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मेरा चेहरा देखते ही मेरे गले में झूल गई - "पकड़ी गई न! आप लोगों ने सोचा होगा, चुप्पी लगा जाएँगे तो सस्ते में छूट जाएँगे। ऐसा नहीं होगा। पापा जी, तीन-चार कड़कते नोट तैयार रखिए। हम लोगों की नियत आज अच्छी नहीं हैं।"
"तुम्हें कैसे पता चला बेटे! हमें तो याद ही नहीं रहा था।" इन्होंने गद्गद होते हुए पूछा।
"लंच के समय ध्रुव की डायरी उलट-पलट रही थी। तब नज़र पड़ी। उसकी तो ऐसी ख़बर ली है मैंने। इतनी इम्पार्टेंन्ट चीज़ भूल गया।"

"ध्रुव है कहाँ?" मैंने पूछा।
"शिव को लेने कॉलेज गया है। हमने तड़ी मारी है तो उसे पढ़ने थोड़े ही देंगे। आज तो हंगामा होगा।"
थोड़ी देर में वे दोनों भी आ गए। फिर तीनों में मिलकर हम दोनों की आरती उतारी, पैर छुए और उपहार भी दिए। मेरे लिए प्योर सिल्क की साड़ी और पापा के लिए पुलोवर। उसी समय दोनों चीज़ों का उद्घाटन करना पड़ा। फिर अमरीका से उपहार में मिले कैमरे से घर पर रंगीन तस्वीरें खींची गईं। फिर सब लोग फेमस स्टूडियो गए। वहाँ एक ग्रुप फोटो के लिए मीता पारंपारिक बहू की वेशभूषा में सजी थी और मेरे पीछे खूब अच्छे से सिर ढककर खड़ी थी। शिव बार-बार उसे छेड़ रहा था।

फर्स्ट शो हम लोगों ने 'अंगूर' देखी। फिर ब्ल्यू डायमंड में खाना खाया। क्वालिटी में आइसक्रीम और बनारसी पानवाले के यहाँ का पान खाकर लौटे ते रात के ग्यारह बज रहे थे। बेतरह थक गई थी मैं, पर यह थकान भी कितनी मीठी थी!
"बाप रे, थक गई मैं तो! इन लोगों ने सचमुच एक हंगामा कर डाला। अब इतनी उछल-कूद के लायक थोड़े ही रह गए है हम।" रात मैंने हँसते हुए कहा।
पर देखा, ये चुप हैं और आग्नेय दृष्टि से मुझे घूर रहे हैं।
"क्या हुआ?" मैंने घबराकर पूछा।
"वह लड़की बेचारी माँ-माँ कहकर मरी जाती है, और तुम?"
"क्यों, मैंने क्या किया है?" मैंने खीझकर कहा। मन में छाई खुशी भाप बनकर उड़ने लगी थी।
"मुझसे क्या पूछती हो? अपने-आप से पूछो कि तुमने क्या नहीं किया है! वह बेचारी बिना माँ की लड़की!"
"बिना माँ की हैं तो मैं क्या करूँ!" मैं एकदम फट पड़ी। शाम ममता का एक सोता फूट पड़ा था, अन्तस में वह जमने लगा था, "बिना माँ की है तो मैं क्या करूँ, यह तो बताइए! गोद मे लेकर घूमूँ या लोरी गाकर सुनाऊँ?"

उन्होंने जवाब नहीं दिया और करवट बदलकर लेट गए। इतना गुस्सा आया। यह अच्छा तरीका है, जवाब देते न बने तो बात ही खत्म कर दो!
"अजीब मुसीबत है," मैं बुदबुदाई, "दिनभर घर मे धींगामुश्ती चलती रहती हैं। छोटे-बड़े का भी लिहाज नहीं रखा जाता। फिर भी मुझे चैन नहीं हैं। पराई लड़की पर तो लोगों को इतनी ममता हो जाती है! साल-छ: महीने में अपनी जाई घर आती है, उसका तो कभी ऐसा लाड़-दुलार नहीं होता।
लाड़ दुलार क्या खाक करूँगा? वह तो तुम्हारे अनुशासन में पली हुई बिटिया है। आज तक कभी खुलकर बात भी की है उसने मुझसे?" अब चुप रहने की बारी मेरी थी।

