधा गया था कि पढ़ने वाला पूरे दो सफ़े पढ़े बिना छोड़ न पाए।
"शहज़ादे जैसा कश्मीरी ब्राह्मण करन हाथ में ताज़ा गुलाबों का गुलदस्ता लिए हेंडन सेन्ट्रल पहुँचने की जल्दी में था। पाकिस्तानी ताहिरा के साथ उसकी शादी को उस दिन छह महीने हो गए थे। वह वक्त से पहले पहुँच कर अपनी नई नवेली दुल्हन को चौंका देगा, ऐसा सोचकर जब उसने घर के अन्दर कदम रखा तो क्या देखा? बेपनाह हुस्न की मालकिन ताहिरा के नाज़ुक हाथ खून से रँगे हैं। और वह ज़र्द चेहरा लिए दरवाज़े और खिड़की के बीच चक्कर लगा रही है।"
उसे कश्मीर के एक जाने माने सेक्युलर हिन्दू परिवार की लाखों की जायदाद और कालीनों के व्यापार का लाड़ला वारिस करार करते हुए, लिखने वाले ने करन के कई किताबी जुमले बखूबी दुहराए थे।
"खूबसूरती का कोई मज़हब नहीं होता।" करन कहता है
"मुल्कों की सरहदें इन्सानी रिश्तों के बीच दीवारें नहीं उठा सकतीं।" यह करन की उम्मीद नहीं, बल्कि उसका अपना तजुर्बा है।
"ताहिरा के साथ शादी के बाद मेरी अगर दो ही औलाद हुई तो उन में से एक उस जलूस में शामिल होगा जो कश्मीर को इंडिया का ही हिस्सा मानता है और दूसरा उसके खिलाफ़ नारे लगाता रहेगा।" यह था करन का जवाब जब उस को पूछा गया कि कश्मीर के मसले को लेकर उनकी आनेवाली पीढ़ी किस का साथ देगी? माँ का या बाप का?
लेख के मुताबिक ताहिरा के हिन्दू पिता अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़माने में रायसाहिब थे और मुसलमान माँ एक मशहूर रेडिओ सिंगर।

लेख के आखिरी हिस्से में कहा गया था कि शादी के बाद लंदन आना करन और ताहिरा की ज़रूरत नहीं, मजबूरी थी। दिल्ली या कश्मीर में रहने पर उन दोनों के परिवारों को कट्टर मज़हबी लोग नुकसान पहुँचा सकते थे।
गैर मुल्की रस्मों–रिवाज़ों के बारे में अपनी जानकारी जताते हुए लिखने वाले ने यह भी कहा कि हिंदू घरों में शादी के बाद दुल्हनें अपने ससुराल में रहती हैं और मायके वाले उन्हें दान में दे देते हैं।
"ताहिरा का भी कन्यादान हुआ। दिल्ली की एक छोटी सी कचहरी में एक सादी सी सिविल मैरेज के बाद उसका कन्यादान किया दिल्ली के जाने माने मैजिस्ट्रेट गोपाल मलिक ने। ताहिरा के हिंदू पिता गोपाल के भी पिता थे। गोपाल की हिंदू माँ उनके पिता की ब्याहता पत्नी थी। और ताहिरा की मुसलमान माँ?
उनकी कोई शादी नहीं हुई।"
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ताहिरा और करन को क्लीवर विलेज में रहते करीबन छह महीने हो गए थे। रॉयल बोरोह ऑफ़ विंडसर की इस सबसे पुरानी बस्ती का नाम कभी क्लिफवेअर था शायद यानि कि पहाड़ी के रहने वाले। ज्यादातर सपाट धरातल वाले क्लेवर विलेज की पहाड़ियाँ वक्त ने कब और कैसे ज़मीन में छिपा दीं, यह तो यकीनन कोई नहीं जानता। बस कुछ पुराने घराने वालों का कहना है कि विंडसर कैसल उनके पुरखों की आँखों के सामने बना था। उस इलाके मे मीलों तक बाढ़ जैसा उमड़ता थेम्स दरिया तब भी कुछ दूर तक एक काफी चौड़ी सी गली बन कर बहता था। वहीं बस गया था क्लीवर विलेज। उन दिनों न कोई रेल की पटरी थी, न ही दरया पार करने का पुल। सिपाही, व्यापारी, कारीगर तंग दरिया पार करके इस किनारे से उस किनारे जाते थे।
क्लीवर विलेज वाले किनारे पर खड़े होकर जब ताहिरा ने पहली बार विंडसर कैसल को देखा तो कई बार निगाहें इधर उधर घुमाने के बाद भी पूरा नज़ारा एक साथ न देख पाई।

