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और जब रानी ने जँगले से नीचे झाँकते हुए पूछा, "क्यों री, क्या हुआ जो मुँह अँधेरे बाँगे दे रही हो।" तो शीला जवाब देने के बजाए खिलखिला कर हँसने लगी और रानी सवाल दोहराने के बदले, धम-धम करती नीचे आँगन में आ गयी और आते ही शीला की चुटिया पकड़ कर खींचने लगी। शीला ने हँसते हुए धमकी दी, "छोड़ दो, नहीं मुँह काला कर दूँगी।" रानी ने हँसकर जवाब दिया, "किसका अपना।"

और फिर दोनों हँसने लगीं और हँसते-हँसते ही शीला ने रानी के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही रानी ताली पीट कर चिल्लाने लगी "वन्ती ओ वीराँ ओ वन्ती ।"

वन्ती और वीराँ उसी मकान की निचली मंजिल के दो कमरों में रहती थीं और सब शोर सुन चुकी थीं। वन्ती अपने कमरे के एक कोने में नहा रही थी और वीराँ पिछले प्रहर के लिए थोड़ा-सा आटा गूँध रही थी। रानी की आवाज सुनते ही वन्ती ने तुरन्त एक-दो गिलास पानी के इधर-उधर फेंके और एक मैला दुपट्टा बदन पर लपेट कर कमरे से बाहर निकल आयी। वीराँ ने आटा अध-साना छोड़ दिया था और पहले से ही शीला और रानी के साथ खड़ी न जाने किस बात पर हँस रही थी। वन्ती को देखते ही तीनों बिलकुल बच्चों की तरह चिल्लाने लगीं। "वन्ती नंगी होय वन्ती नंगी ।" वन्ती खिसिया कर अपने कमरे में लौट गयी और जल्दी-जल्दी पेटीकोट और कुर्ती पहन कर कुर्ती के बटन बन्द करती-करती फिर बाहर दौड़ आयी। रानी ने आगे बढ़कर कहा -- "अरी दौड़ो नहीं, तुम्हारे हिस्से का तुम्हें मिल जाएगा।"
वन्ती ने जरा आश्चर्य से पूछा -- "क्या?" तो तीनों ने एक ही स्वर में कहा, "प्रसाद" और फिर चारो खिलखिला कर हँस पड़ीं।

उनकी इस खिलाखिलट से अहाते का घुटा हुआ वातावरण मानो चिढ़-सा गया और इस चिड़चिड़ेपन का स्पष्ट प्रमाण था अहाते की मालकिन का कुपित चेहरा जो अपने पोर्शन के सामनेवाली गली में खड़ी इन गँवार स्त्रियों के गँवारपन पर दाँत पीस रही थी, लेकिन जब इन चारों ने आपस में कुछ खुसर-फुसर करने के पश्चात् अपनी छोटी-सी कान्फ्रेन्स का अन्त एक चीखते हुए ठहाके पर किया तो अहाते का वातावरण बदल-सा गया। यद्यपि उसकी मालकिन का पारा कुछ दर्जे और ऊपर चढ़ गया।

हँसती-चीखती, बल खाती चारों अपने-अपने कमरे में दौड़ गयीं। शीला ने राख भरे हाथ जल्दी से धोये। बरतनों का ढेर जहाँ का तहाँ पड़ा रहा और वह अपनी फूलों वाली शलवार को ठीक करने लगी।

रानी ने झाड़ू उठाकर एक कोने में फेंक दिया। और पानी भरी बाल्टी फर्श पर उडेल़ कर उसे एक ओर खिसका दिया और हाथ पेटीकोट से पोंछ कर आँखों में सुरमा डालने लगी। वन्ती पहले से ही सब काम समाप्त कर चुकी थी, केवल आग बुझानी बाकी थी। उसने खड़े-खड़े ही दो-तीन गिलास पानी चूल्हे में फेंक दिया और एक क्षण के लिए सोचा कि सारा चूल्हा गीला हो गया और फिर नये दुपट्टे में सिलवटें डालने लगी। वीरा ने आटे की परात को एक कोने में धकेल दिया, उसके कमरे में चप्पे-चप्पे पर जूठे बरतन पड़े हुए थे, क्योंकि उसके बच्चे अभी-अभी खा-पी कर बाहर निकले थे। उसने एक-दो गिलास उठा कर ठिकाने लगाए, फिर हाथ-मुँह धोने लगी।

