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तरन समझती है, बाबू उससे दूर-दूर क्यों रहने लगे हैं, क्यों घर में तनाव रहने लगा है। पहले, बहुत दिन गुस्सा आता था अब वह भी नहीं आता, केवल रूखी-सी रिक्तता मन में भर जाती है। कभी-कभी वह सोचती है कि यदि बाबू को उससे इतनी विरक्ति है, तो क्यों नहीं उससे छुटकारा पा लेते? कई बार बुआ ने ज़ोर डालकर बाबू से पत्र लिखवाए हैं, बातचीत आगे भी बढ़ी है, उसकी फोटो और जन्म-पत्री बाहर भेजी गई है, किंतु हर बार बीच में ही सबकुछ रुक जाता है, क्यों रुक जाता है, आज तक तरन की समझ में नहीं आया है

आज भी तरन जब उस रात की घटना पर सोचती है, तो सारी देह में झुरझुरी-सी दौड़ जाती है

उस रोज आधी रात से कुछ पहले बुआ उसके कमरे में आई थीं। वह जाग रही थी। अँधेरे में बुआ की पदचाप धीरे-धीरे उसके पलंग के पास सरकती सुनाई दी थी। वह साँस रोके लेटी रही थी।
- बुआ, तुम हो?

बुआ का स्वर काँप रहा था - तूने कुछ सुना?
तरन उठकर बैठ गई। आँखें फाड़ते हुए अँधेरे में धुएँ की काली छाया को देखा।
- क्या बात है, बुआ?
- मुझसे अब इस घर में नहीं रहा जाएगा।
- क्या बात है, बुआ?
- कहना अब कुछ बाकी रहा है, तरन? - बुआ का गला रूँध-सा गया।

तरन स्तब्ध आँखों से अँधेरे के उस भाग को देखती रही, जहाँ बुआ खड़ी थीं।
- तुमसे कुछ बात हुई थी? - तरन ने पूछा।
- मैं तो कमरे में ही बैठी रही थीं, वह खुद आए थे। मैं कहती हूँ कि जो कुछ उन्हें कहना है, तुझसे क्यों नहीं कहते? तू अब बच्ची तो नहीं रहीं
नाहक मुझे बीच में क्यों घसीटते है?
- क्या कहते थे, बुआ? - तरन के स्वर में एक अजीब-सा खोखलापन उभर आया।
- उनकी बात मुझे कुछ समझ में नहीं आती। कहते थे, माँ के सामने सबकुछ हो जाता, तो ठीक रहता। फिर देर तक चुपचाप कमरे में घूमते रहे। मैंने मौका देखकर कहा कि ऊँचे खानदान को लेकर आजकल कौन बैठा रहता है? अच्छा लड़का मिले तो सबकुछ है। लेकिन मेरी बात सुनने ही वह एक मिनट भी कमरे में नहीं ठहरे। तेजी से अपने कमरे में गए और फटाक से दरवाज़ा बंद कर लिया। कुछ देर बाद जब बाहर आए, तो एकाएक उन्हें पहचान नहीं सकी।

आँखें सूर्ख हो रही थीं, माथे पर बाल बिखरे थे, तेरी माँ के मरने के बाद मैंने उन्हें कभी इस रूप में नहीं देखा। हाथ में एक पोटली थी, जो उन्होंने मेरे सामने फेंक दी इ़सकी माँ के गहने इसमें रखे हैं, इन्हें लेकर वह जहाँ जाना चाहे, चली जाए। लड़का चला गया, तो मर नहीं गया; यह चली जाएगी, तो भी मुझे कुछ नहीं होगा। मैं तो भौचक्की रह गई, तरन! क्या अपनी लड़की के लिए कोई ऐसे कहता है?

उस रात बुआ का प्रश्न अँधेरे में भटकता रहा था। वह कुछ भी नहीं समझ पाई थी कि बाबू उससे क्या चाहते हैं। उसे अपने से ही डर लगने लगा था। लगा, जैसे बाबू को उस पर संदेह है, मानो वह भी भाई की तरह किसी-न-किसी दिन उन्हें धोखा देकर चली जाएगी। पहले उसने कभी ऐसा नहीं सोचा था किंतु उस रात बाबू के संदेह ने उसके मन को भी अस्थिर कर दिया। क्या सचमुच वह इस घर में रहना चाहती है? उसने बार-बार अपने से पूछा था और उसे लगा था कि शायद बाबू का संदेह सही हो, शायद उसे उस घर से, घर के साँय-साँय करते कमरों से डर लगता है, जिसे आज तक वह छिपाती आई है - क्या यह सच है?