जनवरी के प्रथम सप्ताह में ध्रुव को अचानक छ: महीने की ट्रेनिंग के लिए जर्मनी जाने का आदेश मिला। घर में एक खुशी की लहर दौड़ गई। कितने सारे लोगों में सिर्फ़ उसी का चयन हुआ था। गर्व से हम लोगों के कलेजे गज-गज भर के हो गए थे।

ज़ोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो गई और मेरा दिल बैठने लगा। लड़का पहली बार इतनी दूर, परदेश में जा रहा था। और फिर नयी-नवेली बहू को पीछे छोड़कर जा रहा था।
"मीतू को भी क्यों नहीं ले जाते? घूम आएगी।" इन्होंने कहा था। लेकिन मीता ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। वह बोली, "बेकार रुपए फेंकने से क्या फ़ायदा पापा जी! ध्रुव का खर्च तो कम्पनी देगी। मेरा तो हमीं लोगों को उठाना पड़ेगा। कभी अपना भी चान्स आएगा। है न शिव?"

वह हमेशा की तरह हँसमुख बने रहने का भरसक प्रयास करती, पर कभी-कभी उसका चेहरा बेहद उदास हो आता। स्वाभाविक भी था। पर मुझे चिन्ता हो चली थी। आखिर मैंने एक दिन ध्रुव से कहा, "बेटे, तुम्हारे लौट आने तक मीता अपने पापा के यहाँ रहे तो कैसा है?"
"कहीं भी रह लेगी माँ! छ: महीने की तो बात है। पलक झपकते बीत जाएँगे। और सब-कुछ ठीक-ठाक रहा तो लौटते समय पन्द्रह-बीस दिन के लिए उसे बुला लूँगा। घूम-घाम लेंगे।"

उसने तो बात समाप्त कर दी थी, पर मेरी चिन्ता वैसी की वैसी बनी हुई थी। बच्चों के पापा का इन दिनों कुछ ठीक नहीं था। वह यहाँ उदास बनी रहेगी तो उसका सम्बन्ध सीधे मुझसे जोड़ देंगे। इसीलिए डर लग रहा था।

शिव और मीता उसे छोड़ने बम्बई तक गए थे। लौटकर मीता अपने पापा के यहाँ चली गई। उसकी भाभी के यहाँ लड़का हुआ था। फिर महीने-भर बाद भाभी अपने पीहर चली गई तो उसने घर की देखभाल के लिए वहाँ रह जाना चाहा तो हमने कोई आपत्ति नहीं की।
घर एकदम सुनसान हो गया था।

बच्चों के पापा ध्रुव से ज़्यादा मीता को मिस कर रहे थे। हर चौथे-आठवें दिन समधियाने पहुँच जाते। कभी घसीटकर साथ मुझे भी ले जाते। तब समधी जी चुटकी लेते, "अपने बच्चों के लिए कैसे दौड़-दौड़कर आ जाते हैं आप। मुझ गरीब की तो कभी सुध भी न ली।"
शिव भी अक्सर देर से घर लौटता। कभी भाभी के साथ शॉपिंग करनी होती थी या कभी उन्हें मूवी दिखानी होती थी।

कभी-कभार वह भी घर पर आ जाती, पर पहले का-सा तूफ़ान बरपा नहीं करती। हँसती - खिलखिलाती, पर उसमें पहले की-सी जीवंतता नहीं थी। जब वह चली जाती तो यह कहते, "कहा था, साथ चली जाओ। तब नहीं मानी, पैसे का मुँह देखती रही। अब मन-ही-मन घुल रही है।"

मार्च का अंतिम सप्ताह रहा होगा। एक रात इनके पेट में ज़ोर का दर्द उठा। पत नहीं कितनी देर से तड़प रहे थे। मेरी तो अचानक नींद खुली तो देखा, पेट पकड़े बैठे हैं। चेहरा सफ़ेद पड़ गया है।
"क्या हुआ?" मैंने घबराकर पूछा, "क्या पेट दर्द कर रहा है?"

