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                     कैसी माया है कि छुटि्टयों पर 
                    जाने की कल्पना करने के समय से ही चित्त के भटकने का एक 
                    सिलसिला-सा प्रारम्भ हो जाता है। कैंट की दिनचर्या जैसे एक 
                    बवाल टालने की वस्तु हो जाती है। स्मृति में, मुँह सामने के 
                    वर्तमान की जगह, पिछली छुटि्टयों में का व्यतीत छा जाता है। 
                    पहाड़ की घाटियों में कोहरे के छा जाने की तरह, जो खुद तो धुंध 
                    के सिवा कुछ नहीं, मगर जंगलों और पहाड़ों तक को अंतर्धान कर 
                    देता है। आखिर यही 
                    मोहग्रस्तता घर के आँगन में पहुँचने-पहुँचने तक, कहीं 
                    भीतर-भीतर उड़ते पक्षियों की तरह साथ-साथ चलती है। दिखाई कुछ भी सिर्फ़ सपनों में पड़ता है, लेकिन आवाज़ तो जैसे 
                    हर वक्त व्याप्त रहती है। क्या गजब कि टनकपुर के समीप 
                    पहुँचते-पहुँचते आँख लग गई थी, जबकि आँख खुलने के बाद, फिर रात 
                    से पहले सोने की आदत नहीं। जाने कौन साथ में यात्रा करती महिला 
                    कहीं बाथरूम की तरफ़ को निकली होगी, बिल्कुल भिमुवा की माँ के 
                    पाँवों की-सी आवाज हुई थी। छुटि्टयों में घर पर रहते हैं तब तक 
                    ध्यान नहीं जाता। लौट आते हैं, तब याद आता है कि भैसिया छाते 
                    में इन्तज़ार करते, सिगरेट पीते, कोई फिल्मी गाना गा रहे होते। 
                    आसमान में या चंद्रमा होता था, या सिर्फ़ तारे। रात के सन्नाटे 
                    में एक तरफ़ सौलगाड़ का बहना कानों तक आ रहा था -- दूसरी तरफ़, 
                    घर का काम निबटाकर आ रही है सूबेदारनी के झांवरों की आवाज़!
 आवाज़ ही क्यों, धीरे-धीरे 
                    आकृति उपस्थित होने लगती है। धीरे-धीरे तो बाबू बच्चों - सभी 
                    की, मगर मुख्य रूप से उसी की, जो कि दो-तीन वर्षों के अंतराल 
                    में छुटि्टयों की तैयारी होते ही प्रकृति की तरह प्रगट होती 
                    जाती है। जिसके साथ छुटि्टयों में बिताया गया समय कबूतरों की 
                    तरह कंधों पर बैठता, पंख फड़फड़ाता अनुभव होता है। मन में होता 
                    है कि यह ट्रेन सुसरी, तो बार-बार ऐसे अड़ियल घोड़ी की तरह रुक 
                    जाती है - यह क्या ले चलेगी, हम इसे उड़ा ले चलें। रेलगाड़ी-बस 
                    से यात्रा करते भी सारा रास्ता पैदल पैदल ही नाप रहे होने 
                    की-सी भ्रांति घेरे रहती है। गाड़ी रुकते ही, देर तक गाड़ी के 
                    डिब्बे में पड़े रहने की जगह, आगे पैदल चल पड़ने को मन होता 
                    है। एक गाड़ी से नीचे, तो अगला कदम सीधे घर के आँगन में रखने 
                    का मन होता है। घर पहुँच चुकने के बाद तो उतना ध्यान नहीं 
                    रहता, लेकिन पहले यही कि सुबह के उजाले में क्या आलम रहता है 
                    और शाम के धुँधलके या रात के अंधेरे क्या उस स्थान का, जहाँ कि 
                    सूबेदारनी हुआ करती है। स्मृति के संसार में विचरण करते में 
                    जैसे ज़्यादा रूप पकड़ती जाती है। स्वभाव भी क्या पाया है। 
                    अकेले ही सारी सृष्टि चलाती जान पड़ती है। सृष्टि है भी कितनी। 
                    जितनी हमसे जुड़ी रहे।  पींग-पींग की लम्बी आवाज़ 
                    सुनाई पड़ी, तो भ्रम हुआ कि कहीं कोई स्पेशल बस तो नहीं लग रही 
                    पिथौरागढ़ को, लेकिन यह तो ट्रक था। निराश हो नैनसिंह ने मुँह 
                    फेरा ही था कि पींग-पींग हुई। घूमकर देखा, तो फिर वही ट्रक था। 
                    जैसे ही रुख बदला, फिर वही पींग-पींग ! -- अब ध्यान आया कि ठीक 
                    ड्राइवर वाली सीट की बगल में बाहर निकला कोई हाथ, 'इधर आओ' 
                    पुकार रहा है।  नैनसिंह ने नहीं पहचाना। 
