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लन्दन में ठण्ड पड़ना कोई अनहोनी बात नहीं है। ऐसे सर्द देश के ठण्डे दिल वाले लोगों के बीच बाऊ जी को अपना जीवन को शुरू करना था। बाऊ जी ने बँटवारे का दर्द सहा था। परदेस के अनजान वातावरण में जीवन को स्थापित करने की चाह ! बाऊ जी में ग़ज़ब का आत्मविश्वास। बाऊ जी यह भी समझते थे कि भारत की पढ़ाई को यहाँ कोई कुछ नहीं समझता। इसलिए सुबह नौकरी और रात को पढ़ाई। इस देश की डिग्री हासिल करनी है।

जीवन में कुछ बनने का जुनून। और मुकाबला उस समाज से, जहाँ बड़े बड़े अक्षरों में लिखा होता 'कुत्ते, काले और आयरिश के लिए प्रवेश वर्जित! यह प्रवेश वर्जन किराये पर मकान लेने, रेस्टॉरण्ट में भोजन करने, कॉलेज में पढ़ाई और नौकरी के लिए आवेदन जैसे सभी क्षेत्रों पर लागू होता।

पहले-पहले तो बाऊ जी को इंग्लैण्ड के लोगों की अंग्रेज़ी समझ ही नहीं आती थी। क्योंकि यहाँ अंग्रेज़ी तो कोई बोलता ही नहीं। कोई स्कॉटिश है तो कोई यार्कशरमैन, कोई कॉकनी बोलता है तो कोई अंग्रेज़ी के नाम पर कुछ भी बोल लेता है। किन्तु बी.बी.सी. पर बोली जाने वाली अंग्रज़ी तो गिने चुने अंग्रेज़ ही बोल सकते है। इस के बावजूद सभी बाऊ जी के अंग्रेज़ी बोलने के अन्दाज़ का मज़ाक उड़ाते। ऐसे विपरीत वातावरण में बाऊ जी ने अपने जीवन की शुरुआत की थी।

संघर्ष और काम में व्यस्त बाऊ जी फिल्मों के लिए समय निकाल ही लेते थे। हिन्दी फिल्मों में वे मोतीलाल और राजकपूर के प्रशंसक थे तो अंग्रेज़ी फिल्मों में वे पॉल न्यूमेन, मार्लन ब्राण्डो के अतिरिक्त चार्लदन हेस्टन की ऐतिहासिक फिल्में पसन्द करते थे। वैसे देखने के लिए तो जॉन वेन और जेम्स बॉण्ड की फिल्में भी देख ही लेते थे।

मैं बाऊ जी को देखने हर रोज नॉर्थविक पार्क हस्पताल जाता। यद्यपि लंदन मे रहने के कारण मेरी विचारधारा भी कुछ कुछ पश्चिमी ढंग की हो गई है, फिर भी जब क्लेयर ने मेरे रोज़ाना हस्पताल जाने पर शिकायत की तो मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, 'जेट्स, व्हाई डू यू हैव टू सी युअर फादर एवरी डे? अवर लाईफ इज गेटिंग डिस्टर्ब्ड!' अभी तो हमारी शादी नहीं हुई, बाद में क्या होगा?'

मैं क्लेयर को समझा नहीं पा रहा था कि मेरा बाऊ जी को हस्पताल देखने जाना मेरे व्यक्तित्व का एक अंग ही है। बाऊ जी हमारे लिए क्या हैं, यह मैं उसे कैसे समझाता। बाऊ जी के बिना जीवन के विषय में सोच कर ही रीढ़ की हड्डी में सनसनी दौड़ जाती है। कई बार तो मैं हस्पताल जा कर भी बाऊ जी की ओर देखने का साहस नहीं जुटा पाता। जैसे मुझ में सच्चाई का सामना कर पाने की हिम्मत चुकती जा रही हो। फिर अचानक एक अपराध बोध मेरे मन में घर बना लेता हैं। मैं कई बार बाऊ जी से बात करने का प्रयास भी कर चुका हूँ, किन्तु सामने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होती। बाऊ जी का शरीर इतना दुबला हो गया है कि अब तो लगने लगा है जैसे हम उनसे न मिल कर किसी अन्जान व्यक्ति से मिल रहे हो।