उन्होंने जवाब नहीं दिया। मैं उठी, पानी गरम किया। रुई में हींग की डली लपेटकर उसे जलाया। फिर प्लेट में अजवायन, काला नमक, हींग और गरम पानी लेकर इनके पास आई। वे मना करते रहे, पर जब मैं बार-बार आग्रह करने लगी तो चिढ़कर बोले, "ज़रा बात तो समझा करो। वैसा दर्द नहीं है भाई!"
"फिर कैसा है?"
"मैं मैं दोपहर से बाथरूम नहीं गया हूँ।"
"और अब बता रहे हैं!" मैं फटी-फटी आँखों से उन्हें देखती रह गई।
शिव के पेपर्स चल रहे थे। पढ़कर शायद अभी-अभी सोया था, पर उसे जगाना पड़ा। उतनी रात जाकर वह डॉ. शुक्ला को लिवा लाया।
उन्होंने मुआयना किया और पूछा, "ये तकलीफ़ कब से है आपको?"
"जी, १५-२० दिन से थोड़ा कष्ट हो रहा था।"

इतना ताव आया मुझे। इतने दिनों तक चुप बने रहने में क्या तुक थी! शिव बोला, "माँ! यह समय गुस्सा करने का नहीं है। बाद में निपट लेना। पहले उन्हें सम्हालो।"
राम-राम करके वह रात बीती। सुबह भर्ती होना ही पड़ा। प्रोस्टेट की शिकायत थी। ऑपरेशन ज़रूरी था। इन्होंने पहले ही अपने आदेश सुना दिए :
प्राइवेट नर्सिंग होम नहीं जाएँगे।

सरकारी अस्पताल में भी प्राइवेट वार्ड नहीं लेंगे। जनरल में रहेंगे। इस ऑपरेशन के बाद नर्सिंग की बहुत ज़रूरत होती है। प्राइवेट वार्ड में कोई झाँकता भी नहीं। दस बार बुलाने जाना पड़ता है।

उनकी बात न मानने का कोई उपाय नहीं था। खजाने की चाबी उन्हीं के पास थी। ध्रुव यहाँ होता तो बात दूसरी थी, पर अब उतनी दूर से बुलाने का कोई मतलब भी न था।

जनरल वार्ड में जो एक रात गुज़ारी है - उफ! ज़िन्दगी-भर याद रहेगी। इनकी वैसी हालत में नींद आने का कोई प्रश्न ही नहीं था। पर आसपास के वातावरण ने मन को इतना बोझिल कर दिया कि सुबह उठकर लगा, मैं ही बीमार हूँ। और दुर्गन्ध अब भी याद आती है तो मन पर काँटे-से उग आते हैं। सुबह शिव कहीं से चाय लाया था मेरे लिए, पर घूँट भर भी गले से नहीं उतरी।

दस बजे ऑपरेशन होने को था। नौ बजे ही इन्हें स्ट्रेचर पर डालकर ले गए। मैं और शिव भी पीछे-पीछे चल पड़े। जहाँ तक जाने दिया वहाँ तक गए। फिर मैं वहीं बैठकर इष्टदेव का जाप करने लगी। शिव बेचारा दौड़-धूप में व्यस्त हो गया।
"नमस्ते बहिन जी!"
मैंने चौंककर देखा - मीता के पापा थे।
"आपने तो ख़बर भी नहीं की। इतने बेगाने हो गए हैं हम लोग !"
उनके स्वर में आक्रोश था, शिकायत थी। मैं क्या जवाब देती।
"वो तो मीतू अभी किसी काम से घर गई थी, तब पड़ोस के मेहता साहब ने बताया।"
"सब-कुछ इतना अचानक हो गया," मैंने अपराधी स्वर मे कहा, "शिव बेचारा एकदम अकेला पड़ गया था। सारी दौड़-भाग उसी के ज़िम्मे थीं।"
"यही तो मैं कह रहा हूँ। उसे अकेले सारी दौड़-भाग करने की क्या ज़रूरत थी! हम लोग किसलिए हैं? कल को ध्रुव सुनेगा तो क्या कहेगा?"

