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पानी बरस रहा था। जमाल के जहन में घर का आँगन उभर रहा था, जहाँ वह काग़ज़ की नाव नाली में तैराने के बहाने भीग रहे थे। ऊपर खिड़की से अम्मा की फटकार पड़ रही थी।
''मैं देख रही हूँ, जामुन...मेरे सब्र का इम्तहान मत ले, बेटे...अंदर आ...जामुन!'' आवाज़ दूर होते-होते गुम हो गई। माँ का धुँधला चेहरा बारिश के बरसते परदों में कभी छुपता, कभी दिखता उन्हें बेचैन कर रहा था।

समीना और कमाल जब पुल के नीचे से गुज़रे तो उन्हें लगा कि पुरानी मारुति आधी डूब चुकी है, बस कुछ ही देर में इंजन बंद होने वाला है, मगर बड़ी आसानी से कार पानी को चीरती ऊपर सड़क पर आई। दोनों ने राहत की साँस ली। बाईं तरफ़ गाड़ी मोड़कर कमाल ने हमेशा की तरह गली के मुहाने पर पार्क की और समीना को इशारा कर नीचे उतरा। रास्ता गंदगी से अटा था। कीचड़ में दोनों के पैर सन चुके थे! ढाल से पानी का बहाव नीचे की तरफ़ तेज़ था।
''कौन?'' दरवाज़ा खटखटाने पर आवाज़ उभरी।
''समीना।'' समीना ने चेहरे पर पड़ी पानी की बूँदों को दुपट्टे से साफ़ किया।
''खोलते हैं।'' अंदर से आवाज़ आई।

अंदर के दृश्य बाहर से कम बिखराव का न था, बस फ़र्क इतना था कि यहाँ पर पानी टपक ज़रूर रहा था, मगर गंदगी नहीं थी। दोनों को देखकर औरत के चेहरे पर खुशी कौंध गई। उसने टीन की कुर्सी को पोंछकर आगे करते हुए कहा-
''बैठ जाएँ...ऐसे तो बूँद-भर पानी को तरसत हैं और अब देखो, जल-थल एक कर दीहिन हैं नीली छतरीवाले!'' यह कहकर वह हँस पड़ी।
''बैठेंगे नहीं, जल्दी से आस-पास से लड़कों को पुकारो, ताकि कार से सामान उतार लें।'' कमाल ने छाता बंद करते हुए कहा।
''आपको हमारी चिंता जाड़ा, गरमी, बरसात लगी ही रहत है...जाने कउन जनम का ऋण उतारत हो।'' उस अधेड़ उम्र की औरत के चेहरे पर भावना की तरलता छा गई फिर वह बाहर निकल पड़ोस की झुग्गी का किवाड़ पीटने लगी, ''शामू...शामू, बिज्जू और काले को लेकर आ...डॉक्टर साहिब आए हैं।''

इस बीच समीना और कमाल कीचड़ में छपाछप करते कार की तरफ़ लौटो और डिक्की खोलकर सामान उठाने लगे- प्लास्टिक की शीट, खाने का समान, कुछ दवाएँ और इसी तरह की कई और चीज़ें थीं। छोटी उम्र के लड़के सिर पर प्लास्टिक का थैला लगाए भागे-भागे आए और नमस्ते कर उनके हाथों से सामान ले वापस अपनी झोंपड़ी की तरफ़ लपके। उन्हीं के पीछे एक काले रंग की हट्टी-कट्टी औरत पानी से भरी बोतल पकड़े आई और समीना से बोली-
''भौजी, पैर तो धुलवाय लो। का गत बन गई है कपड़न की, देखो तो!''
''अरे ठीक है।'' जब तक समीना यह कहती उसने समीना की कीचड़भरी जींस की गोट और पैरों पर पानी डाला और कमाल की तरफ़ बढ़ी, कमाल ने तेज़ी से पैर पीछे किया तो वह मुड़कर बोलीं-
''कैलास रे, बाप को भेज दे! डॉक्टर साहब का जूता भी सना है कीचड़ मा।''
''बस, बस, अब चलते हैं। पानी कुछ थमा है, वरना पुल के नीचे पानी बढ़ने से परेशानी हो जाएगी।'' इतना कह कमाल कार का दरवाज़ा खोल अंदर बैठ गया और कार स्टार्ट की। तब तक समीना भी पैर का पानी झटक पायंचे निचोड़कर सीट पर बैठ चुकी थी। कमाल ने हाथ हिलाया और कार आगे बढ़ाई।
''आज ही बरसाती और लांग बूट निकाल लेना।'' कमाल ने धीरे-से कहा।