                    बनखरी वाली दीदी का हवाला दिया, तो नाता जुड़ा कि अच्छा, क्या 
                    नाम कि जसोंती प्रधान का मझला खीमा है। हाँ, सुना तो था कि इन 
                    लोगों की गाड़ियाँ चलती है। खीमसिंह का बोलना, देवताओं के 
                    आकाशवाणी करने-सा प्रतीत होता गया और साथ चलने का 'सिग्नल' 
                    पाते ही, नैनसिंह सूबेदार सामान ट्रक में रखवाने की युद्धस्तर 
                    की तत्परता में हो गए। जैसे कि यह ट्रक ही एकमात्र और आखिरी 
                    साधन रह गया हो गाँव पहुँचने का। अच्छा होता, अम्बाला से ही एक 
                    चिठ्ठी बनखरी वाली दीदी को भी लिख दी होती कि फलां तारीख के 
                    आस-पास घर पहुँचने की उम्मीद है। घर वाली ने जागर भी खोल रखा 
                    है और हाट की कालिका ने पूजा भी देनी हुई। तुम भी एक-दो दिनों 
                    को ज़रूर चली आना। बहनोई तो पाकिस्तान के साथ दूसरी लड़ाई के 
                    दिनों में मारे गए। पेंशनयाफ्ता औरत हैं। भाई-बहनों के 
                    साथ-साथ, कुछ कर्मक्षेत्र का रिश्ता भी बनता है। पिथोरागढ़ के 
                    ज़्यादातर गाँवों की विधवाओं में तो फौज में भर्ती हुए लोगों 
                    की ही होंगी, नहीं तो पहाड़ के स्वच्छ हवा-पानी में बड़ी उम्र 
                    तक जीते हैं लोग।  ट्रक के स्टार्ट होते ही, 
                    नैनसिंह को पंख लग गए हों। ट्रक का रूप कुछ ऐसा हो गया था, 
                    जैसे कि नैनसिंह सूबेदार बैठे हैं, तो वह भी चला चल रहा है 
                    पिथोरागढ़ को, नहीं तो कहाँ इस साँझ के वक्त टनकपुर से चंपावत 
                    तक की चढ़ाई चढ़ता फिरता। खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि रात तो आज चंपावत में ही 
                    पड़ाव करना होगा, लेकिन सुबह दस तक पिथोरागढ़ सामने। यहाँ 
                    टनकपुर में ही ठहर जाने का मतलब होता, कल सन्ध्या तक पहुँचना। 
                    हालांकि घर तो जो आनन्द ठीक गोधूलि की बेला में पहुँचने का है, 
                    दोपहर मे कहाँ। शाम का धुँधलका आपको तो अपने में आवृत्त रखता 
                    हुआ-सा पहुँचता है, लेकिन जहाँ घर पहुँचना हुआ कि उसे कौन याद 
                    रखता है।
 देखिए तो काल भी अजब वस्तु 
                    है। सब जगह -- और सब समय -- काल भी एक-सा नहीं। संझा का समय जो 
                    मतलब पहाड़ में रखता है, खासतौर पर किसी गांव में, वह मैदानी 
                    शहरों में कहाँ? पिछले वर्ष ठीक संध्या झूलते में पहुँचना हुआ 
                    और संयोग से घर के सारे लोगों से पहले रूक्मा सूबेदारनी उर्फ 
                    भिमुचा की अम्मा ही सामने पड़ गई, तो क्या हुआ सूबेदारनी का 
                    हाल और क्या खुद सूबेदार साहब का? क्या ग़ज़ब कि पन्द्रह साल 
                    पहले, चैत के महीने शादी हुई थी और बन की हिरनी का सा चौंकना 
                    अभी तक नहीं गया। भीड़भाड़ वाला क्षेत्र पार करते-करते, खीमसिंह के साथ आशल-कुशल 
                    और नाना दीगर संवाद करते तथा कैप्सटन की सिगरेट की फूँक उड़ाते 
                    भी, नैनसिंह सूबेदार व्यतीत के धुँधलके में डूबते ही चले गए।
 
 खीमसिंह ट्रक के साथ-साथ, खुद को भी ड्राइव करता जान पड़ता था। 
                    उसकी सारी इंद्रियाँ जैसे पूरी तरह ट्रक के हवाले हो गई थीं। 
                    और देखिए तो यह टनकपुर से पिथौरागढ़ की तरफ़ को जाते, या उस 
                    तरफ़ से आते, हुए रास्ते पर गाड़ी चलाना भी किसी करिश्मे से 
                    कहाँ कम है। पलक झपकते में ऐसे-ऐसे मोड़ हैं कि ड्राइवर का 
                    ध्यान चूकते ही, बसेरा नीचे घाटी में ही मिलता है।
 ट्रक, रफ्तार से ज़्यादा, शोर 
                    उत्पन्न कर रहा था। आखिर दो-तीन किलोमीटर पार करते-करते में 
                    ही, पहले ट्रेन में रात-भर ठीक न सो पाने की भूमिका बाँधी और 
