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                   इतने 
                    कम समय में कोहनी, घुटने, यहाँ वहाँ...
                    हर जगह नसें फूलने लगी थी और गाँठ 
                    पड़ने लगी थी। उँगलियों 
                    के पोर सुन्न पडने लगे थे। कान का बाहरी हिस्सा फूल कर हाथी के 
                    कान जैसा हो गया था। पद्मावती का रंग तो वैसे ही गोरा था पर इस 
                    वक्त उस पर एक विशिष्ट चमक आ गई थी।
                    'स्किन बायोप्सी' टेस्ट की रिपोर्ट आज आनेवाली थी। शाम 
                    तीन बजे चर्म-रोग विशेषज्ञ डॉ टराजन जी से मिलना होगा। बेकार 
                    बैठे-बैठे जब चिढ़ होने लगी तो पद्मावती डॉक्टर के पास चल 
                    पड़ी। ऊपरी मंज़िल से एक सफ़ेद 
                    मारुति कार जिसका स्टीरियो ऊँची 
                    आवाज़ में बज रहा था। कबूतर समान 
                    फिसलती हुई कार के पास आ कर रुक गई। 
                    इस संकरी गली में गाड़ियों का आना-जाना लगा रहता हैं। "अरे! यह 
                    तो मालती की गाड़ी हैं।" "हूँ... बिलकुल उसी की हैं। गाड़ी से 
                    मालती के साथ ही महिला संघ की समस्त नारियाँ 
                    भी उतरी। शायद महिला की बैठक के लिए 
                    मुझे न्योता देने आई? उनसे मिले अरसा 
                    गुजर गया?
 "मालती..." उत्सुकता भरी आवाज़ से 
                    पद्मावती ने पुकारा।
 "मालती..." सिर उठा कर उपर देखा।
 "घर आओ न, बात करेंगे।" "हूँ...हूँ...आऊँगी।" 
                    आवाज़ में नफ़रत 
                    की झलक थी।
 "मामी, ठीक तो हो?" कोरस के रूप में 
                    आवाज़ उभरी। कई अर्थों का प्रतिरूप 
                    आवाज़...किवाड़ खोलकर इंतज़ार 
                    करना व्यर्थ गया। मक्खी-मच्छर भी नहीं फटका। ये लोग पहले झुंड 
                    में आते थे।
 पद्मावती की उँगलियाँ 
                    पहले बहुत पतली थी। फूल के समान कोमल और नरम, हाथ रुई 
                    के समान थे, अब तो मुड़ने लगी थी, केवल 
                    उँगलियाँ ही 
                    नहीं वरन उसकी ज़िन्दगी भी। पद्मावती 
                    सबसे प्यार से मिलती, अपनेपन से बातें 
                    करती और आत्मीयता से पेश आती। मैं माँ 
                    हूँ, धरती के सभी लोग मेरे बच्चे हैं। 
                    उनका व्यवहार सबके साथ इसी तरह का होता था।  अरी कन्नम्मा...यह 
                    मेरी बेटी हैं? यहाँ आ बेटी...
                    उसके गाल सहलाती और नज़र उतारती। बच्चों की मदद करते 
                    समय उन्हें कतार में बिठाकर प्यार से 
                    सहलाकर हाथ थामे पढ़ाती।"ये बच्ची बहुत दुबली हैं, साग खिलाओ।"
 "ये लड़की जल्दी ही बड़ी 
                    हो जाएगी।"
 कितने लोगों का रोग उन्होंने अपने स्पर्श से दूर किया होगा।
 "अरे सासू माँ, आप सब को छूती हैं,
                    अछूत हो जाएगी।" 
                    रेवती उन्हें छेड़ती।
 मानव-मानव के बीच कैसा छूत! हम जैसे ही तो 
                    हैं वे लोग भी... वही खून, माँसपेशियाँ, 
                    हड्डियाँ, सांस या भोजन, 
                    हँसते हुए वह जवाब देती।अब वे सभी बातें हास्यास्पद हो गई हैं। 
                    सड़क पर चलो तो अन्य लोग कुछ हटकर ही चलते हैं। बस में बैठो तो 
                    कोई करीब नहीं बैठता, अब ज़िन्दगी 
                    वास्तव में बिना लोगों के ही हो गई 
                    हैं।
 विलग रहना ही ज़िन्दगी बन जाएगी 
                    क्या?"