दूर दूर तक उठती गिरती लहरों से खींचा थेमस दरिया का हाशिया। हाशिये से उपर उठती घने पेड़ों की कद्दावर मेहराबें। मेहराबों से बहुत ऊपर उठती ठोस पत्थरों की दीवार और दीवार के सिर पर पहना कढ़ावदार बुर्जियों, उभरते गुम्बदों और तीखे तर्राशे स्टीपलस् का बुलंद बेमिसाल ताज। ईंट, पत्थर, गारा, चूना, मिट्टी की उम्रे दराज़ी की ज़िंदा दास्तान।

ताहिरा जब भी यह नज़ारा देखती तो सोचती कि अगर दुनिया में पुराने किलों की कोई बिरादरी होती तो विंडसर कैसल बेचारा कितना अकेला होता। खंड़हरों और तारीख़ी इमारतों के बड़े से हजूम में बसा–बसाया किला। लेकिन बेचारा क्यों होता मगरूर होता वो तो अभी तक उन्हीं बादशाहों और मलकाओं की रिहायश है जिनके पुरखों ने उसे बनवाया था।

ताहिरा इस किनारे पर खड़े होकर उस किनारे पर बसे विंडसर कैसल को बार बार देखने आती। छोटा रास्ता लेती तो पंद्रह मिनट भी न लगते। लेकिन वो जब भी आती, एक नए रास्ते चल कर पहुँचती। कभी इंग्लिश समर की गुदगुदी धूप सेंकते कॉटेजेस के पिछवाड़ों में लगे बेशुमार गुलाबों के रंग पहचानती हुई, कभी अभी अभी बरस के थमी बरसात से धुले छोटे गिरजा घर की सरहदी हेज के यूज़् की पत्तियों की कतरन को सँवारती हुई, कभी सूखे पत्तों के कालीन पर अपने कदमों के चरमरी शोर के लिए ख़ामोश माफ़ी माँगती हुई और कुछ एक बार चर्चयार्ड की शुमाली दीवार के पास बनी एक कब्र को देखकर अपने हाथों की अँगुलियों को एक एक करके खींचती हुई।

किसी मेरी एैन हल्ल की कब्र थी जो अठारह साल तक मलका विक्टोरिया के बच्चों की नैनी रही थीं। उन सभी शहज़ादे, शहज़ादियों ने कब्र के उपर एक सिल में अपने नाम खुदवा कर उसके लिए अपने प्यार को पत्थर में लिख दिया था। ताहिरा ने वो नाम कभी नहीं पढ़े। उसकी नज़र बस देर तक उस क्रास पर टिकी रहती जो कब्र से उठकर एक बेहद बारीकी से खुदे हुए खजूर के पत्ते की शक्ल इख्तयार कर लेता था। ताहिरा अपनी अँगुलियाँ उस खुदे हुए पत्ते पर फिराती तो उसे लगता कि उसकी रगों में से किसी छोटे से बरतन में से छलक कर पानी की कुछ बूँदें उसकी हथेलियाँ गीली कर देती हैं। पैरों को नम हाथों से पुंछवा देती हैं। उसकी अँगुलियों के नम पोर कुछ छूना चाहते हैं, कुछ ऐसा जिसे वह गूँथ सके, सँवार दे, सजा सके, निखार दे। जो सब के बीच होता हुआ भी सबसे अलग हो।

केअरटेकर की हैसियत से रहने के लिए क्लीवर विलेज में जो घर करन को मिल गया था, उसके न आगे किसी मलबा फेंकने की हौदी थी, न पीछे कोई आम रास्ता। पाँचों कमरों में हर एक की अलग सजावट। चमकती लकड़ी के फ़र्श पर जहाँ तहाँ बिछे बेशकीमती छोटे बड़े कालीन। ऊँची चौड़ी साफ़ सुथरी शीशे की खिड़कियों के आगे महीन और मोटे दुहरे परदे। तपी गेरूआ ईंटों की फ़ायरप्लेस में सूखी साफ़ लकड़ियों का छोटा सा गठ्ठर, तहा के रखे बुरदार तौलिये, बिना सिलवट के चादरों और सिरहानों के गिलाफ़ों की सजी सजाई ढेरियाँ।

ताहिरा ने एक दिन लिविंग रूम के कोने वाली गोल मेज़ पर रखा बोन चायना का बड़ा सा नाजुक गुलदान उठा कर कमरे के बीचों बीच पड़ी कॉफ़ी टेबल पर सजा दिया। मेज़ के नीचे वाले हिस्से पर बिखरी रंग बिरंगी भारी जिल्दों वाली कला की किताबों को सहेज कर मेज़ के उपर रखना ही चाहती थी कि गुलदान ने निहायत तहज़ीब से टोक दिया।