                    फिर आँखें बन्द कर ली, नैना सूबेदार ने मगर नींद कहाँ। आँस 
                    बन्द रखते में सड़क ट्रक के साथ ही मुड़ती जान पड़ती थी, ट्रक 
                    सड़क के साथ जाता हुआ। नीचे अब अतल लगती-सी मीलों गहरी घाटियाँ 
                    हैं और खीमसिंह का या खुद ट्रक का ध्यान ज़रा-सा भी चूका नहीं 
                    कि सूबेदार नैनसिंह ने, हड़बड़ाकर आँखों को खोल दिया, तो सामने 
                    एक एक परिदृश्य 'आँखें क्यों बन्द कर ले रहे हो' पूछता-सा 
                    दिखाई पड़ा। सचमुच में नींद हो, तो बात और है, नहीं तो टनकपुर 
                    पिथौरागढ़ को अधर में टांगती-सी सड़क पर कहाँ इतनी निश्ंचितता 
                    थी कि आँखें बन्द किये, रूक्मा सूबेदारनी की एक-एक छवि को याद 
                    करते रहो। पिछली छुटि्टयों में रामी, यानी रमुआ सिर्फ़ डेढ़ 
                    साल का था और स्साला उल्लू का बच्चा बिलकुल बन्दर के डीगरे की 
                    तरह माँ की छाती से चिपका रहता था। इस बार की छुटि्टयों के लिए 
                    तो सूबेदार ने तब एक ही कोशिश रखी कि दो लड़के 'मोर दॅन 
                    सफिशियेंट' माने जाने चाहिए, ज़रूरत अब सिर्फ़ एक कन्याराशि की 
                    है। कुछ कहिए, साहब, जो आनन्द कन्या के लालन-पालन में हैं, 
                    जैसे वह आईने की तरह आपको अपने में झलकाती-सी बोलती बतियाती है 
                    -- वह बात ससुरे लड़कों में कहाँ। इसलिए पिछली बार प्राण-प्रण 
                    से लड़की की कोशिश थी और उसी कोशिश में थी यह प्रार्थना कि -- 
                    'हे मइया, हाट की कालिका! आगे क्या कहूँ, तु खुद अतर्यामिनी 
                    है।' चलते-चलाते ही, यह भी याद आ 
                    गया नैनसिंह सूबेदार को कि अबकी बार घर से इस प्रकार की कोई 
                    खबर चिठ्ठी में नहीं आई। लगता है मइया पूजा पाने के बाद ही 
                    प्रसाद देगी। वह भी तो आदमी के सहारे है। जैसी जिसकी मान्यता 
                    हो, वैसी समरूप वो भी ठहरी। निराशा के सागर में आशा के जहाज़ की तरह ट्रक लेकर उदित होने 
                    वाले खीमसिंह के प्रति अहसान की भावना स्वाभाविक ही नहीं, 
                    ज़रूरी भी थी क्यों कि मिलिट्री की नौकरी से घर लौटते आदमी की 
                    छवि ही कुछ और होती है, लोगों में। फिर खीमसिंह से तो दीदी के 
                    निमित्त से भी रिश्ता हुआ। लगभग हर दस-पंद्रह किलोमीटर के 
                    फासले पर ट्रक को विश्राम देते हुए, खीमसिंह की चाय-पानी, 
                    गुटुक-रायते को पूछना खुद की ज़िम्मेदारी ही लगती रही सूबेदार 
                    को।
 बीच-बीच में सीटी बजाने और 
                    गाने की कोशिश भी इसी सावधानी में रही कि खीमसिंह को पता चले, 
                    ये सब तो बहुत मामूली बातें हैं। बस का किराया बच भी गया है, 
                    तो घर में बच्चों के हाथ रखने को तो कुछ रुपए ज़बर्दस्ती भी 
                    देने होंगे। टिकट के पैसों से दूने ही बैठेंगे। क्यों कि अभी तो 
                    चंपावत में पड़ाव होना है और वहाँ रात का डिनर भी तो सूबेदार 
                    के ही जिम्मे पड़ेगा। मगर खुशी इस बात की है कि टनकपुर अगरचे 
                    कहीं होटल में रहना पड़ गया होता, तो जेब जो कटती, सो कटती यह 
                    आधा पहाड़ कहाँ पार हुआ होता। अब तो जहाँ आती-जाती, खेतों में 
                    काम करती औरतें दिख जा रही है, सभी में रूक्मा सूबेदारनी की 
                    छाया गोचर होती है।  अभी-अभी भूमियाधार की चढ़ाई 
                    पार करते में, यो ऊपर के धुरफाट में न्योली गाती कुछ अपने को 
                    ही हृदय का हाल सुनाती जान पड़ रही थीं। जैसे कहती हों कि पलटन 
                    से लौट रहे हो, हमारे लिए क्या लाये हो। मन तो हुआ कि कुछ देर 
