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लेकिन आज इतने सालों के बाद अपनी दोस्ती के बावजूद और कभी अपने सहपाठी रहे इस आदमी के बारे में कोई ख़ास लगाव महसूस नही कर रहा था।
खैर, मोहित ने फोन का रिसीवर पकड़ा।

'हैलो...'
'कौन मोहित! मुझे पहचान रहे हो भाई, मैं वहीं तुम्हारा जय... जयदेव बोस। बाली गंज स्कूल का सहपाठी।'
'भई अब आवाज से तो पहचान नहीं रहा हाँ चेहरा ज़रूर याद है, बात क्या है?
'तुम तो अब बड़े अफ़सर हो गए हो भई। मेरा नाम तुम्हें अब तक याद रहा, यही बहुत है।'
'अरे यह सब छोड़ो बताओ बात क्या है?'
'बस यों ही थोड़ी ज़रूरत थी। एक बार मिलना चाहता हूँ तुम से।'
'कब?'
'तुम जब कहो। लेकिन थोड़ी जल्दी हो तो अच्छा...'
'तो फिर आज ही मिलो। मैं शाम को छह बजे घर आ जाता हूँ तुम सात बजे आ सकोगे?'
'क्यों नहीं ज़रूर आऊँगा अच्छा तो धन्यवाद। तभी सारी बातें होंगी।'

अभी हाल ही में ख़रीदी गई आसमानी रंग की कार में दफ़्तर जाते हुए मोहित सरकार ने स्कूल में घटी कुछ घटनाओं को याद करने की कोशिश की। हेड-मास्टर गिरींद्र सुर की पैनी नज़र और बेहद गंभीर स्वभाव के बावजूद स्कूली दिन भी सचमुच कैसी-कैसी खुशियों से भरे दिन थे। मोहित खुद भी एक अच्छा विद्यार्थी था। शंकर, मोहित और जयदेव- इन तीनों में ही प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। पहले, दूसरे और तीसरे नंबर पर इन्हीं तीनों का बारी-बारी कब्ज़ा रहता। छठी से ले कर मोहित सरकार और जयदेव बोस एक साथ ही पढ़ते रहते थे। कई बार एक ही बेंच पर बैठ कर पढ़ाई की थी। फुटबॉल में भी दोनों का बराबरी का स्थान था। मोहित राइट इन खिलाड़ी था तो जयदेव राइट आउट। तब मोहित को जान पड़ता कि यह दोस्ती आज की नहीं, युगों की हैं। लेकिन स्कूल छोड़ने के बाद दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए। मोहित के पिता एक रईस आदमी थे, कलकत्ता के नामी वकील। स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद, मोहित का दाखिला एक अच्छे से कॉलेज में हो गया और यहाँ की पढ़ाई समाप्त हो जाने के दो साल बाद ही उस की नियुक्ति एक बड़ी कारोबारी कंपनी के अफ़सर के रूप में हो गई। जयदेव किसी दूसरे शहर में किसी कॉलेज में भर्ती हो गया था। दर असल उसके पिताजी की नौकरी बदली वाली थी। सबसे हैरानी की बात यह थी कि कॉलेज में जाने के बाद मोहित ने जयदेव की कमी को कभी महसूस नहीं किया। उस की जगह कॉलेज के एक दूसरे दोस्त ने ले ली। बाद में यह दोस्त भी बदल गया, जब कॉलेज जीवन भी पूरा हो जाने के बाद मोहित की नौकरी वाली ज़िन्दगी शुरू हो गई। मोहित अपनी दफ़्तरी दुनिया में चार बड़े अफ़सरों में से एक है और उसके सबसे अच्छे दोस्तों में उसका ही एक सहकर्मी है। स्कूल के साथियों में एक प्रज्ञान सेनगुप्त है। लेकिन स्कूल की यादों में प्रज्ञान की कोई जगह नहीं हैं। लेकिन जयदेव- जिस के साथ पिछले तीस सालों से मुलाक़ात तक नहीं हुई हैं... उसकी यादों ने अपनी काफी जगह बना रखी है। मोहित ने उन पुरानी बातों को याद करते हुए इस बात की सच्चाई को बड़ी गहराई से महसूस किया।

मोहित का दफ़्तर सेंट्रल एवेन्यू में हैं। चौरंगी और सुरेन्द्र बॅनर्जी रोड के मोड़ पर पहुँचते ही गाड़ियों की भीड़, बसों के हॉर्न और धुएँ से मोहित सरकार की यादों की दुनिया ढह गई और वह सामने खड़ी दुनिया के सामने था। अपनी कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाते हुए ही वह समझ गया कि वह आज तीन मिनट देर से दफ़्तर पहुँच रहा है।