"माफ़ कीजिएगा मैडम। किसी भारी सी किताब के साथ इत्तफ़ाकन छू जाने का खतरा मुझे परेशान करता रहेगा। वैसे भी कौन जाने कब कोई कॉफ़ी उँडेलता हुआ हाथ ज़रा सा काँप जाए? और मुझे उसकी गरम बूँदों के छालों से झुलसना पड़े?"
बॅकयार्ड में सुखाई धुली हुई चादरों को तहा कर अलमारी में रखने वाली थी कि एक मुलायम इल्तज़ा हुई।
"अगर आप बुरा न माने तो एक गुज़ारिश है मेरी। एक दो मिनट का अपना कीमती वक्त मुझे देकर आप मेरी सलवटें निकाल देंगी क्या? आज बाहर धूप में कोई खास गरमी नहीं थी। इस्त्री करने वाला फ़ोल्डिंग बोर्ड वहाँ लांड्री रूम की दीवार से टँगा हुआ है, ये तो आप जानती ही हैं।"
लकड़ी के फ़र्श पर उसके हाथ से छूट कर एक टमाटर गिर गया था जो उसी के पाँव के नीचे आकर कुचला गया। जब वो फ़र्श पोंछने के लिए किचन टॉवेल गीला करके लाई तो लकड़ी का तख्ता कराह दिया।
"आपको परेशान करते हुए मुझे बहुत ही झिझक महसूस हो रही है। लेकिन प्लीज़, मेरे ऊपर आप पानी ना इस्तेमाल करें तो बड़ी मेहरबानी होगी। शायद दिखने में मज़बूत टीक की लकड़ी सा ही लगता हूँ, मगर ऐसा है नहीं। दर असल मुझे तो सीलाहट से अ‍ॅलर्जी है।"

ज़ाहिदा खाला के हाथ से कढ़ाई किए पलंगपोशों की एक जोड़ी निकाल कर उसने डबल बेड पर बिछा दी। साथ साथ बिछाए तो डबल बेड के बीचों-बीच एक दरार पड़ गई। उसने एक पलंग पोश को चौड़ाई में बेड के पायताने से सिरहाने तक बिछाया और तकियों के उपर दूसरा पलंगपोश दुहरा उढ़ा दिया। खिड़की के पास खड़े होकर अपनी सूझ बूझ की हामी भरने ही वाली थी कि पूरा का पूरा बेडरूम फुस फुस करने लगा। दीवारों के रंग, बेड साइड नाईट स्टैंडस् पर रखे टेबल लैम्प की छोटी छोटी छतरियों के रंग। फ़र्श से दीवार तक उठती खिड़की के सामने रखी आरामकुर्सी के गद्दे, कोने में पड़ा ब्ल्यू ट्यूडर का गुलदान।
"वाह क्या बेजोड़ हाथ के काम का नमूना है। कितनी नफ़ासत से की गई कढ़ाई है। पता नहीं कितना वक्त लगा होगा ये दो पलंगपोश बनाने में। आज कल ऐसी चीज़ देखने को कहाँ नसीब होती है? यह तो हमारी ही बदनसीबी है कि हम ऐसी अनोखी चीज़ के साथ रहने की हिमाकत नहीं कर सकते। ना हमारे रंग ना हमारी सजावट की स्कीम। कितने शर्म की बात है कि दीज़ टू डोन्ट बिलॉन्ग हिअर?"

यहाँ नहीं तो कहाँ? व्हेअर दे डू बिलॉन्ग? क्या सिर्फ़ पलंगपोश ही आउट ऑफ़ प्लेस है? या ताहिरा भी, और करन? वो तो क्लेवर विलेज पहुँचने से पहले ही वहाँ ऐसा रच रम गया था जैसे विंडसर केसल वालों के साथ बाद दुपहर की चाय पीने का आदी हो। हैंडन सेंट्रल छोड़ कर पैडिंगटन स्टेशन से ब्रिटिश रेल में बैठते ही उसके दिमागी ट्रान्स्फ़ॉर्मर ने हादसों को मौका बनाकर उसके मतलब निकालना शुरू कर दिया था।

"मुझे तो यकीन है कि उस बदमाश गोरे ने हमारे कमरे की खिड़की का काँच तोड़कर हमारी किस्मत का दरवाज़ा खोल दिया है। चित्रा बता रही थी कि कैम्पस जरनल में लेख पढ़ते ही डॉ॰ टेलर ने उसे बुलाकर खुद ही हमारे बारे में पूछा था। अब तो सारे कैम्पस में यह अफ़वाह है कि मैं उनकी नज़र में आ गया हूँ। सब जलने लगे हैं मुझसे, ऑफ़ कोर्स, देअर आर एक्सेपशन्स। लेकिन फिर भी।