उनसे तो जो भी कहेगा, मुझे तो अपनी चिन्ता हो गई थी। ध्रुव मुझसे क्या कहेगा? इन पर इतना ताव आ रहा था। दर्द से तड़प रहे थे, पर मजाल है जो बटुए की पकड़ ज़रा-सी ढीली हो जाए। जनरल वार्ड में रहेंगे। वहाँ नर्सिंग अच्छी होती है - हुँह! अब इतने बड़े आदमी को उस नर्क में ले जाऊँगी तो कैसा लगेगा!
अपनी उस दुश्चिन्ता में यह पूछना भी याद न रहा कि मीता कहाँ है।

साढ़े ग्यारह बजे उन्हें थियेटर के पासवाले कमरे में लाकर रक्खा गया। ऐसे हट्टे-कट्टे, हँसते-बोलते व्यक्ति को इस तरह असहाय अवस्था में देखकर मेरी तो रुलाई फट पड़ी। मीता के भाई नरेश मुझे सहारा देकर बाहर ले आये और वापस बेंच पर बिठा दिया। असहाय-सी मैं वहाँ बैठी रही।

दो घंटे बाद उन्हें वार्ड में ले जाने की अनुमति मिली। ये दो घंटे मेरे लिए दो युग हो गए थे।
वार्ड में वापसी के समय काफिला जरा बड़ा था। घर-परिवार के लोग थे और स्टाफ के भी। ढेर-सी शीशियाँ स्ट्रेचर के साथ चल रहीं थीं और सब लोग उन्हें उठाए हुए थे।
"माँ, तुम सीढ़ियों से आ जाओ। लिफ्ट में तुम्हें परेशानी होगी।" शिव ने कहा तो मैं सीढ़ियों की ओर मुड़ गई।

हाँफती-हाँफती ऊपर पहुँची, तब तक स्ट्रेचर शायद वार्ड में पहुँच चुका था, क्योंकि गलियारे में उसका कहीं पता नहीं था। मैं वार्ड तक पहुँची ही थी कि नरेश जी की आवाज़ आई, "माँजी, इधर आइए।"
उनके पीछे चलती हुई मैं गलियारे के छोर तक पहुँची। डीलक्स रूम का दरवाज़ा खुला और खाली स्ट्रेचर थामे लोग बाहर निकले।
'यह कमरा!" मैंने अस्फुट स्वर में कहा।
"भाभी ने बुक करवाया है।" मेरा असमंजस ताड़कर शिव पास आकर फुसफुसाया।
"ये उसके बस की ही बात थी जी," उसके पापा गर्व से बता रहे थे, "सुपरिंटेंडेंट से जाकर भिड़ गई। खड़े-खड़े रूम अलॉट करवा लिया। बहुत लड़ाकू है यह लड़की।"
मैंने मीता की ओर देखा। वह चुपचाप इनके पलंग के पास खड़ी थी।

"घर पर तो तिनका भी नहीं उठाती, "नरेश बोले, "यहाँ आई है, तब से सफ़ाई में जुटी है। तीन बार तो घर के चक्कर लगा आई है।"
"ये सास जी को खुश करने के फार्मूले हैं।" समधी जी ने स्नेहसिक्त स्वर में कहा।

कमरा सचमुच धुला-पुछा चमक रहा था। दोनों पलंगों पर घर की साफ़ चादरें और तकिये रखे हुए थे। टेबल पर सफ़ेद टेबल क्लाथ था। अलमारी में काग़ज़ बिछे हुए थे। उसमें मेरे और इनके कुछ कपड़े तहाकर रक्खे हुए थे। चाय, शक्कर, कप, प्लेटें, माचिस कुछ भी नहीं भूली थी वह। बाथरूम में बाल्टी, मग, तौलिया, चौकी - सब व्यवस्थित ढंग से सजा हुआ था।
थोड़ी देर में स्टोव की घरघराहट शुरू हो गई। देखा, मीता चाय बना रही थी।

