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कभी ऐसा भी लगने लगता है, मानो सामने दीवार पर लटकी हुई नरेंद्र की तसवीर हँसकर बोल उठेगी। सावित्री की आँखों में प्रेमाश्रु छलक उठे। तितली का पंख काढ़ा जा चुका है, किंतु दूसरा आरंभ करने से पूर्व ही कमल की सिसकियों और आँसुओं ने सावित्री को फिर वहाँ से उठने को विवश कर दिया।

स्कूल की चीज़ों को बैग में डालते हुए निर्मला के निकट खड़े होकर सावित्री ने कड़ककर कहा, ''निर्मला, तुझे शर्म नहीं आती क्या! इतनी बड़ी हो गई है! पूरे चार वर्ष कमल तुझसे छोटा है। किसी चीज़ को उसे छूने तक नहीं देती। हर घड़ी वह बेचारा रोता रहता है। अगर तुम्हारे पेंसिल बॉक्स को तनिक देख लिया तो क्या हुआ?''
निर्मला सिर नीचा किए मुस्करा रही थी। यह देखकर सावित्री का पारा अधिक चढ़ गया। उसने और भी ऊँचे स्वर में कहना शुरू किया, ''रानी जी, बड़ी होने पर पता चलेगा, जब इन्हीं दुर्लभ सूरतों को देखने के लिए भी तरसोगी! भाई-बहन सदा साथ-साथ नहीं रहते।''

माँ की झिड़कियों ने बालिका के नन्हे मस्तिष्क को एक उलझन में डाल दिया। आश्चर्यान्वित हो वह केवल माँ के क्रुद्ध चेहरे की ओर एक स्थिर, गंभीर, कौतुहलपूर्ण दृष्टि डालकर रह गई।
करीब आध घंटा बाद किंचित उदास-सा मुख लिए निर्मला जब कमल को साथ लेकर स्कूल चली गई तब सावित्री को अपनी सारी वक्तृता सारहीन प्रतीत होने लगी। सहसा उसे याद आने लगी कुछ वर्ष पूर्व की एक बात। तब वह नरेंद्र से क्यों रूठ गई थी? छिः! एक तुच्छ-सी बात पर। किंतु आज जो बात तुच्छ जान पड़ती है, उन दिनों उसी तुच्छ, निकृष्ट ज़रा-सी बात ने इतना उग्र रूप क्यों धारण कर लिया था, जिसके कारण भाई-बहन ने आपस में पूरे एक महीने तक एक बात भी न की थी। एकाएक सावित्री के चेहरे पर हँसी प्रस्फुटित हो उठी जब उसे स्मरण हो आया कि नरेंद्र का दिन-रात नए-नए रिकॉर्ड लाकर ग्रामोफोन पर बजाना और एक दोस्त से दूरबीन माँगकर आते-जाते बहन के कमरे की ओर झाँकना कि किसी तरह इन दोनों चीज़ों का प्रभाव सावित्री पर पड़ रहा है या नहीं। उसे यह भी याद करके खूब हँसी आई कि कैसे वह मौन धारण किए हुए मिठाई की तश्तरी नरेंद्र के कमरे में रख आती थी।

टेबल क्लॉथ पुनः हाथ में लेकर काढ़ते हुए सावित्री ने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की कि अब से वह बच्चों को बिलकुल डाँट-फटकार नहीं बताएगी। किंतु इधर बारह बजे आधी छुट्टी में खाने के समय फिर कई अभियोग कमल की ओर से मौजूद थे, ''निर्मला मुझे अपने साथ-साथ नहीं चलने देती, पीछे छोड़ आती है। 'मंदाकिनी पूर्ण धाराये' के बदले 'कमलकिनीर पूर्ण धाराये' गाना गाती है और गधा कहती है।''

मामला कुछ गंभीर न था, और दिन होता तो शायद निर्मला की इन शरारतों को सावित्री हँसी समझकर टाल देती, परंतु यह उदंड लड़की सवेरे से ही उसके प्रिय तथा आवश्यक कार्य में बार-बार बाधा डाल रही है। एक हलकी चपत निर्मला को लगाते हुए माँ ने डाँटकर कहा, ''बस, कल ही स्कूल से तेरा नाम कटवा दिया जाएगा। यह सब अंग्रेज़ी स्कूल की शिक्षा का ही नतीजा है। ज़रा-सी लड़की ने घर भर में आफत मचा रखी है। अभी से भाई-बहनों की शक्ल-सूरत नहीं भाती। बड़ी होने पर न जाने क्या-क्या करेगी!'' फिर थाली में पूरी-तरकारी डालकर बच्चों के आगे रखते हुए ज़रा धीमे स्वर में कहा, ''देखो निर्मला, जब मैं तुम्हारे बराबर की थी तो अपने भाई-बहनों को भी तंग नहीं करती थी, कभी अपने माता-पिता को दुःख नहीं देती थी।'' किंतु यह बात कहते हुए भीतर-ही-भीतर सावित्री को कुछ झिझक-सी हो आई।

''हम दोनों सीता के घर में जुलूस देखेंगे, माँ. अच्छा।'' कमल ने विनम्र स्वर में अनुमति चाही।
''नहीं जी, क्या अपने घर से दिखाई नहीं पड़ता?'' दरवाज़े की ओट में निर्मला खड़ी थी। ''कैसी चालाक लड़की है- इसी गरीब को आगे करती है, जब खुद कुछ कहना होता है। जाओ, जाना हो तो।'' सावित्री ने झुँझलाकर उत्तर दिया।

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