कुछ ही देर में चारों सहेलियाँ अपने-अपने कमरे को ताला लगा कर अहाते से बाहर निकल गयीं ओर अहाते की क्रोधित मालकिन आश्चर्य से उँगली दाँतों में दबाए देखती की देखती रह गयी। उन्होंने जाती बार आँख उठाकर उसकी ओर देखा तक न था, "नीच घराने की" अहाते की मालकिन बड़बड़ायी और उसी समय उसके पति ने अन्दर से आवाज दी। "अरी कहाँ चली गयी तू नीच घराने को, यह क्या कर दिया है तूने?" और वह अन्दर जा कर पति से झगड़ने लगी।

इधर वे चारों सड़क पर एक-दूसरे के पीछे ऐसे भाग रही थीं जैसे प्राइमरी स्कूल की लड़कियाँ। रानी ने तो हद ही कर दी। दुपट्टा उसने कमर पर बाँध लिया और चोटी को सर पर पगड़ी की भाँति लपेट कर यों चलने लगी जैसे रानी खाँ की छोटी साली वही हो। वह अब गली से गुजर कर सड़क पर पहुँच चुकी थी। शीला कह रही थी रुक जाओ, रानी ठहरो इधर कहाँ चल पड़ी हो इधर तो कुछ भी नहीं जंगल में जावोगी । वह इतने जोर से बोल रही थी कि नवाबगंज रोड पर जाने वाले कुछ विद्यार्थी मुड़-मुड़कर देख रहे थे। शीला के कई बार चिल्लाने पर आखिर रानी रुकी और कुछ सलाह के बाद उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें सब्जी मंडी से ट्राम पकड़नी चाहिए और जब वन्ती ने पूछा जाओगी कहाँ? तो तीनों ने हँस कर जवाब दिया जहाँ तू ले जाए। इस पर वन्ती भी हँस पड़ी और वह सब्जी-मंडी की तरफ चल पड़ी।

एक ट्राम खड़ी थी। वे दौड़ कर उसमें बैठ गयीं और जब कन्डक्टर ने शीला से पूछा -- "कहाँ जाओगी जी?" तो शीला ने हँस कर जवाब दिया, "उससे पूछो।" कन्डक्टर इस अकारण हँसी पर खीज-सा गया और उसने तुनककर कहा, "किससे पूछूँ।" शीला ने फिर हँस कर कहा -- "नाराज क्यों होते हो उससे रानी से पूछो।"
"मुझे सपना आएगा कि रानी कौन है" कन्डक्टर ने बिगड़ कर कहा। "मैं हूँ रानी।" रानी ने चलती ट्राम में उठ कर आगे बढ़ते हुए कहा और दूसरे ही क्षण में लड़खड़ा कर एक वृद्ध की गोद में जा गिरी।

शीला, वन्ती और वीरा खिलखिला कर हँस उठीं और रानी उस वृद्ध की गोद में से उठती हुई बोली, "हँसती क्यों हो, अपने पिता के समान है।" इस पर ट्राम में बैठे सभी लोग हँस पड़े और वह वृद्ध बगलें झाँकने लगा। रानी उठ कर गिरती-पड़ती फिर अपनी सीट पर बैठ चुकी थी।

कुतुब रोड के अड्डे पर जब वह ट्राम से उतर गयीं तो कन्डक्टर ने न जाने किसे सम्बोधित करते हुए कहा, "अजीब वाहियात औरतें थीं" और ट्राम में बैठे एक आदमी ने अपनी पत्नी से कहा, "लाज-शर्म तो रही नहीं" और वह वृद्ध बगल में बैठे एक युवक से कह रहा था, "साली क्या धम्म से आकर गोद में गिर पड़ी" और युवक यह समझने की कोशिश कर रहा था कि बूढ़ा उस औरत की हरकत की बुराई कर रहा है या वैसे ही चटखारा ले रहा है।

ट्राम से उतरते ही उन्होंने फिर सोचने की आवश्यकता समझी कि वे कहाँ जाएँ। जब रानी ने अपने मुँह पर अँगुली रखते हुए कहा, "हाय, हम कहाँ आ गयी" तो शीला ने भोलेपन से जवाब दिया, "अपनी ससुराल" और इस पर वह सब इस जोर से हँसीं कि आसपास के खड़े सभी लोग उनकी ओर देखने लगे।

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