                    को ट्रक रुकवा कर, या तो उन औरतों के पास तक खुद चल दिया जाएँ 
                    या उन्हें ही संकेत किया जाए कि यहाँ तक आकर न्यौली 'टेप' करा 
                    जाएँ। फिलिप्स का ट्रांजिस्टर कम टेपरिकार्डर, यानी 'टू इन वन' 
                    इसी मकसद से तो लाए हैं -- लेकिन सर्वप्रथम बाबू से कुछ जागर 
                    गवाना है -- तब खुद सूबेदारनी की न्यौली 'टेप' करनी है। माँ तो 
                    परमधाम में हुई। कुछ ही साल पहले तक दोनों सास-बहू मिलके 
                    न्यौली गाती थीं और ज़्यादा रंग में हुई, तो एक-दूसरे की कौली 
                    भर लेती थीं।  स्त्री तत्व भी क्या चीज़ 
                    हुआ। सारे ब्रम्हांड में व्याप्त ठहरा। कोई ओर-छोर थोड़े हुआ 
                    इनकी ममता का। अपरंपार रचना हुई। नाना रूप, नाना खेल। देखिए तो 
                    क्या कर सकता है। हज़ार बंदिशों का मारा बंदा। इच्छा कर लेता 
                    है, सब कर लेता है। सूबेदारनी से मिलती-जुलती, और खुद के हृदय 
                    का हाल सुनाती-सी औरतों का ओझल होना देखते चल रहे हैं नैनसिंह 
                    सूबेदार भी। सवारी का साधन भी एक निमित्त मात्र हुआ, चलने वाला 
                    तो हर हाल में आदमी ही ठहरा। आदमी चलता रहे, तो गाड़ी-मोटर, 
                    सड़क, खेत खलिहान, पेड़-जंगल और पशु-पक्षी भी साथ चलते रहे। 
                    आदमी रुका, तहाँ सभी रुक गए। आदमी को दिखते तक में अपरंपार 
                    सृष्टि का सभी कुछ प्राणवान और विद्यमान हुआ। आदमी से ओझल होते 
                    ही, सब-कुछ शून्य हो जानेवाला ठहरा।  क्या है कि ध्यान धरता है 
                    आदमी। ध्यान करता है, आदमी। ध्यान से ही सूबेदारनी ठहरी। औरतें 
                    सब लगभग समान हुई और लगभग सभी माता-बहिन-बेटी इत्यादि, लेकिन 
                    किसी की कोई बात ध्यान में रह गई किसी की कोई। माँ का स्वयं के परमधाम सिधारते समय का, 'नैनुवा रे' कहते हुए 
                    पूरी आकृति पर हाथ फिराना ध्यान में रह गया है, तो रूक्मा 
                    सूबेदारनी को देखते ही हिरनी का सा चौंकना। फोटू कैमरामैन हो 
                    जाने वाली ठहरी यह औरत और आपके एक-एक नैन-नक्श को पकड़ती, 
                    प्रकट करती ऐसा ध्यान खींच ले कि पंद्रह सालों की गृहस्थी में 
                    भी आखों की आब ज्यों-की-त्यों हुई। और बाकी तो शरीर में जो है, 
                    सो है, मगर आँखें क्या चीज़ हुई कि प्राणतत्व तो यहीं झलमल 
                    करता हुआ ठहरा। फिर कमला सूबेदारनी का तो हाल क्या हुआ कि 
                    खीमसिंह 'स्टीयरिंग-व्हील' को हाथों से घुमा रहा है, वैसे आपको 
                    सूबेदारनी सिर्फ़ आँखों से घुमा सकने वाली ठहरी। यह बात दूसरी 
                    हुई कि अनेक मामलों में वो 'रिजर्व फॉरिस्ट' ही ठहरी।
 नैनसिंह सूबेदार का अनायास और 
                    अचानक हँस पड़ना, जैसे जंगल की वनस्पतियों और पक्षियों तक में 
                    व्याप्त हो गया। खीमसिंह का ध्यान भी चला गया इस अचानक के हँस 
                    पड़ने पर, तो उसने भी यही कहा कि फौज का आदमी तो, बस, इन्हीं 
                    चार दिनों की छुटि्टयों में जी भर हँस-बोल और मौज-मजा कर लेता 
                    है, दाज्यू! कुछ जानदार वस्तु तो आप ज़रूर साथ लाए होंगे? यहाँ 
                    तो पहाड़ में ससूरी आजकल डाबर की गऊमाता का दूध-मूत चल रहा है, 
                    मृतसंजीवनी सुरा! थ्री एक्स रम, ब्लैकनाइट-पीटरस्कॉट व्हिस्की 
                    और ईगल ब्रांडी जैसी वस्तुएँ तो औकात से बिलकुल बाहर पहुँचा दी 
                    है सरकार ने।'' चम्पावत आते ही, खीमसिंह ने ट्रक को पहचान के ढाबे के किनारे 
                    खड़ा कर दिया। कुछ ऐसे ही मनोभाव में, जैसे गाय-भैस थान पर 
                    बाँध रहा हो। उँगलियों की कैंची फँसाकर, लम्बी जमुहाई लेते 
                    हुए, ''जै हो कालिका मइया की, आधा सफ़र तो सकुशल कट गया।'' कहा 