बारिश की झड़ी मद्धिम पड़ गई थी, मगर काले मेघों का काफिला चलना बंद नहीं हुआ था। बीच-बीच में गर्जन-तर्जन का स्वर भी झूमते, पानी झंटकारते पेड़ों के बीच से उभर रहा था। वाइपर ने सामने का शीशा साफ़ कर दिया था। कमाल बड़े आराम से कार चला रहा था। सड़कें खाली थीं। कहीं-कहीं कोई साइकिल-सवार पानी से सराबोर गुज़रता नज़र आ जाता था! ठेले, रिक्शे या तो अपने खटालों पर या किसी पेड़ के नीचे शरण लिए खड़े थे। पानी से भीगे परिंदे अब अपने पंख फड़फड़ाते उन्हें सुखाने में व्यस्त थे।

''यार समीना! इस बीमारी-भरे मौसम का दूसरा चेहरा कितना रूमानी है!'' कमाल ने मीठी नज़रों से समीना को ताका। नम हवा ने कमाल के माथे पर बाल बिखेर दिए थे। समीना ने अजीब सम्मोहन से कमाल को ताका, फिर माथे के बाल हटा उसका चुंबन ले अपना सर उसके कंधे पर रख दिया। कमाल ने उसकी माँग चूमी।

आठ बजते-बजते दोनों घर वापस आ गए थे। नहाकर अब गरम कॉफी की चुस्की ले रहे थे। बाहर बूँदाबाँदी फिर से शुरू हो गई थी। बिजली रह-रहकर तड़प उठती थी। समीना को छींक-पर-छींक आए जा रही थी। सिर भी हल्का-सा दुख रहा था।
''बहुत वक्त से पहुँचे हम लोग, वरना तो...'' कमाल ने कॉफी की खाली प्याली मेज़ पर रख अंगड़ाई लेते हुए कहा, फिर कंप्यूटर का स्विच ऑन किया।
''बाकी सामान कल रखवाऊँगी। अभी तो हाशिम अब्बी के कमरे में होगा।'' समीना ने नाक के ऊपर विक्स मलते हुए कहा।
''कल तो वैसे भी हमारा निकलना नहीं हो पाएगा, छोटी अम्मी ने खाने पर बुलाया है। और मेरी मीटिंग ही साढ़े सात बजे तक चलेगी।'' कमाल ने काम में डूबते हुए कहा।
''सुबह चलेंगे। तुम जल्दी उठ जाना! ज़्यादा नखरे न करना, वरना मैं रोज़ की तरह कल जगाने वाली नहीं हूँ....यह एलर्जी मेरा पीछा जल्दी तो छोड़ेगी नहीं।'' इतना कह समीना ने दोहर खोली और औढ़कर पलंग पर लेट गई। कमाल की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। वह वर्ल्ड कॉनफ्रेंस की मेडिकल रिपोर्ट में उसी तरह डूबा रहा। अगली बैठक फ्रांस में होने वाली थी जिसके लिए उसे एक परचा लिखना था। यह बैठक जर्मनी में हुई बैठक का 'फॉलोअप' थी।

रत्ना का पड़ोस आबाद हुए अभी महीना भी नहीं हुआ था कि दोनों घरों में छोटी-छोटी झड़पें शुरू हो गई थीं। पहली खटपट तो गूलर के पेड़ को लेकर हुई थी जो दोनों घरों के बीच खिंची दीवार के कोने में खड़ा था, जिसकी जड़ रमेश-रत्ना के और उसकी आधी शाखाएँ पड़ोस के आँगन में छतनार-सी बन फैल गई थीं। किरायेदार अपनी मर्ज़ी का कोई पेड़ वहाँ लगाना चाहते होंगे या उन्हें धूप भरपूर न मिलती होगी सो उनका इसरार था कि रमेश पेड़ को छाँट दे। रमेश चुप रहा, मगर मुकेश रोज़-रोज़ के तकाज़े से तंग आकर बोल उठा कि आप मकान मालिक से जाकर कहें। वह मुख़्तार ठहरे, पेड़ काटें या डाली, हम काहे अपने ऊपर पाप चढाएँ? मगर आज की झों-झों कुछ ऐसी थी कि उनके बीच सुलह-सफाई की जगह झगड़ा पूरी गली में फैल गया जैसे सैलाब का पानी...