दो महिने तक बाऊ जी हस्पताल में रहे। इन दो महीनों में माँ ने न जाने कितने उपवास रखे होगे। शिव चालिसा, हनुमान चालिसा तो पढ़ती ही थीं, महामृत्युंजय मंत्र का जाप प्रतिदिन १०८ बार करतीं। न जाने कितने यंत्र और तावीज अंबाले से मंगवाए। जब तक हस्पताल वाले बाहर निकलने को न कहते बाऊ जी के पास ही रहतीं। बाऊ जी वापस घर आए तो नीचे के एक कमरे को ही उनका बेडरूम बनाना पड़ा। लंदन में बेडरूम और बाथरूम तो पहली मंज़िल पर होते हैं न। बाऊ जी की व्हील चेयर अन्दर बाहर आसानी से लाई जा सके, इसलिए मुख्य द्वार पर रैम्प भी लगवाने पड़े। बाऊ जी की आवाज़ कुछ हद तक वापस आ गई और शारीरिक हरकत भी किन्तु उनके मस्तिष्क को जो क्षति पहुँच चुकी थी, उसका अन्दाज हम पहले से नहीं लगा पाए थे।

एक हँसता खेलता चार्टर्ड एकाउंटेण्ट जो बड़े आदमी की बड़ी से बड़ी समस्याएँ चुटकियों में हल कर सकता था, आज निरीह, असहाय और लाचार बना बैठा था। आज कोई ठहाके नहीं, पाईप नहीं, और ग्लैनफ़िडिश भी नहीं। मित्र की हालत का असर सत्येंद्र अंकल पर भी हुआ - बाई पास सर्जरी!

अब बाऊ जी समझ चुके थे कि स्थितियों पर उनका नियंत्रण नहीं रहा। इस बात की झल्लाहट भी उनमें दिखाई देती थी - नहाना, कपड़े बदलना, बाल बनाना, नाखून काटना, खाना खाना यानि कि हर बात के लिए वे किसी न किसी पर निर्भर थे - विशेषकर माँ पर। और यही उन्हे कचोटता था।

बाऊ जी के चेहरे और व्यक्तित्व में इतना अधिक परिवर्तन आता जा रहा था कि उन्हें पहचानना और भी कठिन होता जा रहा था। एक विचित्र-सा अजनबीपन पैठ रहा था हमारे सम्बन्धों के बीच! सभी विषयों पर बातचीत बन्द हो गई थी। कैसे वे फिल्मों की बातें किया करते थे, अनगिनत पुस्तकों से उदाहरण देते थे जिन्हें कि उन्होंने रात-रात भर जाग कर पढ़ा था। भारतीय और ब्रिटिश राजनीति पर घड़ल्ले से बहस किया करते थे। जय प्रकाश नारायण की बहुत प्रशंसा किया करते थे। वे उन्हें नेहरू जी की ही तरह स्वप्नदृष्टा लगते थे। अब एक ही झटके में सब समाप्त। दिलीप कुमार की नाटकीय अदाकारी, मोतीलाल का सहज अभिनय और राजकपूर का निर्देशन, अब यह सभी विषय बाऊ जी के ज्ञान से वंचित रह जाएँगे। हस्पताल से वापस आने के बाद से वे अपने ही नाम की प्रतिछाया बन कर रह गए थे।

मेरे दिमाग में हर समय बाऊ जी के कहे शब्द बजते रहते हैं। 'मुझे मार डाल बेटा। अब और नहीं सहा जाता। वे माँ के सामने ऐसे शब्द नहीं बोलते। मैं रातों को नींद से हड़बड़ा कर उठ बैठता हूँ दु:स्वप्न मुझे परेशान किए रहते हैं। कभी मुझे महसूस होता है कि मैंने बाऊ जी के चेहरे पर तकिया रख कर उनका दम घोंट दिया है तो कभी उन्हें मुक्ति दिलवाने के लिए बेहिसाब नींद की गोलियाँ खिला देता हूँ। मुझे समझ ही नहीं आता कि मैं करूँ क्या। जो संस्कार मुझे माँ और बाऊ जी से मिले हैं उनके रहते तो मैं किसी को कष्ट तक पहुँचाने के बारे में नहीं सोच सकता, किसी को मारना तो दर किनार रहा। फिर भला मैं अपने ही पिता की जान कैसे ले सकता हूँ? मैं यह तो कर सकता हूँ कि कोई मौत की कगार पर खड़ा हो तो उसे बचाने के लिए जी जान से जुट जाऊँ, किन्तु किसी को मौत देना।