                    उसने और दृष्टि सूबेदार की तरफ़ स्थिर कर दी।
 अर्थ तो रास्ता चलते ही समझ 
                    लिया था, और मन भी बना लिया कि जाता ही देखो, तो दिन दरिया बना 
                    लो। हँसते हुए ही इंगित कर दिया कि मामला ठीकठाक है। खीमसिंह 
                    का तो रोज़ का बासा हुआ। जितनी देर में खीमसिंह ढाबे की तरफ़ 
                    निकला, सूबेदार ने अपनी वी.आई.पी. अटैची खोलकर उसमें हैंडलूम 
                    की कोरी धोती में लपेटी हुई कोटे की 'थ्री एक्स' बोतलों में एक 
                    बाहर निकली। कुछ द्विविधा में ज़रूर हुए कि कोई खाली अद्धा 
                    पड़ा होता, तो 'फिफ्टी-फिफ्टी कर लेते। ड्राइवरों-क्लीनरों की 
                    नज़रों से तो बाकी छुड़ाना कठिन हो जाता है। जब तक किसी तरह की 
                    व्यवस्था करते खीमासिंह न सिर्फ़ कटी प्याज कलेजी- गुर्दा- 
                    दिल- फेफड़े के साथ ही आलू भी मिलाए हुए भुटूवे की, भाप उठती 
                    प्लेट लेकर उपस्थित! कहो कि पानी का जग लाना रह गया। तो इतने 
                    में आधी बोतल थर्मस में कर लेने का अवसर मिल गया।  चलो, अब कहने को हो गया कि 
                    कुछ रास्ते में ले चुके, बोतल में बाकी जो बच रही, सो ही आज की 
                    रात के नाम है। गनीमत कि क्लीनर हरीराम कुछ ही दूरी पर के अपने गाँव चला गया 
                    और खीमसिंह ने भी मरभुक्खापन नहीं दिखाया। सच कहिए, तो आदमी के 
                    बारे में अपने हिसाब, या अपनी तरफ़ से आखिरी बात भूलकर तय न 
                    करे कोई। बहुत रंगारंग प्राणी हुआ करता है। इसकी आँखों में पढ़ 
                    रहे है आप कुछ और ही, मगर दिल में न जाने क्या है। एक-एक पैसे 
                    को साँसों की तरह एकट्ठा करके चलना होता है छुटि्टयों पर, 
                    क्यों कि बन्धन हज़ार है। ऐसे में पैसा शरीर में से बोटी की तरह 
                    निकलता जान पड़ता है, क्यों कि गाँव-घर, अड़ोस-पड़ोस में ही अगर 
                    न हुआ कि नैनसिंह सूबेदार का छुटि्टयों पर घर आना क्या होता 
                    है, तो नाक कहाँ रही। और अब इसे भी तो नाक रखना ही कहेंगे कि 
                    भुटुवा और पराठे-शिकार-भात, डिनर का सारा खर्चा खीमसिंह ने 
                    अपने जिम्मे लगा लिया कि --''दाज्यू, चंपावत से अपना होमलैंड 
                    शुरू हो जाता है। आज तो आप हमारे 'गेस्ट' हो। खाने का बंदोबस्त 
                    हमारी तरफ़ से पीने का आपकी। मरना हमारा, जीना आपका। सीना 
                    हमारा, चाकू आपका ! कोई चीज किसी वक्त में हो जाती है और उसे 
                    गॉडगिफ्ट मान लेना, मनुवा ! आप हमको कड़क फौजी ड्रेस में बस 
                    अड्डे पर खड़े दिख गए, यह भी भगवान की मर्ज़ी का खेल ठहरा! 
                    ठहरा कि नहीं ठहरा? अगर नहीं तो कौन जानता है, भेंट भी होती या 
                    नहीं। आप 'भरती होजा फौज में, ज़िंदगी है मौज में' गाते-बजाते, 
                    छुट्टी काटकर, चल भी देते।''
 प्रेम है कि नफ़रत है, जहाँ 
                    शराब कुछ भीतर तक उतरी, तहाँ आदमी की असलियत बोलने लगती है कि 
                    वह दरअसल है क्या। इस वक्त कम-से-कम खीमा साथ है, तो कुछ घर का 
                    सा वातावरण है। कहीं टनकपुर में ही अतक गए होते, तो फिर वही 
                    आधे अंग का खाना-पीना और सोना। केप छोड़ा था, तब से ही लगातार 
                    यही हुआ कि संपूर्णता नहीं है। प्रत्येक क्षण किसी की स्मृति 
                    है और, बस थोड़े-से फासले पर साथ-साथ चल रही है। पर मायामयी 
                    छाया को शरीर धारण करने में अभी भी बहुत समय लगना है। कल जाकर 
                    गाँव पहुँचेंगे, तब ही यह व्याकुलता थमेगी।  ''जब तक सुदर्शनचक्र हाथ में 
                    है, तब तक सोचा है! इसकी छोटे मुँह बड़ी बात मान लेना, दाज्यू! 