दफ़्तर का काम निपटा कर, मोहित जब ली रोड स्थित अपने घर पहुँचा तो बाली गंज गवर्नमेंट स्कूल के बारे में उसके मन में रत्ती भर याद नहीं बची थी। यहाँ तक कि वह सुबह टेलीफोन पर हुई बातों के बारे में भी भूल चुका था। उसे इस बात की याद तब आई, जब उसका नौकर विपिन ड्राइंग रूम में आया और उसने उस के हाथों में एक पुर्जा थमाया। यह किसी लेखन-पुस्तिका में से फाड़ा गया पन्ना था... मोड़ा हुआ। इस पर अँग्रेज़ी में लिखा था - 'जयदेव बोस एज़ पर अपाइंटमेंट।'
रेडियो पर बी.बी.सी. से आ रही ख़बरों को सुनना बंद कर मोहित ने विपिन को कहा, 'उसे अन्दर आने को कहो।'

लेकिन उसने दूसरे ही पल यह महसूस किया कि जय इतने दिनों बाद मुझ से मिलने आ रहा है, उस के नाश्ते के लिए कुछ मँगा लेना चाहिए था। दफ़्तर से लौटते हुए पार्क स्ट्रीट से वह बड़े आराम से केक या पेस्ट्री वगैरह कुछ भी ला ही सकता था, लेकिन उसे जय के आने की बात याद ही नहीं रही। पता नहीं, उसकी घरवाली ने इस बारे में कोई इंतज़ाम कर रखा है या नहीं।
'पहचान रहे हो?'
इस सवाल को सुन कर और इसके बोलने वाले की ओर देख कर मोहित सरकार की मनोदशा कुछ ऐसी हो गई कि बैठक वाले कमरे की सीढ़ी पार करने के बाद भी उसने नीचे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया था - जब कि वहाँ कोई सीढ़ी नहीं थी।

कमरे की चौखट पार करने के बाद, जो सज्जन अंदर दाखिल हुए थे, उन्होंने एक ढीली-ढाली सूती पतलून पहन रखी थी। इस के ऊपर एक घटिया छापे वाली सूती क़मीज़। दोनों पर कभी इस्तरी की गई हो, ऐसा नहीं जान पड़ा। कमीज़ की कॉलर से जो सूरत झाँक रही थी, उसे देख कर मोहित अपनी याद में बसे जयदेव से उसका कोई तालमेल नहीं बिठा सका। आने वाले का चेहरा सूखा, गाल पिचके, आँखे धँसी, देह का रंग धूप में तप-तप कर काला पड़ गया था। इस चेहरे पर तीन-चार दिनों की कच्ची-पक्की मूँछें उगी थी। माथे के उपर एक मस्सा और कनपटियों पर बेतरतीब ढंग से फैले ढेर सारे पके हुए बाल।

उस आदमी ने यह सवाल झूठी हँसी के साथ पूछा था- उसकी दाँतों की कतार भी मोहित को दिख पड़ी। पान खा-खा कर सड़ गए ऐसे दाँतों के साथ हँसने वाले को सबसे पहले अपना मुँह हथेली से ढाँप लेना चाहिए।
'काफी बदल गया हूँ न?'
'बैठो।'
मोहित अब तक खड़ा था। सामने वाले सोफ़े पर उस के बैठ जाने के बाद मोहित भी अपनी जगह पर बैठ गया। मोहित के विद्यार्थी जीवन की तस्वीर उस के एलबम में पड़ी है। उस तस्वीर में चौदह साल के मोहित के साथ आज के मोहित को पहचान पाना बहुत मुश्किल नहीं है। तो फिर सामने बैठे जय को पहचान पाना इतना कठिन क्यों हो रहा है? सिर्फ़ तीस सालों में क्या चेहरे में इतना बदलाव आ जाते हैं?
'तुम्हें पहचान पाने में कोई मुश्किल नहीं हो रही है। रास्ते पर भी देख लेता तो पहचान जाता।' भला आदमी आते ही शुरू हो गया था, 'दर असल मुझ पर मुसीबतों का पहाड़-सा टूट पड़ा है। कॉलेज में ही था कि पिता जी गुज़र गए। मैं पढ़ना-लिखना छोड़ कर नौकरी की तलाश में भटकता रहा और बाकी तुम्हें पता है ही। अच्छी किस्मत और सिफ़ारिश न हो तो आज के ज़माने में हम जैसे लोगों के लिए...'
'चाय तो पियोगे?'
'चाय हाँ लेकिन।'
मोहित ने विपिन को बुला कर चाय लाने को कहा। इसके साथ उसे यह सोच कर राहत मिली कि केक या मिठाई न भी हो तो कोई ख़ास बात नहीं। इसके लिए बिस्कुट ही काफ़ी होगा।
'ओह!' उस भले आदमी ने कहा, 'आज दिन भर न जाने कितनी पुरानी बातें याद करता रहा। तुम्हें क्या बताऊँ...'
मोहित का भी कुछ समय ऐसे ही बीता है। लेकिन उसने ऐसा कुछ कहा नहीं।
'एल.सी.एम. और जी.सी.एम. की बातें याद हैं?'
मोहित को इस बारे में पता न था लेकिन प्रसंग आते ही उसे याद आ गया, एल.सी.एम. यानी पी.टी. मास्टर लालचांद मुखर्जी और जी.सी.एम. यानी गणित के टीचर गोपेन्द्र चंद्र मितिर।
'स्कूल में ही पानी की टंकी के पीछे हम दोनों को ज़बरदस्ती आसपास खड़ा कर बॉक्स कैमरे से किसी ने हमारी तस्वीर खींची थी, याद है?'