मैं समझ रहा था कि बाऊ जी का दर्द शारीरिक होने के मुकाबले मानसिक कहीं अधिक है। किन्तु मैं उनकी बात कैसे मान लेता? युथेनेसिया यानि कि रहम या दया वाली मौत के विरुद्व तो बाऊ जी स्वयं कितनी बार पुरज़ोर दलीलें दे चुके थे, 'मैं कहता हूँ आप भगवान कैसे बन सकते हैं। जब जीवन देना आपके बस में नहीं तो आप जीवन ले कैसे सकते हैं। डाक्टरों को क्या मालूम कि मरीज़ कब ठीक हो जाए। क्या हमने चमत्कार होते स्वयं नहीं देखे?' डाइनिंग टेबल पर बाऊ जी इस विषय पर कितनी बार अपने विचार प्रकट कर चुके थे। यहीं वह समय होता था जब बाऊ जी फ़ांसी की सजा, पुलिस को हथियार दिए जाना और ब्रिटेन और अमरीका के सम्बन्धों पर बाऊ जी हमसे बात किया करते थे।

धीरे-धीरे बाऊ जी यह बात समझते जा रहे थे कि मैं उनकी बात मानने वाला नहीं हूँ। किन्तु उन्हें यह बात समझ नहीं आ रही थी कि उनका बार बार मुझे यह बात कहना कितना विचलित कर रहा है भीतर ही भीतर मैं कितनी बार मर रहा हूँ। उन्हें मारने का अर्थ मेरे लिए आत्महत्या ही तो है। उनके भीतर जो मैं जिन्दा हूँ, उसकी हत्या भला मैं किस प्रकार कर सकता हूँ?

बाऊ जी ने निर्णय ले लिया था। उन्हें सदा ही स्थितियाँ अपने नियंत्रण मे लेना सही लगता था। अब भी उन्होंने ठीक वैसा ही किया। उन्होंने बिना किसी से कुछ कहे खाना पीना छोड़ दिया। उनका शरीर बस एक कंकाल बनता जा रहा था। वे बिना हिले डुले बिस्तर पर पड़े रहते, घंटों शून्य में ताकते रहते। उनकी ओर देखने भर से ही मन में दर्द होने लगता था।

बाऊ जी के इस सत्याग्रह ने घर में सब की पीड़ा और तकलीफें इतनी अधिक बढ़ा दी थीं कि परिवार का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को दोषी महसूस करने लगा था। मेरे मन में कभी कभी यह चाहत भी सिर उठती कि किसी भी तरह घर का माहौल फिर से नॉर्मल हो जाए। कई बार बाऊ जी पर क्रोध भी आता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। दुनियाँ में कितने लोगों को पक्षाघात होता है। वे सब जीवन के साथ किस आसानी से समझौता कर लेते हैं। किन्तु बाऊ जी ने तो। अचानक मैं स्वयं ही अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता, शर्म से अपना सिर छुपा लेता, दु:खी हो जाता। यदि मेरा यह हाल था तो माँ किन हालात से गुज़र रहीं होंगी।

अब तो मैं भी मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगा था कि किसी भी तरह बाऊ जी के जीवन का अंत हो जाये। मैं उन्हें इस प्रकार घिसटते, तड़पते नहीं देख सकता था। मुझे अहसास हो चुका था कि बाऊ जी की तबीयत में अब कोई सुधार नहीं आने वाला है। मैं सुबह जब नींद से जागता तो मन के किसी कोने में यह उम्मीद-सी लगी होती कि समाचार मिलेगा कि बाऊ जी चल बसे।