"ज्यादातर लोग तो क्लीवर विलेज के टेलर हाउस में रहने का मौका हासिल करने के लिए एक आध हाथ पाँव गँवाने को तैयार हो जाते। ख़ास कर इसलिए कि उन्हें पता है कि डॉक्टर टेलर जब सबाटिकल पर होंगे, तो यहाँ उनकी रिहाइश वाली खतो–खिताबत का ज़िम्मा मुझ पर होगा। बहुत भरोसा किया है उन्होंने हम पर। तुम्हें भी पूरी एहतियात से रहना होगा। जो जहाँ जैसे छोड़ कर गए हैं, लौटने पर उनको सब कुछ वैसा ही मिलना चाहिए।"

करन बोलता चला गया। उसके कंधे की तरफ़ वाला ताहिरा का एक कान उसकी बात फिर सुन रहा था। हर बार उस बात को दुहराते वक्त करन उसमें कोई और नुक्ता निकाल लेता था। लेकिन उसे सुनने के लिए एक ही कान काफ़ी था।
ताहिरा का दूसरा कान ब्रिटिश रेल की रफ्तार और आवाज़ का ताल मेल बैठाने में लगा था। इतनी तेज़ रफ्तार और ऐसी कम आवाज़? हरियाली के इतने रंग उसने पहले कभी नहीं देखे थे। उसने खिड़की से आँखें हटा कर करन को देखा।
"ज़ाहिदा ख़ाला कहती थी कि कच्चे हरे और सावे कचूच के बीच हरे रंगों का एक कुनबा होता है। अंगूरी, मेहँदी, तोतिया, घीयाकपूरी, ज़हरमोहरा, मूँगिया . . ."
"यह तुम रंग गिन रही हो या सब्ज़ी–तरकारियों की लिस्ट बना रही हो?" करन ने उसे बीच में ही टोक दिया। फिर वह उठ खड़ा हुआ। सीट की बाज़ू से टिका अपना अखबार उठाया और ताहिरा का कंधा थपथपा कर बोला,
"तुम अब आराम से अपने रंगों की गिनती करो। मैं वहाँ सामने वाली सीट पर बैठता हूँ, वैसे भी मुझे उसी तरफ़ देखना पसंद है जहाँ मैं जा रहा हूँ। जो पीछे छूट गया उसे कब तक देख सकता हूँ?"

खिड़की से बाहर पीछे छूटती हरियाली तो भाग दौड़ कर ब्रिटिश रेल के साथ ही चल रही थी। सिर्फ़ उफ़क वहीं का वहीं था, डूबते सूरज की फैलती सुर्खी में नहाया। छोटे छोटे रूई के गोलो जैसी बदलियों के तौलिए से बदन पोंछता ताहिरा आँख झपकने से कतरा रही थी। बीच आसमान में उगते डूबते सूरज के रंग उसने देखे थे। लेकिन मीलों फैली हरियाली के पार रंग बदलता उफ़क? नज़र के सामने पहुँच से दूर इतनी नज़दीकी, इतना फ़ासला...
गाड़ी जब स्टेन्स पर रूकी तो बिज़नेस सूट और ब्रीफ़केस वाली एक अंग्रेज़ औरत करन के पास वाली सीट पर आकर बैठ गई। ट्रेन के चलते ही उसने अपना ब्रीफ़केस अपनी गोद में रखा और आँखें मूँद लीं।

खिड़की से बाहर अब सुरमई छिटपुटे में दूर दूर तक इक्की दुक्की रोशनी के छोटे छोटे हजूम टिमटिमाने लगे थे। ताहिरा देखती रही और झपक गई। जब उसने आँख खोली तो देखा कि उसके सामने वाली दो सीटों पर एक आदमी और औरत बड़े सुकून से आँखें मूँदे सटे–सटाए बैठे हैं। औरत का सर मर्द के कंधे पर है, मरद का सिर औरत के कटे हुए भूरे बालों पर झुका है।
ताहिरा ने गौर से देखा। औरत तो बिलकुल सोई हुई थी, लेकिन मर्द? आँख मूँदते ही खर्राटे लेने वाला करन क्या वाकई इतनी खामोशी से सो सकता है? या खर्राटे बैठ कर सोने से नहीं आते?
ताहिरा देखती रही और सोचती रही।