"माँ, चाय पी लीजिए।" थोड़ी देर में वह मेरे सामने खड़ी थी। कमरे में आने के बाद से उसने पहली बार बात की थी और उसका स्वर अत्यंत सपाट था।
"चाय! यहाँ?" मैंने एक बेमतलब-सा जुमला उठाया।
"तो कहाँ पीएँगी! क्या पापा को इस हालत मे छोड़कर आप घर जाएँगी?"

उसकी बात में तर्क था, पर उससे भी ज़्यादा वज़नदार उसकी आवाज़ थी। मैंने चुपचाप प्याला ओठों से लगा लिया। मेरे चाय लेते ही सबने जैसे राहत महसूस की, क्योंकि सभी थके हुए थे।
बहुत बेमन से प्याला उठाया था मैंने, पर सच कहूँ तो पीने के बाद जी एकदम हलका हो गया। सुबह से सिर भारी हो गया था। यह भी थोड़ा उतर गया।

पाँच बजे के करीब उन्हें कुछ होश आया। मीता उनके पास ही बैठी हुई थी। उसे देखकर उतनी पीड़ा में भी वे थोड़ा-सा मुस्करा दिए। तब मुझे अहसास हुआ कि सचमुच उनकी यंत्रणा बहुत भीषण रही होगी। नहीं तो क्या ऑपरेशन से पहले एक बार भी अपनी लाड़ली बहू को याद न करते?

"पापा, आप और भैया अब घर जाइये।" मीता का फरमान छूटा, 'रात को मेरा और माँ का खाना लेकर भैया आएगा। आप अब सुबह आइएगा।"
"मैं फल-फूल खा लूँगी।" मैंने हल्का-सा प्रतिवाद किया।
"आपके लिए पक्का खाना बन जाएगा।" उसने मेरी ओर बिना देखे जवाब दिया।
"वैसे बहन जी, चाहें तो हमारे साथ घर चलकर..."
"पापा, प्लीज!" उसने जैसे सारे विवाद को समाप्त करते हुए कहा और उन दोनों को जबरन घर रवाना किया। फिर शिव के साथ बैठकर उसने सारे पर्चे पढ़े और फिर शिव को दवाइयाँ लाने भेज दिया और खुद इनके पलंग के पास स्टूल खींचकर बैठ गई।

दूसरे पलंग पर मैं चुपचाप पड़ी रही। बोलने की शक्ति ही नहीं रह गई थी। दो रातों का जागरण था, थकान थी, तनाव था। कब झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। मीता ने खाने के लिए जगाया, तब जाकर आँख खुली।
समधी जी से रहा नहीं गया होगा। खाना लेकर खुद आ गए थे। बदले में लाड़ो की फटकार भी सुननी पड़ी। वे शिव का भी खाना लाए थे, पर मीता ने उसे अस्पताल में खाने नहीं दिया।
"तुम पापा के साथ घर जाओगे और सुबह पेपर के बाद ही यहाँ आओगे। समझे?"
"लेकिन भाभी - यहाँ " वह मिमियाया।
"यहाँ की चिन्ता मत करे। यहाँ मैं हूँ, माँ हैं, भैया है।"

शिव बहुत कुनकुनाया, पर आखिर उसे जाना ही पड़ा। उन लोगों को छोड़ने के लिए नरेश जी नीचे तक गए। मीता ने उनसे मेरे लिए पान मँगवाया। पान के बिना आज पूरा दिन हो गया था, पर मुझे याद ही नहीं आई थी। पर पता नहीं कैसे मीता जान गई थी कि खाने के बाद मुझे तलब ज़रूर आएगी।