यह कैसा प्रश्न था, सीधा-सादा सहज, किंतु उन हज़ारों प्रश्नों में एक, जिनका शायद कोई उत्तर नहीं होता, तरन यह नहीं जानती थी और तभी वह रात-भर तकिये में मुँह छिपाकर थर-थर काँपती रही थी।

उस रात तरन ने अचानक निश्चय कर लिया कि वह कुछ दिनों के लिए भाई के पास जाकर रहेगी।

दूसरे दिन तरन चाहने पर भी बाबू से अपने जाने की बात कहने का साहस न कर पाई। कई बार उनके कमरे तक गई, किंतु बिना कुछ कहे-सुने उल्टे पाँव वापस लौट आई। उसे बाबू से एक विचित्र-सा भय लगता था, जिसे मिटाना कभी संभव नहीं हो पाता। उसने बुआ से कहा कि वह बाबू से जाकर कह दे।

बुआ विस्मित-सी उसकी ओर देखती रही थीं। किंतु बाद में जब उन्होंने उस पर विचार किया, तो लगा कि शायद तरन का चले जाना ही बेहतर है।

उस शाम बाबू ने उसे अपने कमरे में बुलाया था। दरवाज़े की देहरी पर तरन के पाँव सहसा ठिठक गए थे, साँस घुटने-सी लगी थी।
- आ जाओ, इधर बैठो। - बाबू का भारी, धीमा-सा स्वर सुनाई दिया।
दीवार के संग तकिये का सहारा लेकर बाबू बैठे थे, चुप, निश्चल। एक बार विचार आया कि जैसे वह दबे पाँव आई है, वैसे ही वापस लौट जाए, किंतु उसके पाँव फ़र्श से चिपके रहे!
- सुना है, तुम कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहती हो।

तरन चुपचाप बैठी रही। उसे लगा, मानो बाबू भाई का नाम उसके सामने नहीं लेना चाहते, उसने कभी बाबू के मुँह से भाई की चर्चा नहीं सुनी। जब कभी उनकी चिठ्ठी आती है, बाबू बिना पढ़े उसे उनके पास भिजवा देते हैं।
- यहाँ मन नहीं लगता, तरन? - बाबू के स्वर में एक निरीह, अबोध-सी जिज्ञासा थी, मानो उन्होंने पहली बार इस संबंध में सोचा हो।

तरन की आँखें एक पल के लिए ऊपर उठी। उसके भीतर एक अजीब-सी उथल-पुथल होने लगी। शायद बाबू उसे रोक लेंगे, शायद उसके बिना उन्हें भी अकेलापन महसूस होता होगा। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। यदि एक बार भी बाबू उसे रुकने के लिए कहेंगे तो वह एकदम अपना इरादा बदल देगी।
फिर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

किंतु बाबू चुप बैठे रहे। तरन की आँखें नीचे झुक गईं। कमरे की नीरवता फिर बोझिल-सी बन आई।
- अच्छा है, जाना चाहती हो, तो चली जाओ। मेरी ओर से चिंता मत करना।
- बाबू का स्वर बिल्कुल स्थिर और भावहीन था।
कमरे से बाहर जाते हुए तरन के पाँव एक बार देहरी पर ठिठके थे, सोचा था शायद बाबू कुछ कहेंगे, किंतु कमरे में सन्नाटा घिरा रहा।

शायद कुछ भी कहना शेष नहीं रहा था। उस दुपहर तरन अपने कमरे में ही लेटी रही। इतने दिनों से अगर कोई एक इच्छा होती है, तो यही कि जब इच्छा करें, तभी, उसी क्षण नींद आ जाए। कभी-कभी तो लगता है कि इतने बरसों में जागने के, आँखें खोलकर चारों ओर देखने के जो क्षण आए हैं, वे भी जैसे गलत हों, अवास्तविक हों; लगता है, जैसे वे भी पूरी तरह से उसके पास न आए हों, नींद की ड्योढ़ी पर खड़े-खड़े वापस लौट गए हो।

