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इतवार का दिन था छुट्टी का दिन अचानक सूरज अपनी आरामगाह में चला गया। जाते-जाते बादलों को घरघरा कर देता गया। बस गरमी में 'एयरकण्डीशन' का-सा माहौल बन गया और छुट्टी का दिन पिकनिक के माहौल में बदल गया। रवीश ने पापा से' रिक्वेस्ट' की प़ापा ने मम्मी के हज़ूर में अरज़ी पेश की अरज़ी मंजूर हुई। झटपट तिरंगे सैन्डविच, थर्मस में चाय, वाटर बोतल में बर्फीला पानी, स्क्वैश की बोतल, डिसपोसेबल प्लेट, चम्मच, गिलास, नैपकिन, बड़ी-सी चादर, कुछ अखबार आदि प्लास्टिक की टोकरी में भरे गये। निकलते हुए मार्केट से वेज पैटीज़ और कुछ मिठाई तथा फल खरीदने का अहद कर सब निकल पड़े। रवीश ने ताश की गड्डी, गेंद और बल्ला, निदा के लिए साँप-सीढ़ी तथा उसकी गोटियाँ - सभी को सँभाला। सभी रोज़ गार्डेन पहुँचे। सभी खिलखिला रहे थे। फ़िज़ा में मौजें भरी थीं।

इतना खुश तो रवीश पिछले सोलह-सत्रह साल में नहीं हुआ था, जो पिछले दस दिन में होना सीख गया था। वही नहीं, घर भर खुश था - दीवारें तलक। लोग कहते हैं कि घर दीवारों से नहीं होता, उसमें रहने वाले लोगों से होता है। ये एक सच है लेकिन यह भी एक सच है कि घर के लोग अगर खुश हों तो बेजान दीवारें भी जानदार होकर चमकने-दमकने लगती हैं। रवीश को पिछले हफ्ते की कश्मीर यात्रा याद हो आयी।

शुक्रवार को पापा की फ्लाइट थी। पापा कम्पनी के एक ऊँचे ओहदे वाले एक्सीक्यूटिव थे। अक्सर दूसरे एक्सीक्यूटिव्ज़ के साथ होने वाली मीटिंगों के सिलसिले में उन्हें श्रीनगर जाते रहना पड़ता था। अब इन मीटिंगों में जाना, जाते रहना, उनकी आदत में शुमार हो चला था, पर शायद मम्मा को उनका जाना कभी रास न आया था। हमेशा की तरह पापा को बहुत सुकून से तैयारी करते देखकर और शायद खुद के लिए और घर के लिए कोई दु:ख या चिन्ता की झलक न पाकर उस दिन भी मम्मा बेहद चिढ़ गयी थीं- "पता नहीं, कैसे पति और बाप हो। उठकर चैन से चल देते हो। किसी की चिन्ता नहीं। हैरानी होती है, इस उम्र में भी तुम्हारी ये तैयारी देखकर।"

जैसे-जैसे मम्मा का गुस्सा उफनता उनकी बातचीत और लहजा दोनों, ऊपरी मिठास की परत को छोड़ देते, 'मैनर्स' का खोल उतरता जाता, फिर उनकी बड़बड़ाहट कुछ ऐसा रुख़ ले लेती -
"पता नहीं। कौन मेरी सौत बैठी है वहाँ, जो जब तब मुँह उठाये चल देता है ये शख्स। मानों कम्पनी में और किसी की अक्ल काम ही नहीं करती  पता नहीं खुद को कौन-सा खुदा समझता है अपनी उम्र भी नहीं देखता।"
मम्मा बड़बड़ाने-सा लगतीं -
"अरे! बुढ़ाने को हो आये, बाल उड़ने लगे हैं सफेद सन हो आये हैं पर परफ्यूम का भी क्या शौक है?"
वे बोली होगीं। और सारे कथन के अन्त में उन्होंने 'ऊँह' करते हुए सिर को झटका दे दिया।
मम्मा 'ऊँह' करती और पापा के सारे व्यक्तित्व को ही नहीं नकारती, बल्कि सारे घर के माहौल को उसके असर से धुआँ-धुआँ कर देती।