पीपल वाली गली में कच्चे गारेवाली कोठरियाँ बड़े बूँद की इस बारिश को न सह सकीं और तेवराकर गिर पड़ीं। बारिश में मूँगफल्ली बेचने वाली बुढ़िया का रोना कौन सुनता, ऊपर से बेटे-बहू ने इस बिपता की सारी झुँझलाहट उस पर निकाली। रास्ता बंद होने से जगह-जगह गली में पानी भरने लगा। घरों में बर्तन तैरने लगे और परेशान संपोले मारे जाने के डर से छटपटाते-से इधर-उधर घुस अपनी जान बचाने में लगे थे। बारिश में भीगती बुढ़िया सनक में रोती आगे बढ़ रही थी, जिसे देख चंदन ने उसे बुला दुकान के पटरे पर बिठा, दिलासा दिया। एकाएक जो उसकी नज़र ऊपर गई तो जान ही निकल गई- जब उसने अपने तंदूर की खपरैलिया छत पर लंबा डरावना साँप सुस्ताते देखा। भगावे तो डर है, नीचे गिरकर कहीं फिर तैरता हुआ अंदर घर की राह न पकड़ ले। वह कुछ देर सुन्न-सा बैठा रहा, फिर बुढ़िया को उसके भाग्य पर छोड़, कोठरी में कुंडी लगा, घर का दरवाज़ा खोल अंदर चारपाई पर पड़ गया। दुकान के दोनों लड़के दो दिन से आ नहीं रहे थे। बड़का छुट्टी लेकर घर गया था। छुटका बुखार में पड़ा था। अंदरसेवाली गली में पानी भरने का कोई मतलब न था, मगर जब दूसरी गलियाँ घुटने तक भर जाएँ तो पानी अपना रास्ता आसपास बना ही लेता है।

मस्जिदवाली गली में कल रात से बारात का इंतज़ार हो रहा था। गाड़ियाँ ठप्प होने के कारण लड़कीवालों का मुँह सूखकर छुहारा हो गया था। खाना तो बिरादरी को खिलाना पड़ा, मगर लड़की बिना निकाह के दाँतों पर मिस्सी मले, नाक में नथ डाले, खटाई बनी निकाह की आस में सूख रही थी। सहेलियाँ और भाभियाँ भी अब तक चिकोटी काट, हँसी-ठिठोली कर, माहौल को ज़िंदा बनाए रखतीं! वे सब भी खा-पीकर उल्टी-सीधी इधर-उधर पड़-पड़ाकर सो गई थीं। बाप, चचा का हाल बुरा था कि अब आगे क्या होने वाला है। माँ दिल मसोसे बैठी बारिश के रुकने की मनौती पर मनौती माँग रही थी। सुबह नाश्ते में रात का बचा खाना जैसे-तैसे चला दिया गया था, मगर दोपहर का खाना सवाल बन सामने खड़ा था। इस तूफ़ानी बारिश में मेहमान भी कैसे अपने घरों को लौटें, आखिर वह भी चंद घंटे को आए थे, क्या पता था कि इस मुसीबत में फँस जाएँगे!

गाने-बजाने से गुल व गुलजार शादी का घर सोग में डूब गया था। लड़की वालों को यह भय भी अंदर ही अंदर खाए जा रहा था कि जाने बारातियों पर क्या गुज़र रही होगी! कहीं कोई अनहोनी तो नहीं घट गई? जाने बस कहाँ फँसी होगी या फिर...? किसी ने ट्रांजिस्टर ऑन किया तो खबरें सुनकर और दहशत फैल गई कि नदियाँ अपने खतरे के निशान को पार कर रही हैं। सड़कें पानी में डूबी हैं और कई जगहों पर पेड़ों के भारी मात्रा में गिरने से यातायात की गति अवरुद्ध हो चुकी है। कई स्थानों पर बसें उलटने की भी खबरें थीं। यह सब सुनकर लड़कीवालों का दिल बैठ-सा गया। बड़ी-बूढ़ियों ने जानमाज खोल, खुदा के आगे माथा टेक गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया।

कितनी दुशवारियों के बाद लड़की की बात पक्की हुई थी। कर्ज़ा लेकर सज़ावट और खाने का इंतज़ाम हुआ था। अब वैसा इंतज़ाम फिर से क्या हो पाएगा! और कहने को हो भी गया तो जाने बारात...इससे आगे दिल दहल जाता है और कुछ सोचने-समझने की ताक़त न बचती। बारिश ने कहर बरपा कर रखा था। उसमें फँसे लोग तौबा कर अपने गुनाहों की माफ़ी माँग रहे थे।

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२१ जुलाई २००८

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