                    कौन हसबैंड ऑफ मदर झूठ बोल रहा है! खीमसिंह ड्राइवर का नाम 
                    लेकर इन्क्यावरी कर सकता है, हर शख्स, जो चलना है टनकपुर-सोर 
                    की दस लाइन में, जहाँ कि ज़रा-सा बेलाइन हुए आप, श्रीमान जी तो 
                    समझिए कि मुरब्बा तैयार है!'' कहते हुए, खीमसिंह ने भुटुवे की 
                    प्लेट उठाकर, उसमें लगा तेल-मसाला चाटना शुरू कर दिया, तो 
                    मध्यम कोटि के सरूर में सूबेदार का ध्यान गया सीधे इस बात पर 
                    कि रास्ते में जाने कितनी बार तो सचमुच यही झस्-झस् हुई थी कि 
                    कहीं ऐसा न हो आइडेंटिटी-कार्ड साथ में रहता है, शिनाख्त ज़रूर 
                    पहुँच सकती है, लेकिन आदमी की जगह, सिर्फ़ उसकी शिनाख्त का 
                    पहुँचना कितना ख़तरनाक हो सकता है, इस बात की तमीज़ तो ससुरे 
                    इस सृष्टि के सिरजनहार तक को नहीं रही। एक खूबी इस चीज़ में 
                    है। एकदम लाइन के पार नहीं निकल जाए आदमी, तो पुल पर का चलना 
                    है। नीचे आपके मंथर गति की नदी बह रही है और आस-पास के पहाड़ 
                    ससुरे ऐसे घूर रहे हैं, जैसे कि घरवाली मायके जाती हो। कल्पना 
                    अगर किसी चिड़िया का नाम है, तो ठीक ऐसे ही मौके पर पंख खोलती 
                    है। जितनी बार खतरनाक मोड़ पड़ते थे, उतनी ही बार सूबेदारनी 
                    जंगल में हिरनी-जैसी व्याकुल होती जान पड़ती थीं, क्यों कि 
                    ध्यान में तो बैठी रहती हैं वही। और भीतर-ही-भीतर दोनों हाथ 
                    बार-बार इसी प्रार्थना में उठ जा रहे थे कि -- हे मइया, हाट की 
                    कालिका!  ''औरत है कि देवी है -- 
                    माया-मोह और भय-भीति का ही सहारा है। अटैची में चमचमाता लाल 
                    साटन डेढ़ मीटर रखा हुआ है और पौने इंची सुपरफाइन गोट और 
                    सितारे। चोला मइया का सूबेदारनी खुद अपने हाथों तैयार करेगी। 
                    जब तक मइया का ध्यान है, तब तक रक्षा ज़रूर है। नहीं तो, फौज 
                    की नौकरी में कौन जानता है कि सरकार ने कब दाना-पानी छुड़ा 
                    देना है। कैवेलरी की जिंदगानी है। जीन-लगाम ही अंगवस्त्र है। 
                    पिछले साल अचानक ही कैसा ब्लूस्टार ऑपरेशन हो गया और कितने वीर 
                    जवान राष्ट्र को समर्पित हो गए। अग्नि को भी समर्पण चाहिए। 
                    राष्ट्र की ज्योति जली रहे।  अब नैना सूबेदार का मन हो रहा 
                    था, एक प्लेट भुटुवा और मंगा लें, फिर चाहे थर्मस तक भी नौबत 
                    क्यों न आ पहुँचे। जाने को तो यह जिन्दगी ही चली जाने के लिए 
                    ही है, लेकिन कुछ वक्त ऐसे ज़रूर आते हैं, जो चाँदी के सिक्कों 
                    की तरह बोलते मालूम पड़ते हैं कि हम साथ रहेंगे। अब जैसे कि 
                    रूक्मा सूबेदारनी का ही ध्यान है, यह मात्र एकाध जनम तक ही साथ 
                    देने वाली वस्तु तो नहीं है। पहले कैसे धोती के पल्ले में नाक 
                    दबा लेती थीं सूबेदारनी साहिबा, पिछली बार की छुटि्टयों में 
                    निमोनिया की पकड़ में थीं, तो दो चम्मच ब्राण्डी पिलाना मछली 
                    का मुँह खोलकर, पानी का घूँट डालना हो गया। बाद में खुद कहने 
                    लगीं कि खेत-जंगल के कामों से टूटता बदन कुछ ठीक हो जाता है।
                     चूँकि भुगतान करने का ज़िम्मा 
                    खीमसिंह ने लिया, इसलिए संकोच था कि यह ज़ोर डालना हो जाएगा, 
                    मगर अपने भीतर की भाषा खीमसिंह में फूट पड़ी --''सूबेदार 
                    दाज्यू, भुटुवा बहुत ज़ोरदार बना ठहरा। एक प्लेट और लाता 
                    हूँ।'' 
                    आखिर-आखिर थर्मस खंगाल कर पानी लेना पड़ा, लेकिन न खीमसिंह आपे 
                    से बाहर हुआ, न सूबेदार। धीरे धीरे जाने कहाँ-कहाँ की फसक-फराल 
                    लगाते में, रिमझिम-रिमझिम जज्ब होती चलीं गई। कैंप की कैटीन से 
                    बाहर निकलने की सी निश्चिंतता में, दोनों अब भोजन प्राप्त करने 
                    ढाबे की बेंच तक पहुँचे, तो देखा- ढाबे की मालकिन ही पराठे 
                    सेंक रही है और इतना तो खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि 
