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दूसरा भाग

मीरा वैसे ही मुँह उठाकर पर्सनल दफ्तर की ओर चल दी। उसका सारा उत्साह फिर से उसे छोड़ रहा था। उसे पकड़ने की कोशिश जैसे पानी को मुठ्ठी में भींचने की कोशिश भर थी।

उसने पर्सनल दफ्तर की ओर जाते हुए सोचा कि वहाँ तो कई लोगों को पहचानती है। लेड़ीज रूम में औरतों से मुलाक़ात होती ही रहती थी क्योंकि सारे दफ्तर इसी फ़्लोर पर थे। हॉल के अंतिम छोर पर पर्सनल दफ्तर था। वैसे ही नये–नकोर ट्रांस्पेरेंट शीशे के दरवाज़े थे, धकेलकर अंदर गई – बाईं ओर, वैसे ही जैसे कि रे के दफ्तर में थीं, तीन फीट ऊँची प्लास्टिक की दीवार के पीछे से खूब गहरा मेकअप किए रिसेप्शनिस्ट झाँक रही थी। मीरा सीधे उसी के पास जाकर खड़ी हो गई। लड़की ने जिसने कि उसे दरवाज़े से अंदर आते देख लिया था, अपनी ओर मुखातिब पाकर पूछा, "हाऊ कैन आई हेल्प यू?"
"मैं आज यहाँ ज्वाइन करने आई हूँ।"
"पर्सनल में?"
"नहीं, पेरोल में।"

लड़की ने बताना शुरू किया, "पेरोल दफ्तर इस फ्लोर के दूसरी तरफ़ है।"
मीरा की सहनशक्ति हारने लगी थी, एकदम बोल पड़ी, "वह मुझे मालूम है। वहीं से आ रही हूँ। उन्होंने ही भेजा है कि यहाँ से रिइन्स्टेटमेंट फार्म मिलेगा।"

लड़की बिन माँगे सारी सूचनाएँ पाने पर बौखला–सी गई। उसने मीरा से रुकने को कहा और चारफुटिया दीवारों के पीछे के चेहरों में से किसी को लिवाने चली गई। काफी देर इंतजार के बाद उसके साथ जरूरत से ज्यादा गोरी, हल्के भूरे रंग का स्कर्ट और जैकेट पहने एक सभ्य–सी दिखने वाली महिला आई। मीरा को 'आस्की' से अंत होने वाला उसका पोलिश नाम ध्यान में आया...इस महिला को उसने लेडीज रूम में कई बार देखा था। इस औरत की आँखों में भी पहचानने की कोशिश दिखी मीरा को। उसने कहा, "डिड यू वर्क हियर बिफोर?"
"हाँ, दो साल पहले...फिर लंबी छुट्टी ले ली थी मैंने। मुझे आपका चेहरा याद है। हम लेडीज रूम में मिला करते थे।" मीरा अंग्रेजी में उसे बता रही थी।
"डिड यू हैव ए बेबी?" उसने चेहरे पर मुस्कान फैलाकर कहा। मीरा पल भर को झेंपी, फिर बोली, "नहीं, मैंने पढ़ाई के लिए छुट्टी ली थी।"
"हैव यू फिनिश्ड स्टडीज?"
"नॉट यट।"
"वाट डिड यू डू... एम.बी.ए.?"
"नो–नो...ह्यूमैनिटीज – फिलासफी।
"ओ..." और उसने पड़े सोफेनुमा बेंच की ओर इशारा करते हुए कहा, "प्लीज हैव ए सीट, समवन विल बी विद यू सून।"

फिलासफी पढ़ने वाली मीरा के प्रति उस महिला का कौतूहल एकदम मर–सा गया था।
मीरा ने अब अपना कोट, मफ़लर और टोपी उतारकर सोफे के खाली हिस्से पर पर्स के ऊपर रख दिया और तब से हाथ में पकड़े कॉफी–बेगल के लिफाफे को खोलने लगी। बैठते ही भूख–सी भी महसूस हुई उसे। कॉफी अब तक ठंडी हो चुकी थी पर बेगल को निगलने के लिए उसने चुस्कियाँ लेनी शुरू कर दीं।