खाने के बाद उसने मेरा बिस्तर ठीक किया। फिर बाथरूम में जाकर सारी प्लेटें-गिलास धो ड़ाले। दूध एक बार फिर गरम किया और सोने की तैयारी करने लगी।
"भैया, बारह बजे तक मैं एक झपकी ले लूँ। फिर ड्यूटी पर आ जाऊँगी। फिर चाहे आप पूरी रात सोये रहना।" उसने कहा और आरामकुर्सी में हाथ का तकिया बनाकर लेट गई।
नरेश जी पलंग के पास एक कुर्सी खींचकर बैठ गए। मेरे आराम में ज़रा भी खलन न डालते हुए दोनों भाई-बहन नाइट ड्यूटी निभाने को तत्पर थे। मुझे कैसा तो लगा।
"मीता!" मैंने स्नेहसिक्त स्वर में आवाज़ दी, "भैया आरामकुर्सी में लेट जाएँगे। तू इधर पलंग पर आ जा ना, दिन-भर खड़ी की खड़ी है।"

पता नहीं मेरी आवाज़ में कुछ था या उसने प्रतिवाद नहीं करना चाहा। वह चुपचाप मेरे पास आकर लेट गई। "आप सोने लगें तो मुझे जगा लीजिएगा भैया, "उसने कहा और आँखें मूंद ली। नरेशजी आरामकुर्सी पलंग के पास खिसकाकर उसमें लेट गए। कमरे में एक अजीब-सी शांति छा गई।

मैंने मीता की ओर देखा। पता नहीं क्यों उसे देखकर मुझे सविता की याद हो आई। दो बच्चों की माँ हो गई है, पर अब भी कभी-कभी उस पर बचपन सवार हो जाता है। माँ के पास लेटने का मोह हो आता है। उन क्षणों में वह एकदम नन्हीं सवि बन जाती हैं।

मेरे पास लेटी यह नन्हीं-सी-लड़की! इसका भी तो कभी-कभी मन होता होगा! तब किसके आँचल में मुँह छुपाती होगी। बड़ी बहन है, वह सात समन्दर पार इतनी दूर है। भाभी तो खुद ही लड़की है अभी।

वह मेरी ओर पीठ करके लेटी थी निस्पंद। सलवार-सूट उतारकर उसने नाइटी पहन ली थी। उसमें वह एकदम बच्ची-सी लग रही थी। दिनभर किसी उग्र तेज़ से दपदप करता उसका चेहरा अब एकदम निरीह, निष्पाप शिशु का-सा लग रहा था।

ममता का एक ज्वर-सा उठा मन में। एकदम उसे अंक में भर लेने की इच्छा हुई। पर संकोच से मैं बस उसकी पीठ पर, बालों पर हाथ फेरती रही। वह मेरे वात्सल्य के उद्रेक से अनजान वैसी ही निस्पंद पड़ी रही।

अचानक मेरी उँगलियाँ उसकी पलकों को छू गई। वे गीली थीं।
"क्या हुआ बेटे?" मैंने प्यार से पूछा।
वह कुछ नहीं बोली। बस, जैसे रुलाई रोकने के लिए होंठ सख्ती से भींच लिए।
"अपने पापा जी के लिए परेशान हो? पर डॉक्टर साहब तो कह रहे थे, वे एकदम ठीक हैं। ऑपरेशन बहुत अच्छा हुआ है। बस, एक-दो दिन में उठकर बैठ जाएँगे। यही कह रहे थे न!" कहते-कहते मैं भी शंकाकुल हो उठीं।

वह एकदम पलटी। कुछ क्षण मुझे देखती रही, फिर मेरी छाती में मुँह छुपाकर सुबकते हुए बोली, "पहले यह बताइये, आपने हमें ख़बर क्यों नहीं की? पापा जी इतने बीमार हो गए और किसी को मेरी याद भी न आई?"
यही तो। अपने-आपको कटघरे में खड़ा करके मैं बार-बार पूछ रही थी - मुझे उसकी याद क्यों न आई? अपनी बिटिया को कैसे भूल गई थी मैं?

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१६ दिसंबर २००१

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