अपने होठों के कोने पर एक मीठी मुस्कान चिपका कर मोहित ने यह जता दिया कि उसे अच्छी तरह याद है। आश्चर्य, ये सब तो सच्ची बातें हैं और अब भी अगर यह जयदेव न हो तो इतनी बातों के बारे में इसे पता कैसे चला?
'स्कूली जीवन के वे पाँचों साल, मेरे जीवन के सब से अच्छे साल थे।' आने वाले ने बताया और फिर अफ़सोस जताया, 'वैसे दिन अब दोबारा कभी नहीं आएँगे भाई!'
'लेकिन तुम तो लगभग मेरी ही उम्र के हो।' मोहित इस बात को कहे बिना रह नहीं पाया।
'मैं तुम से कोई तीन-चार महीने छोटा ही हूँ।'
'तो फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हुई? तुम तो गंजे हो गए?'
'परेशानी और तनाव के सिवा और क्या वजह होगी?' आगंतुक ने बताया, 'हालाँकि गंजापन तो हमारे परिवार में पहले से ही रहा है। मेरे बाप और दादा दोनों ही गंजे हो गए थे सिर्फ़ पैंतीस साल की उम्र में। मेरे गाल धँस गए हैं- हाड़-तोड़ मेहनत की वजह से और ढंग का खाना कहाँ नसीब होता है? और तुम लोगों की तरह मेज़-कुर्सी पर बैठ कर तो हम लोग काम नहीं करते। पिछले सात साल से एक कारखाने में काम कर रहा हूँ, इसके बाद मेडिकल सेल्समैन के नाते इधर-उधर की भाग-दौड़, बीमे की दलाली, इसकी दलाली, उसकी दलाली। किसी एक काम में ठीक से जुटे रहना अपने नसीब में कहाँ! अपने ही जाल में फँसी मकड़ी की तरह इधर-उधर घूमता रहता हूँ। कहते हैं न देह धरे का दंड। देखना है यह देह भी कहाँ तक साथ देती है। तुम तो मेरी हालत देख ही रहे हो!'

विपिन चाय ले आया था। चाय के साथ संदेश और समोसा भी। गनीमत है, पत्नी ने इस बात का ख़याल रखा था। लेकिन अपने सहपाठी की इस टूटी-फूटी तस्वीर देख कर वह क्या सोच रही होगी...इसका अंदाज़ उसे नहीं हो पाया।
'तुम नहीं लोगे?' आगंतुक ने पूछा।
मोहित ने सिर हिला कर कहा, 'नहीं, अभी-अभी पी है।'
'संदेश तो ले लो।'
'नहीं तुम शुरू तो करो ।'
भले आदमी ने समोसा उठा कर मुँह में रखा और इस का एक टुकड़ा चबाते-चबाते बोला, 'बेटे का इम्तिहान सिर पर है और मेरी परेशानी यह है मोहित भाई कि मैं उसके लिए फीस के रुपए कहाँ से जुटाऊँ? कुछ समझ में नहीं आता।'

अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। मोहित समझ गया। इसके आने के पहले ही उसे समझ लेना चाहिए था कि क्या माजरा है? आर्थिक सहायता और इसके लिए प्रार्थना। आख़िर यह कितनी रकम की मदद माँगेगा? अगर बीस-पच्चीस रुपए दे देने पर भी पिंड छूट सके तो वह खुशकिस्मती ही होगी और अगर यह मदद नहीं दी गई तो यह बला टल पाएगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।

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