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"माँ, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं? - और खिसियायी हुई नज़रों से शामनाथ चीफ के मुँह की ओर देखने लगे।
चीफ के चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, "नमस्ते!"
माँ ने झिझकते हुए, अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दुपट्टे के अन्दर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे।
इतने में चीफ ने अपना दायाँ हाथ, हाथ मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।
"माँ, हाथ मिलाओ।"
पर हाथ कैसे मिलातीं? दायें हाथ में तो माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दायें हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँ पड़ीं।
"यों नहीं, माँ! तुम तो जानती हो, दायाँ हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।"
मगर तब तक चीफ माँ का बायाँ हाथ ही बार-बार हिलाकर कह रहे थे - "हौ डू यू डू?"
"कहों माँ, मैं ठीक हूँ, खैरियत से हूँ।"
माँ कुछ बड़बड़ाई।
"माँ कहती हैं, मैं ठीक हूँ। कहो माँ, हौ डू यू डू।"
माँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं - "हौ डू डू"
एक बार फिर कहकहा उठा।
वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति संभाल ली थी। लोग हँने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।
साहब अपने हाथ में माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब की बू आ रही थी।
शामनाथ अंग्रेज़ी में बोले - "मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।"
साहब इस पर खुश नज़र आए। बोले- "सच? मुझे गाँव के लोग बहुत पसन्द हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगी?" चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टिकटिकी बांधे देखने लगे।
"माँ, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।"
माँ धीरे से बोली - "मैं क्या गाऊँगी बेटा। मैंने कब गाया है?"
"वाह, माँ! मेहमान का कहा भी कोई टालता है?"
"साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे।"
"मैं क्या गाऊँ, बेटा। मुझे क्या आता है?"
"वाह! कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनारां दे"
देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को।
इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा - "माँ!"
इसके बाद हाँ या ना सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गयीं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज़ में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं -
हरिया नी माये, हरिया नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया है!
देसी स्त्रियाँ खिलखिला के हँ उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गयीं।
बरामदा तालियों से गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बन्द ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।

तालियाँ थमने पर साहब बोले - "पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?"
शामनाथ खुशी में झूम रहे थे। बोले - "ओ, बहुत कुछ - साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देखकर खुश होंगे।"
मगर साहब ने सिर हिलाकर अंग्रेजी में फिर पूछा- "नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं माँगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता है, औरतें खुद क्या बनाती हैं?"
शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले - "लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैं, और फुलकारियाँ बनाती हैं।"

"फुलकारी क्या?"
शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले - "क्यों, माँ, कोई पुरानी फुलकारी घर में हैं?"
माँ चुपचाप अन्दर गयीं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लायीं।
साहब बड़ी रूचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रूचि को देखकर शामनाथ बोले - "यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नयी बनवा दूँगा। माँ बना देंगी। क्यों, माँ साहब को फुलकारी बहुत पसन्द हैं, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?"
माँ चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं - "अब मेरी नज़र कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?"
मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले - "वह जरूर बना देंगी। आप उसे देखकर खुश होंगे।"
साहब ने सिर हिलाया, धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज़ की ओर बढ़ गये। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिये।
जब मेहमान बैठ गये और माँ पर से सबकी आँखें हट गयीं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नज़रें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं।

मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बांध तोड़कर उमड़ आये हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बन्द कीं, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।

आधी रात का वक्त होगा। मेहमान खाना खाकर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सटकर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज़ आ रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा।
"माँ, दरवाज़ा खोलो।"
माँ का दिल बैठ गया। हड़बड़ाकर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गयी? माँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गयी, क्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? माँ उठीं और कांपते हाथों से दरवाजा खोल दिया।
दरवाजे खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आये और माँ को आलिंगन में भर लिया।
"ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया! स़ाहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!
माँ की छोटी-सी काया सिमटकर बेटे के आलिंगन में छिप गयी। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गये। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली - "बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।"
शामनाथ का झूमना सहसा बन्द हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाहें माँ के शरीर पर से हट आयीं।
"क्या कहा, माँ? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?"
शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गये - तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।
"नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन ज़िन्दगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!"
"तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनायेगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।"
"मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनायी ले लो।"
"माँ, तुम मुझे धोखा देके यों चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!"
माँ चुप हो गयीं। फिर बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली - "क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?"
"कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है। कहता था, जब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूँ।"
माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।
"तो तेरी तरक्की होगी बेटा?"
"तरक्की यों ही हो जायेगी? साहब को खुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी खिदमत करने वाले और थोड़े हैं?
"तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी।
और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनायें करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, "अब सो जाओ, माँ," कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गये।

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१६ जुलाई २००३

 
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