करीब बीस–पच्चीस मिनट के इंतजार के बाद जब कॉफी खत्म हो चुकी थी, एक गोरे रंग की घुँघराले बालों वाली लड़की जो क्लर्क होगी ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। मीरा ने सोचा कि इतने ठस्स घने घुँघराले बालों वाली यह लड़की जरूर गोरे–काले माँ–बाप के रंग–मिश्रण का परिणाम होगी...चूँकि अमरीका में तो यह आम बात है नहीं। सो जरूर किसी लातिन अमरीकी देश से होगी जहाँ स्पेनिश और काली जातियों के मिश्रण से एशियाई किस्म का गोरापन लिए मुलैटो या क्रिओल किस्म की जातियाँ बनी हैं। मीरा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी,
"कहाँ से हैं आप?"
"यहीं, अमेरीका से?"
"नहीं...पीछे से।"
"ओह कोलंबिया...आप भी लातिन अमरीका से?
"नहीं, मैं इंडिया से हूँ।"

वह लड़की मीरा को अपने डेस्क के पास ले गई। मीरा को एक कुर्सी पर बिठाया और कुछ कागज निकालने लगी। उसने मीरा को कुछ फार्म भरने को दिए और साथ–साथ व्यक्तिगत सवाल भी पूछती रही,
"हैव यू वक्र्ड हियर बिफोर?"
"यस, फॉर अबाउट फोर इयर्स।"
"डिड यू लाइक इट हियर?"

मीरा के पास इस बात का जवाब नहीं था। जवाब होता भी तो सुनने में फ़िजूल लगता। अगर जगह पसंद थी तो छोड़ी ही क्यों और अगर नहीं पसंद थी तो वहीं लौट क्यों रही है। मीरा ने अनमने ढंग से कहा,
"मुझे पढ़ाई खत्म करने के लिए छुट्टी चाहिए थी, अब छुट्टी खत्म हो गई, सो लौट रही हूँ।"
लड़की जैसे उसकी स्थिति को समझ रही हो, बड़े सहानुभूति भरे भाव से बोली,
"आई नो, हाऊ यू फील...एनीवे, वेलकम बैक।"

वह एक के बाद एक फार्म निकालती और मीरा से उसकी अहमियत बतलाती और हस्ताक्षर करवाती– टैक्स फार्म, यूनियन की सदस्यता, हेल्थ इंश्योरेंस...फंक्शन सोशल सिक्युरिटी, जाने क्या–क्या।
सारे फार्म साइन करके मीरा फारिग़ हुई तो क़रीब बारह बजने लगे थे। अब उसे वापस पेरोल जाना था।
सीखचों के पीछे वही मोटी औरत खड़ी किसी से बात कर रही थी। एक लंबी कतार लगी हुई थी। लोग शायद चेक लेने आए हुए थे डिपार्टमेंट के दूसरे दफ्तरों से। अचानक उस भारी–भरकम औरत का नाम चमका मीरा के माथे पर – एलिजबेथ हिल थी भी पहाड़ की पहाड़ मीरा कतार से हटकर एक किनारे खड़ी हो गई। उस आदमी से फारिग हो मोटी औरत ने उसे देखा तो दरवाज़े की बिजली के–से खोलने वाले बटन पर हाथ रखते हुए बोली,
"यू कैन कम इन नाऊ। आय एम ओपनिंग द डोर।" दरवाज़े के हैंडल को हाथ से नीचे को दबाया तो दरवाजा खुल गया।

यहाँ भी हॉल जैसा दफ्तर वैसे ही स्तर के हिसाब से तीन, चार या पाँच फुटिया दीवारों से बँटा हुआ था। ज्यामिति के नियमों का उपयोग करके कम से कम जगह में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बिठाने की चतुराई यहाँ भी नजर आ रही थी। दरवाज़े के एक किनारे से ही मीरा को कई तरह के चौखाने दीख रहे थे और हर चौखाने से उठता हुआ काला, भूरा, सलेटी, लाल या गंजा–अधगंजा सिर भी। कहीं–कहीं कंधों का कुछ हिस्सा भी...खासकर आगे के डिस्कों से। इन्हीं में से एक खान मीरा के लिए भी होगा– मीरा के भीतर कुछ चटखा। वह दरवाज़े के पास ही स्थिर हो गई...तभी उसने एलिजबेथ का आदेश सुना, "फ्लोरेंस, हैव हर सिट ऑन जैन्स डैस्क...देयर इज नो अदर प्लेस...दैन आई विल सी लेटर"