"मेरे बिस्तर में मेरे साथ सोने वाला मेरा शौहर आज मेरी ही आँखों के सामने एक अजनबी औरत के सर का सहारा लेकर आँखे मूँदे बैठा है। और मेरे मन में एक बार भी यह खयाल नहीं आता कि मैं इसे जगा दूँ। क्या वाकई मुझे कोई रंजिश नहीं? जो रंज नहीं दे पाता, वह खुशी देगा क्या"
डचेट स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही अंग्रेज़ औरत ने कुछ हड़बड़ा कर आँखें खोलीं और अपना ब्रीफ़केस उठा कर खड़ी हो गई। करन वैसे ही आँखें मूँदे रहा। औरत ने एक बार करन को देखकर ताहिरा से कहा,
"लगता है मैंने इनका कंधा उधार ले लिया था।" और फिर वह हल्का सा मुस्करा कर गाड़ी से उतर गई।
गाड़ी के दुबारा चलते ही करन ने आँखें खोल दीं।
"लगता है मुझे झपकी आ गई थी," उसने मुँह पर हाथ रख कर जमुहाई ली और खिड़की से बाहर छूटते हुए स्टेशन को देख कर बोला।
"हमें अगले स्टेशन पर उतरना है।"

उस रात जब टेलर हाउस के साफ़ सुथरे बिस्तर में करन ने ताहिरा को टटोलना शुरू किया तो वह इंतज़ार करती रही। अब उसका बदन मौज बन के उठेगा। अब उसके होंठ मीठे दर्द से चीखेंगे। अब वो डूबते सूरज की अलसाई धूप जैसी बिखर कर सिमट जाएगी। अब... अब... अब... जब उसकी कमर पर रखे करन के हाथ की गिरफ़्त ढ़ीली पड़ गई तो ताहिरा को लगा कि वह महज़ चाभी घुमा घुमा कर चलाने वाला एक ढोलकिया खिलौना है। चाभी पूरी होने तक इंतज़ार करता है। चाभी पूरी होते ही हाथ पाँव चला कर कुछ देर ढोलक बजाकर नाच गा लेता है। चाभी खत्म होते ही फिर वैसे का वैसा, ख़ामोश बिना किसी हरकत के साबुत सबूत। ना नाचने का शरूर, न गाने का हुनर।
•••
क्लीवर विलेज में रहने के बाद ताहिरा को एक नई लत पड़ गई थी। यहाँ-वहाँ से माटी इकट्ठी करने की। बॅकयार्ड में टूल शेड के पास एक छोटा सा गढ़ा बना कर वह माटी को पैरों से रौंधती, हाथों से ढेरियाँ बनाती, अँगुलियों से गाँठें निकालती और घंटों तक छोटे बड़े खिलौने बनाती। थाली, कटोरी, तवा, परात, चकला बेलन, कुर्सी मेज़, अँगीठी चूल्हा। करन के आने तक धूप सेकते अपने खिलौनों को देखती और फिर सहेज कर टूल शेड के एक ख़ाली शेल्फ़ पर रख देती।
एक दिन ताहिरा ने इंग्लिश मार्मालेड का एक ख़ाली मर्तबान गुंधी माटी में लपेट दिया। भरी दुपहरी डाइनिंग रूम की बड़ी खिड़की के चौड़े शीशों से आती धूप में रख कर उसे सुखाया। सँभाल कर मर्तबान खींच लिया और माटी के एक नए मर्तबान को कच्ची फल तरकारी के टुकड़ों का गजरा पहना दिया। अब वह रोज़ कोई नया बरतन बनाती। कभी अधसूखे बरतन में छुरी की धार से महीन खुदाई करती। कभी गीले बरतन को सूखे फूल पत्तों की बेलें बनाकर सजा देती। टूल शेड का सामान एक कोने में सिमटता गया। और वहाँ की शेल्व्ज पर माटी के ताज़ा बरतनों की कतारें लगने लगी। ज़ाहिदा को ताहिरा का एक और खत पहुँचा।

क्लीवर विलेज १८ अगस्त १९७०
ख़ाला जान
मेरे माटी के बरतनों में तरेड़ रह जाती है। मेरे हाथों से चिपकाए फूल पत्ते माटी में घँस तो जाते हैं मगर सूख कर अपने रंगों की शोखी गँवा देते हैं।
आपने मुझे माटी रूँधना क्यों नहीं सिखाया ख़ाला जान आप के हाथों रंगे दुपट्टे अभी तक लिशकते हैं मेरे ऊपर। मेरे हाथों वैसा पक्का रंग मेरे बरतनों पर क्यों नहीं चढ़ता?
आपकी ताहिरा

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