                    यहाँ के खाने में रस है। औरत भी क्या चीज़ है, साहब। जो स्वाद 
                    सिल पर पिसे मसाले का, सो पुड़िया में कहाँ हैं। और पराठे 
                    स्साला कोई मर्द सेंक रहा हो, तो घी चाहे जितना लगा लें मगर 
                    यहा भुवनमोहिनी आवाज और हँसी कहाँ से लाएगा? इधर पराठा बेलती 
                    हैं, सेंकती है और उधर मज़ाक भी करती जाती है कि सूबेदारनी 
                    बहुत याद आ रही होंगी? कहाँ-कहाँ तक फैला दिया इसे भी, फैलाने 
                    वाले ने, जहाँ देखी, वैसी ही आभा है। जहाँ आप जल रहे, जाने कब 
                    शक्कर हो गई। बोलती है और अचानक ही हँस देती है, तो दुकानदारी 
                    करती कहाँ दिखाई देती है। कैसे पलक झपकते में दाँव लगा दिया कि 
                    'आदमी तो दूर देश और बरसों का लौटा ही चीज होता है।' -- 
                    प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुई में भी एक आँच हैं। वातावरण में 
                    घर की सी उष्मा मालूम देने लगी। 
 "हाँ, हाँ" कहने के सिवा और क्या कहना हुआ। तीन साल के बाद 
                    लौटने में तो अपने इलाके का इस पेड़ से उस पेड़ की तरफ 
                    कूदता-फाँदता बन्दर भी अपना-सा लगता है। यह तो अन्नपूर्णा की 
                    सी मूरत सामने है। होने को तो कुछ सुरूर 'थ्री-एक्स' का भी 
                    जरूर है, मगर जब तक भीतर की धारा से संगम ना हो, नशा चाहे 
                    जितना हो ले, यह दिव्यमनसता कहाँ।
 चुल्हे की आँच में वह किसी वनदेवी की प्रतिमा की-सी छवि में 
                    हैं। सोने का गुलुबंद झिलमिला रहा है। पराठा पाथते में हाथों 
                    की चूड़ियाँ बज रही है। बीच-बीच में माथे पर के बाल हटाने को 
                    बायीं कुहनी हवा में उठाती है, तो रूक्मा सूबेदारनी की नकल 
                    उतारती-सी जान पड़ती है। कांक्षा हो रही है, दो के सिवा और कोई 
                    उपस्थित न हो। कोई-कोई समय जाने कैसी एक उतावली-सी भर देता है 
                    भीतर कि कहीं यह बीत न जाए।
 नैनसिंह 
                    सूबेदार को एक-एक ग्रास पहले पर्वत, फिर राई होता गया। आँखों 
                    की दुनिया अलग होती गई, हाथ-मुँह-उदर की अलग। खीमसिंह को तो, 
                    शायद, यह भ्रम हुआ हो कि थ्री एक्स ने भूख का मुँह खोल दिया 
                    है, लेकिन सूबेदार को जान पड़ा कि यह अकेले का खाना नहीं। बस, 
                    यही फिर सूबेदारनी का ही सामने बैठा होता-सा प्रतीत हुआ नहीं 
                    कि डकार भी आ गई। गिलास-भर पानी एक ही लय में गटकते, सूबेदार 
                    हाथ धोने नल की तरफ बढ़ गए। 
 कुछ क्षण होते हैं, विस्तार पकड़ते जाते हैं और कुछ विस्तार, 
                    जो धीरे-धीरे, क्षणिक होते जाते हैं, रास्ते का एक दिन कटना 
                    पर्वत, 'लेकिन घर पर महिने-भर की छुटि्टयाँ कपूर हो जाती है। 
                    पक्षियों-सा उड़ता समय कान में आवाज देता रहता है, लो, आज का 
                    दिन भी बीता तुम्हारा। अब बाकी कितने हैं।
 बाबू ने थोड़े आँखर जागर गा तो दिया, अपशकुन क्यों करते हो 
                    कहने और सूबेदारनी बहू की गाई न्योली के कुछ बन्द सुन लेने पर, 
                    लेकिन आखिर तक उनका यह अफसोस गया नहीं कि जितनी रक़म इस फोटू 
                    कैमरे और ट्रांजिस्टर-टेपरिकार्डर में लगा दिए सूबेदार ने, 
                    उतने में घर के कितने जरूरी-जरूरी काम निबट जाते। अलबत्ता 
                    जर्सी, सूटों और थ्री एक्स की तीन बोतलों से उनकी आत्मा जरूर 
                    प्रसन्न हो गई कि "यार, पुत्र, जाड़े की मार से बचाने को आ गया 
                    तू।"
 चार सेल वाला टार्च भी उन्हें बहुत जमा और दस-पाँच दिन बीतते न 
                    बीतते तो खुद ही इस मजेदार मूड़ में आ गए कि -- यार, पुत्र, 
                    पैसा तो स्साला हाथ का मैल ठहरा! पुरूष की शोभा ठहरी जिंदादिली 
                    और रंगीनी! ले, आज तू भी क्या याद करेगा, चार आँखर भगवती जागरण 
                    पूरी श्रद्धा से कर देता हूँ। क्या करता हूँ कहता है तू, 
                    रिकार्ड ऑन करता हूँ? -- तो कर फिर ऑन -- हरी भगवान जी, प्रथम 