हूँ, तो मीरा के लिए कोई डेस्क भी नहीं बचा मीरा को उस आदमी का–सा लगा जो किराए पर घर देकर घर ही किराएदारों को खो बैठे और वापस माँगने पर उस पर घुसपैठिए का आरोप लगाकर अपमानित किया जाए।
एक चौखाने में से सलेटी रंग का सिर उठा और मीरा ने देखा एक बड़ी उम्र की महिला उसकी ओर बढ़ रही है।
"ओ यू आर मीरा...आय रिमेंबर यू...डिड नॉट यू लीव?"
"नो, आई वॉज ऑन लाँग लीव।" मीरा ने छोटा–सा उत्तर दिया, पर महिला बड़ी उत्साहित–सी लग रही थी।
"आई वर्क्ड विद यू व्हेन यू कोआरडिनेटेड द आडिट्स प्रोजेक्ट...यू यूज्ड टू बी इन स्पेशल प्रोजेक्टस।
मीरा को याद हो आया...यह महिला बहुत बोर लगा करती थी उसे। वह जब कभी इस दफ्तर के बासीपन और ऊबा देने वाले माहौल की बात करती थी तो फ्लोरेंस जैसे लोग ही उसके दिमाग़ में होते थे...तो अब इन्हीं लोगों के बीच काम करना होगा, उसका दिल डूबने लगा।
मीरा ने एलिजबेथ हिल की तरफ़ मुखातिब होकर कहा, "बैन कहाँ है?"
उस भारी–भरकम पहाड़ ने उसे सीधी निगाह से तरेरते हुए कहा, "प्लीज, वेट फ्यू मिनट्स, मिस्टर बिल्डर विल नाऊ सी यू।"

थोड़ी देर में दुबली–पतली, करीब बीस–बाईस वर्ष की एक युवती उसके पास आई और बोली, "आय एम मिस्टर बिल्डर्स सेक्रेटरी, ही वुड लाइक टु सी यू।"

मीरा को सहसा लगा उसके जिस्म के हर कतरे में हरकत पैदा हो रही थी। पेट में गुड़गुड़ी, दिल की धड़कन तेज। उसने एक लंबी साँस ली और लड़की के पीछे चल दी। इस दफ्तर में सब उसे मिस्टर बिल्डर बुलाते हैं। खासा रोब रखा हुआ है बैन ने। पर वह उसे कभी भी मिस्टर बिल्डर नहीं बुला सकती, चाहे अब वह उसका मैनेजर हो। पहले से जो एक संबंध बना हुआ है – एक समान स्तर के परिचित का।

बैन के कमरे की दीवार करीब आठ फुट ऊँची थी पर आधी दीवार ट्रांस्पेरेंट प्लास्टिक की थी जिससे बेन अपने मातहतों – सब–ऑर्डिनेट्स पर नजर रख सकता था और कुछ हद तक प्राइवेसी भी थी। कमरे के पास पहुँचकर उस लड़की ने मीरा को रुकने को कहा। वह अंदर गई, बेन से पूछा, फिर बाहर आकर उसे अंदर जाने को कहा। मीरा ने अब तक अपनी धुकधुकी को काफी हद तक अधिकार में ले लिया था और काफी संयमित स्थिरचित होकर वह बैन के कमरे में गई। बैन की असिस्टेंट मैनेजर भी वहीं बैठी थी। वे दोनों कुछ बात कर रहे थे। मीरा दरवाज़े पर ही खड़ी रही। कुछ पलों बाद बैन ने उसकी ओर नजर उठाई। उस नजर में उसे एक ओढ़ा हुआ अधिकारभाव और गंभीरता दीखी। बिना मुस्कराहट के साथ अभिवादन किए एक सधी–सी आवाज में बेन ने कहा, "सो इट इज यू...आई कुड नॉट कनैक्ट द नेम विद द फेस।"

मीरा का मन एकदम बुझ गया। बेन आज उसका मैनेजर बन गया है तो नाम तक भूल गया पर उसे कुछ बोलना चाहिए, यह सोचकर बोली, "कोई बात नहीं...भारतीय नाम याद रखना मुश्किल है।"