शाम को तरन अपने कमरे से बाहर आई। दुपहर-भर लेटे रहने के कारण शरीर भारी लग रहा था। बाहर दिन-भर रेत उड़ी थी, आकाश पर पीली, बुझी-बुझी-सी धूप चमक रही थी। तरन ने देखा, बाबू अभी बरामदे में नहीं आए हैं। उनके कमरे का दरवाज़ा अब भी बंद पड़ा था।

बुआ अपनी कोठरी में खाँस रही थीं और मन-ही-मन कुछ बुड़बुड़ाती जाती थीं। जब कभी हवा का झोंका आता था, उस सूने मकान के दरवाज़े खटखटा उठते थे तरन ने जल्दी-जल्दी चप्पल पहनी। भीतर बुआ से कह आई कि वह कुछ देर टहलने के लिए बाहर जा रही है। न जाने बुआ ने उसकी बात सुनी या नहीं, सीढ़ियाँ उतरे हुए भी तरन को उनकी खाँसी का खँखाराता स्वर सुनाई दे जाता था।

दूर-दूर तक रेतीली ज़मीन फैली थीं। अस्त होने से पहले सूरज की पीली किरणें कच्चे सोने की-सी रेत पर बिखरी गई थीं। नयी सड़क के दोनों ओर रोड़ी-पत्थरों के ढेर छोटे-छोटे पिरामिड-जैसे खड़े थे। उन्हीं के संग-संग चलती हुई तरन पानी के टैंक तक पहुँच गई थी।

सबकुछ कितना दूर और फिर भी कितना अपना था, तरन ने सोचा। कितने वर्षों से वह इन्हें देखती आई है! लड़ाई के दिनों में जब बैरक बनाए जा रहे थे, और मिलिट्री ट्रकें गर्द उड़ाती हुई जब शहर से आती थीं, तब भी वह यहाँ थी, आज बरसों बाद जब भीमकाय चट्टानों को तोड़कर नयी सड़क खोदी जा रही है, बैरकों को ढाया जा रहा है, यह भी वह सुबह-शाम कमरे की खिड़की से देखती आई है तरन को यह सोचकर हल्की-सी खुशी हुई कि अब कुछ दिनों के लिए वह इनसे छुटकारा पा लेगी। उसे लगा, मानो उसके भीतर का तनाव बह गया है, और जब उसने दूर से कच्ची सड़क पर इंजीनियर बाबू को आते देखा, तो वह बिना मुस्कुराए न रह सकी।

इंजीनियर बाबू टैंक के पास आकर रुक गए। उनके सिर पर सोला हैट धूप में चमक रहा था, कमीज़ की बाँहें ऊपर चढ़ी थीं, जिनके नीचे नंगी बाँहों के बाल धूल-रेत में सने थे। गले के बटन खुले थे और गले के निचले हिस्से पर पसीने की दो-चार बूँदे दिखाई दे जाती थीं। उनके हाथ में एक लंबा-चौड़ा-सा बोर्ड था। ऐनक के पीछे आँखें वैसी ही चंचल, बेचैन, किंतु निहायत गंभीर दिखाई देती थीं।

-आप यहाँ कैसे खड़ी हैं?
- यों ही जरा टहलने की सोच रही थी। घर में तो उमस के मारे बैठा नहीं जाता। आपको मैंने दूर से ही देख लिया था, इंजीनियर बाबू, हालाँकि सोला हैट में आपको पहचानना मुश्किल था।

इंजीनियर बाबू हँस पड़े। तरन को याद आया कि जब वह शुरू-शुरू में दरवाज़े के पीछे खड़ी होकर बरामदे में इंजीनियर बाबू की हँसी सुनती थी, तो उसे लगता था कि वह उम्र में उससे काफ़ी छोटे हैं।