                    ध्यान मैं किसका धरता हूँ? तो ध्यान धरता हूँ, उस चौमुखी 
                    थिरंचि विधाता का, मइया महाकाली, जिसने कि यह अपूर्व सृष्टि 
                    रची और आकाश की जगह पर आकाश, धरती की जगह धरती और पहाड़ की जगह 
                    पहाड़, नदी की जगह नदी, अग्नि की जगह अग्नि और क्या नाम, माता 
                    गौरी शंकरी छप्परधारिणी, कि पानी की जगह पानी उत्पन्न किया। और 
                    कि फूल को पत्तों, दूध को कटोरे के आधार पर रखा। हाड़-माँस के 
                    पुतले में रखी प्राणों को संजीवनी। अहा री मइया सिंहवाहिनी -- 
                    कैसी अपरम्पार हुई सृष्टि कि सारे ब्रम्हाण्ड में एक महाशब्द 
                    व्याप्त हो गया। मनुष्य, तो मनुष्य हुआ, पाताल में का पक्षी भी 
                    'मैं यहाँ, तू कहाँ' गाता दिखाई दिया! कहीं ऊँचा हिमालय रखा, 
                    कहीं मैला समुन्दर कहीं धूप रखी, कहीं छाया। कहीं मोहिनी रखी, 
                    कहीं माया। विरंची के बाने सृष्टि रची, विष्णु के रूप पोषण 
                    किया और शिव के रूप किया संहार -- दूसरा स्मरण तेरा है, माता 
                    भगवती, कि तूने भी जब गौरी पार्वती से माया का रूप 
                    महाभद्रा-महाकाली रखा, तभी स्थापना हुई तेरी भी हाट का कालिका, 
                    घाट की जोगिनी के रूप में। घर को घरिणी तू हुई, वन को हिरणी। 
                    पूत को माता हुई, पिता को कन्या कुआँरी --" बाबू देवी जागरण गाए जा रहे थे। जाने कब गिलास में बाकी बची रम 
                    की एक ही घूँट में चढ़ाकर, खूँटी पर से हुड़का भी उतार लिया 
                    उन्होंने और 'दुड़-तुकि-दुड्-दुड्' का लहरा लगाते, पूरी तरह लय 
                    में हो गए। उनके माथे पर की चुटिया तक रंग में आ गई।
 पूरी पट्टी में कौन है उनके मुकाबले में भगवती महाकाली का 
                    जागरण रचाने वाला? लेकिन नैना सूबेदार का ध्यान तो 
                    'कन्या-कन्या' सुनते ही इस तरफ चला गया, तो फिर लौटना मुश्किल 
                    हो गया कि आज तो उन्नीसवाँ दिवस, उन्होंने तो घर पहुँचने के 
                    पहले ही दिन मजाक-मजाक में सूबेदारनी के पाँव ही पकड़ लिए थे 
                    कि -- 'भगवती, कन्या ही देना' हाँ, तरंग तो कुछ तब भी जरूर रही 
                    होगी लेकिन दृष्य भी उत्पन्न तभी होता है, जबकि भीतर कोलाहल 
                    हो। जागर में भी तो यही बताया बाबू ने कि प्रथम तो उदित हुआ 
                    शब्द, तब कहीं जाके सूरज? इसी बात पर तो, खीमा के साथ ट्रक में 
                    की जात्रा की तरह, फिर अचानक हँसी फूट पड़ी और बाबू ने समझा कि 
                    कुछ ज्यादा चढ़ गई होगी। एक-दो बन्द और गाकर, हुड़के की पाग को 
                    गले से उतार कर, हुड़के में ही लपेट दिया, "कल का दिन बीच में 
                    है, नैन ! परसों शनिवार -- तीन दिन का जागर मइया हाट की कालिका 
                    के दरबार में लगना ही है। जा, सो जा, बहू रास्ता देखती होगी। 
                    मइया के दरबार में देखना कैसा जागर लगाता हूँ। आखिरी जागर होगा 
                    यह " बुढ़वा जी बदमाश हैं। 'बच्चे रास्ता देखते होंगे' नहीं कहते। 
                    क्या कर रहे थे उस दिन कि जीवन की चक्की का एक पाट जाता रहा, 
                    एक रह गया। माँ को परमधाम गए ठीक-ठीक कितने साल बीते होंगे?
 
 ज्यों-ज्यों छुटि्टयाँ पूँछ रहती जाती है, बीता और विस्तार 
                    पाता चल रहा है। चंपावत में रात कैसी बीती थी? भीतर-भीतर कोई 
                    यहाँ तक जोर बाँधने लगा था कि राइफिल की नोक पर सामने बिठाए 
                    रखो इस औरत को और बताओ इसे कि रोम-रोम में जो व्याकुलता जगाए 
                    चली गई हो, इसका देनदार कौन है? हवा की जगह आँधी का रूप रखती 
                    खुद गायब हुई जा रही हो, और नैनसिंह सूबेदार पेड़ की डालों से 
                    लेकर पहाड़ की चोटियों तक काँपता पड़ा रह गया है, रात के इस 
                    अनन्त लगते हुए-से सन्नाटे में? रूप भी शरीर से है, इसे तुम 
                    क्या नैना सूबेदार से कुछ कम जानती होगी भगवती? आँखो से लाचार 
                    खींचता है, बलवान तो हाथों से काम लेता है।
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