रवीश निदा को अपनी गोद से चिपकाये थपथपाता रहता और शायद अपने ख्यालों के 'मम्मा-पापा' की तस्वीरें आँकता और बिगाड़ता रहता।
"कैसी है तुम्हारी मम्मा?"
रुख़ आंटी ने 'केजुअल' बनते हुए पूछा था।
"ठीक-ठीक हैं बस" - वह कहने में बिल्कुल नहीं हिचका था। हालाँकि आज दस-दिन बाद ही वह अपने उस कथन के लिए शर्मिंन्दा महसूस कर रहा था। यह भी सोच रहा था कि अगर आज वाली मम्मा को एक बार भी पहले देख लेता तो ऐसा कभी न कहता।
"और पापा ?"
रवीश को याद है पापा के बारे में पूछते हुए रुख़ आंटी की आँखों में जाने क्या झलक आया था। रुख़साना नाम था उनका, पर उसे ही छोटा करके 'रुख़ आंटी' कहने की इज़ाजत ले ली थी उसने और तभी से रुख़ आंटी भी उसे 'रीश' कहने लगी थीं।
"पापा पापा भी ठीक-ठाक हैं।"
"मतलब ?" रुख़ आंटी ने पूछा तो वह अकबका गया ।
"मतलब! पापा वैसे ही हैं जैसे सबके पापा होते होंगे। मेरा मतलब, सभी पापा-मम्मा ऐसे ही होते होंगे न।"
रुख़ आंटी हँस दी थीं। फिर बोली,
"जितना ये सही है कि सभी मम्मी-पापा ऐसे ही होते हैं वहीं ये भी सही है, मेरे भोले शातिर कि तुम्हारी-सी उम्र में सभी बच्चे अपने माँ-बाप के बारे में ऐसे फैसले नादिर ही करते हैं।"
सैंकड़ों सवाल निगाह में भरे रवीश रुख़ आंटी की ओर देखता रहा था।
"अच्छा रिश! तुम तो इंजिनियरिंग में दाखिला लेने जा रहे हो। तो कुछ अपने दोस्तों के बारे में बताओ न।"
"आंटी! दोस्त हैं तो पर पता नहीं पिछले दिनों क्या हुआ है कुछ-कुछ दूर सा होता जा रहा हूँ उनसे।"
रवीश कहना चाहता था कि अब लड़कियों के बारे में जानना, उनसे दोस्ती करना, उन्हें देखना, उसे ज्यादा भाता है पर कहा नहीं।
"क्यों? ऐसा क्यों भई! ये तो दोस्तों को बनाने की उम्र है। मालूम है इसी उम्र की दोस्तियाँ फेविकॉल-सी जुड़कर पक्की होती हैं बाद में तो ।"
"क्यों! आंटी। कॉलिज की दोस्तियाँ ?"
रुख़ आंटी मुस्करा दी थीं।
"अरे भई! कॉलिज का जमाना तो और तरह की दोस्तियों का होता है।"
रवीश शरमा गया था। उसे खान अंकल की बेटी ' रिशम' याद आ गयी।
"अरे बाबा! लड़कों के चेहरों पर भी शरम की लाल साँझ बिखरती है ये तो पहली बार देखा।"
रुख़ आंटी खिलखिलाकर लोट-पोट हो रही थीं।

रवीश देख रहा था वह सिरफ एक खिलखिलाहट नहीं थी। वह थी आशिक को देखकर माशूक के चेहरे पर की छिटक आती धूप, धूप के निकलते ही चटककर खिलती कली, जो फूल बन जाती है, तेज बारिश होने पर के बाद की धुली-खिली हरियाली वे हँसी जिसमें मीठी छुअन का अहसास था, जिसने रुख़सार के पास से निकलकर रवीश को भीतर तक छू लिया था।

पिछले अनेक बीते सालों में वह कभी ऐसे कलेजा फाड़कर न हँसा था। फिर दोनों हँसते रहे थे। उस दिन रवीश को लगा कि ज़िन्दगी बदल गयी। वह अब दबा-सहमा, बढ़ती उम्र के दबाव के नीचे दबता-डूबता बच्चा नहीं रह गया बड़ा हो गया है। फिर उसने ' रिशम' के बारे में अपने भीतर पनपते भाव के सच को आंटी के सामने बयान कर दिया था। यह भी कि उसका मन किताबों में नहीं रम पाता, यह भी कि वह खोया-खोया रहता है। किताब के पन्नों पर रिशम नज़र आती है म़न में एक अजब-सी उदासी छायी रहती है, जो खान अंकल के यहाँ जाने की कल्पना मात्र से उड़न छू हो जाती है वगैरह वगैरह।