- इधर शहर जाना हुआ, इंजीनियर बाबू?
- कैसे होगा? - इंजीनियर बाबू अपनी परेशानियों को कुछ इस ढंग से कहते हैं कि तरन को लगता है, माने उन्हें उनसे काफ़ी सुख अनुभव हो रहा हो।
-कैसे होगा? तीन दिन से कोई लारी नहीं गई है। उतनी दूर न मैं जा सकता हूँ, न बेचारा मोंटू।
- लारी नहीं गई है? - तरन आश्चर्य से उन्हें देखने लगी - फिर खाने-पीने का सामान कौन लाता होगा? यहाँ तो कोई अच्छा होटल भी नहीं है।
- आप मोंटू को नहीं जानतीं, - इंजीनियर बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े - शहर जाने में हम दोनों को ही आलस लगता है, इसलिए उसने यहाँ एक अच्छा-सा ढाबा खोज निकाला है, वहीं से अपने और मेरे लिए दोनों जून खाना ले जाता है।

तरन ने इंजीनियर बाबू को देखा। बड़ा विचित्र-सा लगा। कैसे है यह इंजीनियर बाबू? अपने शहर, अपने घर को छोड़कर इतनी दूर चले आए हैं। नौकर के अलावा कोई भी तो नहीं है इस उजाड़ प्रांत में, जिसे वह अपना कह सकें।
- चलिए, आप टहलने आई है न!

ऊँची-नीची, ऊबड़-खाबड़ कच्ची सड़क पर वे दोनों चुपचाप चलने लगे। जब कभी हवा का झोंका आता, आँखें मुँद जातीं, मुँह में रेत करकराने लगती, आँखों के आगे सफ़ेद परदा-सा खिंच जाता। मज़दूरों के खोखलों और झाड़-फूस के छप्परों के ऊपर काली देवी के मंदिर का दीया जल गया था, हालाँकि धूप अभी तक आस-पास खड़ी चट्टानों और मिट्टी के ढूहों पर रेंग रही थी।

चलते-चलते अचानक इंजीनियर बाबू रुक गए।

- आपने वे टीले देखे हैं, उन खोखलों के पीछे? - इंजीनियर बाबू की दृष्टि कहीं दूर जाकर अटक गई थी।
तरन जिज्ञासा-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगी।
- सड़क बनने के बाद उन सबको गिरा दिया जाएगा। रेलवे लाइन के सामने आप जो बंजर भूमि देखती है, उसे जोता जाएगा। नहर के इस तरफ़ कारखाने बनेंगे। आपके देखते-देखते सबकुछ बदल जाएगा।

इंजीनियर बाबू का स्वर एकदम बहुत उत्साहपूर्ण हो गया था। शाम की धूप में उनके चश्मे का शीशा बार-बार झिलमिला उठता था।

और भी न जाने इंजीनियर बाबू ने कैसी-कैसी अजीब बातें कही थीं। तरन विस्मय से देखती रही थी, सोचती रही थी, कि देखने में चाहे इंजीनियर बाबू कालेज के छात्र-से लगते हों, जानते बहुत-कुछ है। उसे हँसी केवल इस बात पर आई थी कि वह इतना उत्तेजित होकर क्यों बोल रहे हैं, वह कोई उनका विरोध थोड़े ही कर रही है!

रेलवे लाइन के फाटक के पास आकर वे रुक गए। इंजीनियर बाबू एकाएक चुप हो गए थे, मानो शाम के घिरते अँधियारे का सूनापन उन्हें भी छू गया हो। आकाश पर हँसिया चाँद उग आया था, टीलों की ऊँची-नीची रेखाएँ, जो दुपहर के समय तीखी और सख्त दिखाई देती थीं, संध्या के फीके आलोक में बेहद नरम और हल्की पड़ गई थीं, मानो अपना अलगाव छोड़कर वे चुप एक-दूसरे के पास सरक आई हों।
- इंजीनियर बाबू! आप कभी आसाम गए हैं?
- आसाम? नहीं तो! क्यों, वहाँ क्या है?
- कुछ नहीं, ऐसे ही याद आ गया। वहाँ हमारे भाई रहते हैं, आप ही की उम्र के हैं।
- ओह! इंजीनियर बाबू चुपचाप दूसरी ओर देखने लगे थे।
तरन को यहाँ से लौट जाना था, किंतु वह चुपचाप खड़ी थी। हवा का वेग अचानक कम हो गया था। पानी के टैंक के पीछे छोटे-छोटे घरों की नीली छतें शाम की ढलती धूप में चमक रही थीं।
- अब आप वापस लौट जाइए, अँधेरा होने लगा है। कहिए तो मोंटू को साथ भेज दूँ?
- नहीं, मैं चली जाऊँगी, दूर ही कितना है!