बैन पल भर रुका रहा कि मीरा कुछ और कहेगी...पर मीरा किसी भी भूत की घटना का वास्ता देकर अपने आपको हीन नहीं करना चाहती थी। वह चुप ही रही तब बैन एकदम बॉस वाला रुख अपनाकर काम की बात करने लगा जिसका घूम–फिर कर अर्थ यह निकलता था कि न तो वे मीरा के काम और स्वभाव को जानते हैं न मीरा उनके। रे ने उसे इतना ही बताया है कि मीरा एनालिस्ट थी और पैरोल में एनालिसिस का ज्यादा काम नहीं है। वहाँ तो चेक बनाए जाते हैं जो सीधे–से क्लैरिकल काम है। एक ही काम उसके लिए जो ठीक–ठाक पड़ सकता है वह है 'मैनेजीरियल रिकन्सीलिएशन' का यानी कि रिटायर होने वाले मैनेजरों के पीछे के कुछ इन्क्रीमेंट वगैरह दिए नहीं गए थे, कुछ नए रूल बने हैं, उनके साथ मिलान करके पैसे देने हैं। फिलहाल कुछ महीने मीरा यही करेगी। अगर काम पसंद आया तो उसे रिकन्सीलिएशन यूनिट का सुपरवाइजर बना दिया जाएगा।

मीरा सिर्फ़ सुन रही थी जैसे कोर्ट में सजा का फ़ैसला सुनाया जा रहा हो। इस वक्त उसे नौकरी चाहिए थी। कोई अपील नहीं चल सकती थी – बैगर्स आर नॉट चूजर्स, उसने मन ही मन खुद को तसल्ली दी। फिर कहा बैन से,
"सिंस आई हैव नो चॉयस, आई विल डू वाटएवर इज असाइंड टू मी।" और मीरा उठ खड़ी हुई थी। मन में एक घोर वितृष्णा का भाव उठा– लोग इस तरह बदल क्यों जाते हैं? एक साथ पार्टियों में, मीटिंगों में गपबाजी करके अब दोस्ती की मुस्कान तक नहीं...

लौटकर विक्षुब्ध और रुँधे हुए मन से वह अपने डेस्क पर आकर बैठ गई। अपने आप को लेकर बहुत ग्लानि हो रही थी...इतना अपमान...इतनी चोट, सिर्फ़ इसलिए कि वह लौट आई है। क्या इतना ग़लत होता है अपनी हक की दी हुई चीज का वापस माँगना...सोचते–सोचते उसका दिमाग़ उसे कहीं का कहीं ले गया जब राम अयोध्या वापस लौटे थे तो दीपावली मनाई गई थी पर क्या सच में सभी खुश थे? भरत अपना राज्य खोकर भी? किसी ने भरत के अंतर की बात तो की नहीं पर यह बड़ी फ़िजूल बात सोच रही है...न वह राम है, न ही किसी का कुछ राज लुट रहा है। न ही यहाँ भारतीय आदर्शों का संदर्भ है। फिर राम तो बहुत कुछ विजित करके लौट रहे थे...उसने इन वर्षों में क्या पा लिया? अगर एम .बी .ए .वगैरह की होती तो कुछ रोब भी पड़ता पर फिर वह पुरानी जगह लौटती ही क्यों? कुछ नए मार्ग ही खुले होते पर नए मार्ग खोज कर भी व्यक्ति लौटता है तो भी तो मन टूट सकता है। बुद्ध जब लौटे थे तो नंद ने भी अपमानित किया था उन्हें पर बुद्ध तब रुके नहीं थे।

नंद ही पछताता हुआ उनके पीछे–पीछे गया था और शायद अपमान और शिकायतों से बचने के लिए ही कृष्ण कभी लौटे ही नहीं वृंदावन...सिर्फ़ आगे ही देखा, पीछे मुड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी। पर क्या सच में ऐसा हो पाता है हमारी जिंदगी में। पीछे का सब कुछ मिट जाए, उसकी याद...उसकी चाह...उसकी हूक – कुछ भी न रहे और मीरा के भीतर अपनी पहचानी दुनिया में लौट जाने की इतनी जबरदस्त इच्छा जगी कि उसकी आँखों में आँसू भर आए। इतना कुछ खोकर इस नए देश में जिंदगी की शुरुआत किसलिए? लेकिन जिस मिट्टी से गढ़े गए, उसी मिट्टी पर जिंदगी गुजार कर उसी में मिल जाना क्या जिंदगी की पूरी संभावनाओं को कहीं कुंद कर देना नहीं है? क्या तब व्यक्ति जिं.दगी को पूरे विस्तार और आयामों के साथ जी पाता है? शायद नहीं। इसीलिए कृष्ण की जिंदगी में एक पूरापन है कि वे एक जगह रुके नहीं...मथुरा, द्वारका...बस आगे बढ़ते रहे।