 "अपने से विलग।"
 "मित्रों से विलग।"
 "देश से विलग।"
 चुस्त जिन्दगी अब पराई-सी 
                    लगती हैं? क्या इसे ही ज़िन्दगी से 
                    उखड़ना कहते हैं? क्या यही नरक हैं? अचानक ही आजतक मन को छू 
                    सकने वाला अकेलापन का दर्द हृदय को खरोंचने लगा - -
 ज़िन्दगी से कोई 
                    लगाव, कोई रुचि नहीं रह गई 
                    थी। लगता था जैसे निष्प्राण हो गई हो।कोई नहीं था! बैठकर बातें करनेवाला, 
                    मिलकर हँसनेवाला,  
                    हालचाल पूछनेवाला, कोई नहीं...कोई भी 
                    नहीं।
 अनु को छुने का मन हो रहा था। गोद में 
                    लिटाकर प्यार करने का मन हो रहा था। 
                    पूरे घर में घूमने का मन हो रहा था। 
                    सारे कमरों को छान मारने की इच्छा हो रही थी। 
                    खूब स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ बनाने का मन चाह रहा था। स्वछंद 
                    घूमने-फिरने का मन हो रहा था। स्वतंत्रता चाहिए,
                     इच्छानुसार जीने की स्वतंत्रता... 
                    हूँ... पर यह तो असंभव हैं।
 सीढियाँ उतरकर नीचे 
                    आई। बाहर कोने में खड़ी रही। साढ़े चार 
                    बज रहे थे, अनु के आने का समय हो गया 
                    था। आँखों में 
                    भरकर ले जाना चाहती थी।  अनु बड़ी हो 
                    कर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगी, तो क्या ये लोग उसे सुचित 
                    करेंगे? दादी को पोती के लिए कुछ देने 
                    देंगे? फूल की तरह विहँसती पोती को 
                    देखने देंगे? उसका माथा चूमने देंगे? नज़र उतारने देंगे?
                     "दादी..."कायनेटिक होंडा घर के सामने रुका।
 "क्यों दादी, धूप में क्यों खड़ी हो?"
 छोटी बच्ची के अबोध मन में उसके लिए 
                    कितनी चिन्ता... "प्यारी मुन्नी, 
                    तुझे देखने के लिए ही तो खड़ी हूँ।" 
                    कहती हुई पास जा नज़र उतारने की इच्छा हुई।
 "मत छुइये इसे।" तूफ़ानी वेग से रेवती 
                    ने अनु को अपनी ओर खींच लिया।
 "चलो अनु..." शेरनी की तरह रेवती गरजी।
 "मैं होम में जा रही हूँ।""सच, सच में!" रेवती ने संतुष्ट नज़र उसकी ओर फेरी।
 "उफ्... बला टली...
                     अब जा कर चैन मिलेगा।" "अनु दादी को टाटा करो।"
 "दादी कहीं बाहर जा रही हो क्या?"
 "हाँ बेटी।"
 "कब लौटोगी?"
 "अब दादी नहीं आएगी।" रेवती की आवाज़ 
                    में खुशी हिलोरें ले रही थी। सुनते ही अनु रोने लगी।
 "हूँ... दादी चलिए 
                    मुझे...तुम नहीं...मैं 
                    दादी के पास जाऊँगी।"
 हाथ छुड़ाकर जब अनु भागने को उद्धत हुई तो 
                    उसने उसे कसकर पकड़ लिया। "जल्दी से जाती क्यों नहीं? तमाशा 
                    करना हैं क्या? बच्ची को रुलाना है क्या? मरने तक आपकी यह 
                    हरकतें चैन नहीं लेने देंगी!"अब और थोड़ी भी देर रहना उनके लिए 
                    मुश्किल हो गया।
 ''हे भगवान! मेरी आवाज़ सुन रहे हो...''
 कमरे से बाहर निकल बिल्ली की तरह पंजों पर चलने पर भी रेवती को 
                    शक हो जाता था।
 "क्या आप सोफ़े पर बैठी थी। बदबू आ रही हैं।"
 "रसोईघर में गई थीं... 
                    गंध आ रही हैं।"
 अद्भुत ज़ंजीरें... 