इंजीनियर बाबू रेल की पटरी पार करके धीरे-धीरे मैदान की दूसरी ओर चलने लगे थे। तरन देर तक उनकी ओर देखती रही। डूबते सूरज के रंग का अंतिम आभास भी मिटने लगा था।

वापस लौटते हुए तरन एक बार रुकी थी। उसे लगा था, जैसे बरसों बाद उसके पास एक रहस्यमय, अनिर्वचनीय सुख आया है। चारों ओर घिरते अंधकार की स्निग्ध छाया के बीच उसे अपनी सब चिंताएँ निरर्थक-सी जान पड़ी थीं। वह समझ न पाई कि उसे अब तक जो इतना डर लगता रहा था, वह किसलिए था, किससे था? जिंद़गी में केवल एक बार जीना होता है और उसे उसके अलावा कोई और नहीं जियेगा। इंजीनियर बाबू को ही देखो, अपना घर-बार छोड़कर इतनी दूर आए हैं, भला किसलिए, उन्हें कैसा लगता होगा?

मैदान के अँधेरे ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए तरन को लगा था, जैसे बीते बरसों का बासीपन धुल गया है। उसकी नस-नस में आनंद की लहर दौड़ गई थी।

- नहीं, अब वह इस घर में कभी वापस नहीं आएगी व़ह अपनी जिंद़गी स्वयं जियेगी उसे यहाँ अब रहने के लिए किसी का मोह पीछे नहीं खींचेगा

सीढ़ियाँ चढ़ते हुए तरन ने ऊपर देखा, बरामदे में निपट अँधेरा था। सारे घर में सन्नाटा फैला था। केवल रसोई की बत्ती जल रही थी, जिसकी रोशनी की एक धूमिल, फीकी-सी रेखा बाबू के कमरे के दरवाज़े पर खिंच आई थी।

दरवाज़ा खुला था। तरन का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। क्या बाबूजी अकेले अँधेरे कमरे में बैठे हैं?

वह दबे पाँव दरवाज़े के पास गई, काँपते हाथों से दरवाज़े को हल्के-से पीछे ठेल दिया। आँखें अँधेरे में पहले कुछ भी न पकड़ पाईं, इधर-उधर भटकती रही, फिर एक कोने में वे सहसा ठहर गईं।

एकटक देखती रही तरन। निद्रा में चलते मरीज़ की तरह बाबू कमरे में घूम रहे थे। कभी-कभी अकस्मात कमरे के बीच खड़े हो जाते थे, मानो किसी भूली हुई चीज़ को याद कर रहे हों। फिर अचानक उनके पाँव मुड़ जाते और वह कोने की ताख में रखी हुई बरसों पुरानी तस्वीर के सामने खड़े होते। उभरी हुई नीली नसों से भरे, काँपते, बूढ़े हाथों से वह फ्रेम पर जमी हुई धूल की परतों को साफ़ करते। धूल कहाँ साफ़ हो पाती है! केवल उनकी उंगलियों की छाप तस्वीर के पुराने, ज़र्द शीशे पर उभर आती है।

कोई शक्ल है, जो अतीत के धूमिल परदे पर दीये की लौ-सी झिलमिला जाती है। जार्ज पंचम के सिल्वर जुबली के समारोह के अवसर पर ब़रसों पहले जो फोटो लिया गया था, बाबू मँत्रमुग्ध होकर अपलक उसे देख रहे थे। रियासत के अँग्रेज़ी रेजीडेंट और अन्य राज्याधिकारियों के बीच जहाँ दीवान साहब बैठे है, फोटो के उस कोने पर बाबू की आँखें स्थिर, स्तंभित-सी जमीं रह गईं है, मानो वह अपने को ही पहचान पाने का प्रयास कर रहे हों।

क्षण-भर के लिए भ्रम होता है, क्या बाबू सचमुच वहाँ है, जहाँ खड़े दीखते हैं? क्या इस घड़ी उनके संग कोई नहीं है?