राम में एकाग्रता है। उन्होंने जीवन के नियमित बहाव को बनाए रखने वाली मर्यादा को चुना...इसी से अयोध्या लौट आए। राम के प्रवास के कुछ मधुर क्षण भी रहे होंगे लेकिन ज्यादातर कष्ट ही झेला और अंततः उन्हें सुख मिला था लौटकर परिजनों के बीच। पर सच में वह सुख राम का ही था या कि अयोध्यावासियों का...राम को तो लौटने का मूल्य चुकाना पड़ा था और वह राम ने सीता की बलि देकर चुकाया था। हर लौटने का मूल्य शायद चुकाना ही पड़ता है। पांडवों के भी लौटने का मूल्य महाभारत था– सर्वसंहारक महाभारत। कृष्ण लौटे ही नहीं, सैलानी की तरह घूमते रहे...वृंदावनवालों की सोच में कृष्ण प्रवासी बन गए थे पर कृष्ण टिके कहाँ नाते जोड़े... तोड़े... फिर वही अकेले के अकेले, दुनिया छोड़ी तो निपट अकेले थे कृष्ण।

उस फ्रेंच दार्शनिक देकार्त ने ठीक ही कहा है न – "जब कोई अपने देश से बहुत अरसे तक बाहर रहता है तो अपने ही देश में विदेशी बन जाता है।" हर प्रवासी अपने ही देश में तो मिसफिट हो जाता है – न इधर का, न उधर का। फिर भी लौट जाने की कभी न मिटने वाली चाह अकेला हो जाना कितना भयंकर होता है। कृष्ण अगर वृंदावन लौटे होते तो क्या ऐसी ही अकेली उदास मौत होती लेकिन तब शायद कुछ और मूल्य चुकाना पड़ता। दोनों ही स्थितियों में खोना और पाना साथ–साथ है, तब... तब क्या बात सिर्फ़ चुनाव की है? पर क्या चुनाव का चुनाव इंसान के हाथ में है? कुछ परिस्थितियाँ, कुछ अंदरूनी मजबूरियाँ, कुछ बाहरी ताकतों के खेल...कुछ अगर लौट भी जाते तो क्या राधा इंतजार में ही बैठी होती? परिवार–समाज ने क्या उसे किसी और पुरुष के हवाले न कर दिया होता? तब क्या फिर से उन गोपियों के साथ अलमस्त क्रीड़ाएँ शुरू हो सकती थीं?

हर लौटने का ऊपरी चेहरा असली चेहरे से फ़र्क होता है। ऊपरी चेहरा होता है मिठाइयों की मिठास से रसी–बसी और दीपों की रोशनियों से झिलमिलाती दीपावली और असली चेहरा होता है महाभारत या किसी सीता का बलिदान या किसी कालिदास की मल्लिका के प्रतीक्षा में थके निरीह और उदास जीवन का कौड़ियों के मोल हुआ समझौता।

उसके भारत लौटने पर भी तो ममी–पापा ने दीवाली मना डाली थी। वह पहुँची भी दीपावली के ठीक दो दिन पहले थी। माँ ने दुनिया भर के मित्रों–रिश्तेदारों में ढिंढ़ोरा पीटा हुआ था कि मीरा आई है। कभी किसी के यहाँ जा रहे हैं या कोई घर पर आ रहा है मिलने...बस यही लगा रहता है और साथ–साथ चलते रहते थे चाय के दौर...गुलाबजामुन और रसगुल्लों के कसोरे, बर्फ़ी, तिलबुग्गे और गजक से सजी प्लेटें। नवंबर की गुनगुनी धूप में ममी बाहर लॉन में कुर्सी और चारपाई निकलवा देतीं। बारह बजे तक ममी का कॉलेज खत्म हो जाता था। दोपहरें धूप सेंकते हुए दोस्तों–रिश्तदारों के साथ गप्पों में ही गुजरतीं।