                    कभी न तोड़ सकनेवाली ज़ंजीरें! " हे भगवान! अब सहा नहीं जाता...मुझे शीघ्र बुला लो।" भगवान की मूर्ति के सामने यह करुण 
                    क्रंदन करती, अकेलेपन की नारकीय वेदना,  
                    ताली बजाकर मज़ाक बनाती। प्रेत 
                    की जिन्दगी भी इससे बेहतर होगी।
 सड़क उसकी हँसी 
                    उड़ाने लगी। घर लौटने में चार बज गए। 'स्किन 
                    बायोप्सी' टेस्ट पोजिटिव था। पद्मावती निष्प्राण शरीर लिए 
                    घिसटती हुई घर आई।ऐसी 
                    सज़ा क्यों? पुत्र, बहू, पोती, 
                    समाजसेवा, जैसे छोटे से दायरे में निश्चिंत जी रही मुझे, 
                    रिश्तों की समाधि क्यों मिली? अब मैं इस घर
                    में नहीं रह सकती। घर छोड़ने का समय आ गया हैं। परिवार 
                    से अलग होना ही पड़ेगा। "किसी को मत छूइएगा... 
                    होम में जाना ही बेहतर होगा। इस चिट्ठी को रख लीजिये। आज ही 
                    भर्ती हो जाइए।" डॉक्टर ने भी कह दिया।अब चलना? चलना ही होगा। मानवीय गंध... 
                    रिश्तों की गंध... पोती की गंध से दूर... 
                    यह भी तो एक सुरक्षित प्राणमय कब्र ही हैं? प्राण निकलने के 
                    बाद ज़मीन के नीचे कब...
 मन विचारों के सागर में गोते लगाने लगा। बुरे-बुरे ख्याल आने 
                    लगे।
 दो साडियाँ और दो 
                    ब्लाउज थैले में ठूँस 
                    लिया।। अनु की फोटो मिल जाती तो मन निश्चिंत हो जाता। 
                    फोटो तो छूने से अशुद्ध नहीं होगा न...बच्ची 
                    की फ्रॉक मिल जाती तो अच्छा रहता।मौत के समय पोती की सुगंध मिल जाती तो उसके साथ निश्चिंत हो 
                    मौत को गले लगा लेती।
 जाने से पहले काश एक बार अनु को देख पाती! छू पाती? चूम सकती,
                    जन्म सार्थक हो जाता।
 "मैं चलती हूँ, बच्ची का ख्याल रखना।" 
                    पद्मावती बिना पीछे मुड़े तेज़ी से आगे 
                    बढ़ गई।
 "दादी... दा...दी, 
                    दा...दी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। 
                    मुझे भी ले चलो दादी।" अनु की चीख बढ़ती गई।
 ''छी, नादान,
                    चुप रह... दादी के पास जाएगी?''
 "हूँ...!"
 "तुम चुप रहो, मुझे छोड़ो, 
                    तुम गंदी हो... मुझे दादी ही चाहिए।"
 माँ के हाथ से अपना हाथ ज़बरदस्ती 
                    खींचकर छुड़ा लिया अनु ने। और दौड़ती हुई सड़क पर पहुँच 
                    गई। "दादी मैं भी आ रही हूँ।"
 रेवती चिल्लाई "अनु रुक 
                    जा गाड़ी आ रही हैं।"हाथ में पकड़े थैले को झटक कर स्कूटर को स्टैंड पर खड़ा कर जब 
                    तक रेवती सड़क पर पहुँचती तब तक अनु 
                    सड़क पर दौड़ने लगी थी। उस तरफ़ से तेज़ 
                    रफ्तार से कार आ रही थी...
 "दादी...अनु...दादी।"
 क़रीब आते अनु के करुणामय 
                    क्रंदन को सुन कर पद्मावती मुड़ी। अनु तूफ़ानी 
                    वेग से आती कार को बिना देखें दौड़ती चली आ रही थी। स्थिति की 
                    गंभीरता समझ, झपटकर बच्ची को गेंद की तरह उठा कर उसने उछाल 
                    दिया, कार पद्मावती को रौंदती हुई तेज रफ्तार से गुज़र 
                    गई। "अनु...अ...नु।" 
                    आसपास की हवा में पद्मावती की धीमी आवाज़ 
                    घुल गई। "दादी।" लंगड़ाते हुए अनु वहाँ पहुँची। 
                    खून से लथपथ दादी से लिपट, "मैं भी 
                    तुम्हारे साथ चलूँगी दादी, 
                    मुझे भी ले चलो, दादी। दादी का चेहरा 
                    अपनी ओर मोड़कर सुबकने लगी।
 कितनी तड़प और छटपटाहट थी दादी के मन में इस पोती को छूने की। 
                    उस स्पर्श की गरमाहट का अनुभव कर, निश्चिंत मुस्कान बिखर गई 
                    थी होठों पर।
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