दरवाज़े के पास दीवार से सटकर तरन पत्थर-सी खड़ी रही। आँखों पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ। पहली बार तरन ने बुढ़ापे को ऐसी निरावृत्त अवस्था में देखा था और वह बिना हिले-डुले सुन्न-सी खड़ी रही थी। बाबू के रुखे-सफ़ेद बाल, पतले, लकड़ी-से हाथों पर नीली नसें, चेहरे की असंख्य उदास झुर्रियाँ, क्या यह सबकुछ उसकी आँखों के सामने, उसके देखते-देखते हो गया है?
- बाबू! - तरन के होठ फड़फड़ा उठे। वह अँधेरे कमरे में बाबू के सामने आकर खड़ी हो गई। जीवन में पहली बार उसने बाबू के इतने निकट जाने का साहस किया था।

बाबू ने धीरे-से सिर ऊपर उठाया, तरन को देखा, औ़र देखते रहे।
तुम यहाँ क्यों आईं, तरन? - उनका गला भर्रा-सा आया, आँखों में कातरता छलछला उठी।
तरन कमरे से बाहर चली आई। देर तक अँधेरे बरामदे में खड़ी रही। एक भयावह-सा विचार उसके मस्तिष्क में धीरे-धीरे रेंगता रहा। बाबू उसे कभी नहीं छोड़ेंगे और वह उनसे कभी अलग नहीं हो सकेगी
वह अकेली रहेगी, किंतु बाबू की छाया से बँधी हुई। और बाबू का अकेलापन हमेशा, जिंद़गी-भर उससे जुड़कर रहेगा।

वह क्षण, जो आज शाम आया था, रेलवे लाइन के सामने, जब वह इंजीनियर बाबू के संग खड़ी थी, वह शायद गल़त था, अपने संबंध में एक सुखद भ्रम से अधिक कुछ नहीं वह क्षण फिर उसके जीवन में कभी नहीं आएगा।

रात-भर बुआ के कमरे में खाँसने का स्वर सुनाई देता रहा। आधी रात के समय तरन बाबू के कमरे तक गई थी और न जाने कितनी देर तक अँधेरे में दरवाज़े से सटकर खड़ी रही थी। उसे लगा था, मानो माँ उस रात दुबारा मर गई हो और जो आँसू बचपन में नहीं बह सके थे वे इतने बरसों से इसी रात की प्रतीक्षा कर रहे थे।

अपने कमरे में वापस आकर तरन चुपचाप खुली खिड़की के आगे खड़ी रही थी। दूर-दूर तक मैदान में फीकी-सी चाँदनी बिखरी थी। रेलवे लाइन के परे तीन-चार बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं। इन्हीं के आसपास कहीं इंजीनियर बाबू रहते होंगे, तरन ने सोचा। उसे उस क्षण इंजीनियर बाबू की बात याद हो आई कि कुछ वर्षों में सबकुछ बदल जाएगा। क्या इंजीनियर बाबू सच कह रहे थे? क्या सचमुच सब बदल जाएगा? और तरन के होठों पर एक रुखी-सी मुस्कराहट फैल गई थी

खिड़की से हटकर तरन अपने पलंग पर लेट गई। थकान के मारे पलकें भारी हो गई थीं, फिर भी देर तक सोना नहीं हो सका। एक बार बीच में कच्ची नींद का हल्का-सा झोंका आया था, तो लगा था जैसे सामने भाई खड़े हों वैसी ही शक्ल थी, वही उदास-सी आँखें और तरन देर तक भाई के बारे में सोचती रही थी। कितने बरसों से उन्हें नहीं देखा है! अब तक तो शायद वह बिल्कुल बदल गए होंगे

एक धुँधली-सी तस्वीर आँखों के सामने उभर जाती है, कहीं बहुत दूर, चाय के बागों के झुरमुट में उनका बंगला छिपा होगा। कहते हैं, वहाँ स्टीमर पर जाना पड़ता है। न जाने, स्टीमर में बैठकर कैसा लगता होगा!

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