लेकिन उसके बाद भीतर के कमरे खूब ठंडे, अँधेरे और सूने–से लगते। सच में कहीं बहुत सूनापन भर गया था उन दीवारों में...पापा की आँखों के नीचे गहरे काले गढ्ढे उभर आए थे। ममी–पापा की आपसी बातचीत और भी कम हो गई थी। दोनों ने एक–दूसरे की हस्ती से खुद को बेजार कर लिया था। दोनों अलग–अलग कमरों में सोते थे। पापा को दिल की तकलीफ़ थी, वे नीचे ही सोते। ममी का कमरा ऊपर था। मीरा माँ के ही कमरे में सोती। जब मीरा आई ही थी तो पापा ने उसे गले लगाते कहा था – "तेरे बिना यह घर खत्म हो गया है।" मीरा ने पापा की आँखों का गीलापन और उनके हाथों की कंपकंपाहट को एक साथ महसूस किया था। शाम को ही पापा घर पर आते थे जबकि मीरा किसी नृत्य परफारमेंस या किसी दूसरे प्रयोग के लिए सहेलियों के साथ घर से निकलने वाली होती। एक दिन पापा बोल ही पड़े थे, "थोड़ी देर मेरे पास भी बैठ जाया कर, बेटे पता नहीं अगली बार तू आएगी तो रहूँ न रहूँ।"
"पापा, प्लीज...ऐसी बात मत कहा कीजिए।" मीरा के भीतर छटपटाहट–सी हुई थी। इतनी दूर रहकर वह उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकती।

पापा रात को अकसर क्लब और पार्टियों के बाद देर से लौटते। तब पापा के मुँह से शराब की सख्त गंध आ रही होती। अकसर रात को पापा के घर में आने की आवाज से वह जग जाती, फिर कुछ और आवाजें आतीं और मीरा हड़बड़ाकर नीचे पहुँच जाती। नीचे पापा दीवार का सहारा लिए खड़े होते और जोर–जोर से मुँह से हवा निकाल रहे होते। पहली बार पापा को ऐसी हालत में देख बहुत डर गई थी मीरा। पापा ने कहा था, "कुछ नहीं, जरा गैस की तक़लीफ़ है। इस तरह मुँह से निकालकर कुछ राहत मिलती है।"
"पापा, डॉक्टर को बुला दूँ?"
"नहीं, अभी ठीक हो जाऊँगा...खाना कुछ ज्यादा खाया गया था।"

पापा जब तक ठीक नहीं महसूस करते, मीरा वहीं खड़ी रहती। फिर पापा कपड़े बदलने बाथरूम में चले जाते और मीरा डरी–सहमी अँधेरे में बढ़ती किसी भयंकर दुर्देव की परछाईं को देखती बिस्तर में आकर गुठली बन पड़ी रहती।
क्या उसे लौट नहीं आना चाहिए? ममी–पापा के पास...वे कुछ कहेंगे नहीं लेकिन मीरा की इस घर में बेहद जरूरत है। पर कितना अनहोना–सा लगता है विजय के बग़ैर यहाँ आकर टिक जाना। सबसे पहले तो खुद उसके ममी–पापा ही नहीं मानेंगे। शादी के बाद भला कोई सोच सकता है इस तरह लौट आना, किस तरह बँट गई है जिंदगी यहाँ और वहाँ के बीच।

कुछ दिनों के लिए मीरा मद्रास चली गई थी नृत्योत्सव में भाग लेने। लौटकर दिल्ली आई तो हफ़्ते भर बाद विजय भी आ गया था तो हफ़्ते की छुट्टी लेकर। मीरा तब ससुराल चली आई थी।

माँ के पास उतनी एहतियात में पली मीरा खास थी – एक विशिष्ट व्यक्ति थी पर ससुराल में पहुँचकर वह आम हो जाती थी और आम आदमी नहीं बल्कि आम औरत क्योंकि आम औरत की स्थिति आम आदमी से बदतर होती है। मीरा का व्यक्तिगत दर्शन, उसके स्वतंत्र निजी विचार कॉमनसेंस और नारियोचित व्यवहार की तुला पर तोले जाते। यों मीरा वहाँ सिर्फ़ काम की बात बोलती थी जिसके लिए उसे दो तरह की टिप्पणियाँ सुनने को मिलतीं, सास के शब्दों में – "बहू बहुत सीधी और अच्छी है, कभी आगे बोलती नहीं।" या बड़ी ननद के शब्दों में – "घमंडी है, खूब समझती है खुद को... हमसे बात करके राजी नहीं...पीएच ड़ी॰ कर ली है न, किसी को घास नहीं डालती।"

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