चार वर्ष बीत गए इसी समाचार की प्रतीक्षा में। इस बीच क्लेयर मेरी पत्नी बन चुकी थी। बाऊ जी मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़े थे और मेरे लिए निर्णय लेने की घड़ी आ पहुँची थी। मुझे जीवन और मृत्यु में से एक का चुनाव करना था। किन्तु यह निर्णय बाऊ जी के विषय में नहीं था। मेरी पत्नी क्लेयर माँ बनने वाली थी। बाऊ जी के मन में भी एक बार फिर से जीने की तरंग जाग उठी थी। वे मेरे बच्चे को गोद में लेना चाहते थे। पुरानी कहावत है कि असल से सूद अधिक प्यारा होता है। वे भी अपने सूद को देख लेना चाहते थे, महसूस कर लेना चाहते। उस रात उन्होंने मुझे बुला कर कहा था, 'जीतू मैं कुछ दिन और जीना चाहता हूँ यार। तेरा बेटा देख कर मरूँ तो चैन से मरूँगा।' मुझे पल भर के लिए महसूस हुआ कि बाऊ जी में जिजीविषा एक बार फिर जाग गई है। मैं चहका था, 'बाऊ जी जुड़वाँ होने वाले हैं। जुड़वाँ। एक दादी का एक दादा का।'

एक हल्की फीकी-सी मुस्कान ! क्लेयर को अभी छठवाँ महिना ही चल रहा था। उसे जचगी के दर्द होने लगे। डाक्टरों का कहना था कि डिलिवरी तत्काल करना आवश्यक था क्योंकि गर्भाशय में ही बच्चों की मृत्यु हो जाने का भय था। सिजीरियन ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प था। अल्ट्रासाऊण्ड के माध्यम से यह पता चलते ही कि जुड़वाँ पुत्र होनेवाले हैं हमने तो उनके नाम भी रख लिए थे - भारतीय नाम हरीश और आनंद, किन्तु क्लेयर के लिए हैरी और एण्डी। अपने मित्रों में तो वे इन्हीं नामों से जाने जाते।

किन्तु डाक्टरों के एक प्रश्न ने हमारे सामने एक बिकट स्थिति पैदा कर दी, 'देखिये, मिस्टर मेहरा, फैसला आप को करना है। इन बच्चों के जीवित रहने के कोई विशेष आसार नहीं हैं। फिर भी हम कोशिश करके देख सकते हैं। बात यह है कि यह दोनों जितना समय भी जीवित रहेंगे, सुइयों और दवाइयों के बल पर ही। यदि हम कुछ भी न करने का निर्णय ले लें, तो हम इन दोनों को मुक्ति दे सकते हैं।' सूजन रो दी। वह किसी भी तरह अपने बच्चों को बचा लेना चाहती थी।

मेरे सामने एक बार फिर से जीवन और मृत्यु का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। बाऊ जी की याचना भरी आँखे मुझ में दहशत पैदा किए जा रही थीं। लगा जैसे बाऊ जी ही एक बार फिर मेरे कानों में फुसफुसा रहें हों, 'मुझे मार डाल बेटा। मुझे मार डाल' और मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ महसूस कर रहा था। जो काम मैं अपने बाऊ जी के लिए नहीं कर पाया क्या अपने होनेवाले बच्चों के लिए कर पाऊँगा। क्या उन नन्हीं उँगलियों को उन गुलाबी होठों को उन कमज़ोर बालकों को मुक्ति दिलाना मेरे लिए संभव हो पाएगा? समस्या कठिन है। हल कहाँ से ढूँढू?

क्लेयर की ओर एक बार फिर देखा, नज़रों ही नज़रों में कुछ समझाया। किन्तु क्लेयर आज जिस स्थिति में थी उसे मैं भली-भाँति समझ रहा था। क्लेयर के हाँ करने का तो प्रश्न ही नहीं था। मैंने स्वयं ही डाक्टर को अपना निर्णय सुना दिया। हैरी और एण्डी अब इंजेक्शनों का दु:ख नहीं सहेंगे उन्हें मुक्ति अवश्य मिलेगी।

बाऊ जी के लिए यह समाचार जानलेवा सिद्ध हुआ। उनकी मुक्ति भी हैरी और एण्डी के साथ ही साथ हो गई।
मेरे मन में विचित्र-सा अपराध बोध घर करने लगा था। मैं पाँच वर्ष तक अपने बाऊ जी को नरक में घिसटता देखता रहा, उनकी मुक्ति के लिए कुछ नहीं कर पाया। किन्तु अपने उन पुत्रों के लिए मैंने इतनी जल्दी निर्णय कैसे ले लिया। क्या मैं अपने बाऊ जी को अपने अजन्मे पुत्रों से कम प्यार करता था?

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15 मई 2001