रुख़ आंटी बड़प्पन से मुस्कराई थीं। उस दिन रवीश को ही नहीं, रुख़साना को भी, जो कभी सुविश (रवीश के पापा) की माशूक थी, जिसने उनके साथ घर बसाने का सपना देखा था, जिस पर भाग्य ने भरी बहार में कहर बरपा कर दिया था और जिसने उसी कहर से बनी सुरंग में साँस लेते रहने का अहद किया था, जो अपने पिता की मौत के बाद लन्दन में जाकर बस गयी थी, तन्हा-अकेली जिन्दगी बिता रही थी उसे भी रवीश जैसे बेटे की सरपरस्त बनकर उसके न बयान किये जाने वाले राज़ों की भागीदार बन आने का सुख मिल गया है। यह सब रवीश को रुख़ आंटी ने भी बताया था, कुछ वह अपनी उम्र और अक्ल के अनुसार समझ भी गया था।

सुख मिल जाने के पीछे कोई तर्क नहीं होता क्योंकि अभी तक दिमाग के रसायन डॉक्टरी विज्ञान से अनजान है। अगर अपने भीतर की भड़ास, (जो धीरे-धीरे उसके तन-मन में उग आये कैक्टसों-सी चुभने लगी थी) निकालने में रवीश को सुख मिलता था और उसमें अपने बेटे को देख लेने जैसा सुख रुख़साना को मिला था, तो इसकी व्याख्या के लिए कौन-सा तर्कशास्त्र काम आ सकता है?

माँ और सरपरस्त का रोल अदा करती रुख़साना ने रवीश के कन्धे पर हाथ रखा थपथपाया और समझाया।
"नहीं। रीश! नहीं अभी नहीं। अभी तो कच्ची उम्र है। अभी तो पढ़ने और कैरियर बनाने का वक्त है। इस पर अभी तो शरीर की कैमिस्ट्री भी पूरी बढ़ी नहीं है। इस सबको कॉलिज के बाद के लिए छोड़ रखो। हैण्डसम बच्चे हो, ज़हीन भी हो। बहुत-सी लड़कियाँ आयेंगी जिन्दगी में।"
रीश भी अच्छे वफादार बच्चे की तरह सिर हिलाकर समझता रहा। अचानक बोला - "अच्छा! आंटी! आप तो पापा की कॉलेज के जमाने की दोस्त हैं न और वो अंकल जिन्हें आप 'अद्धा' कह रहे थे, जिनके यहाँ आज ' डिनर' पर जाना है, वे भी तो क्लास-मेट ही थे न।"
"हाँ हम कॉलिज के जमाने के दोस्त हैं देखा नहीं कितना खुलापन है, हमारे सम्बन्धों में कहीं निषेध का नाम नहीं खुले रिश्ते हैं ।"
'रिश्ते' कहते हुए रुख़ आंटी ने आँखें सामने के पेड़ की टहनी पर टिका दी थीं। रवीश कुछ समझा, कुछ नहीं भी समझा।

रुख़ कहीं शून्य में खो गयी थी। कितना कठिन होता है, अपना सब कुछ खो देना या फिर इस तरह खो जाना। ईश्वर और खुदा के झगड़े का शिकार बन गयी थी वह। कार की खिड़की से बाहर देखते-देखते उसने कल्पना की कि अगर एम.एस-सी. खत्म होते ही उसकी शादी सुविश से हो जाती तो आज 'रवीश' उसी का बेटा होता। इस ज़रा-से सोचने उसके सामने खुशी और सुख के इन्तहा दरवाजे खोल दिये थे। ममता का सागर लहराने लगा था और वह उसमें भीग-भीग गयी थी।

"चलो अब लेक में बोटिंग कर लें - थोड़ी-सी।"
बात बदलते हुए रुख़ ने कहा था और दोनों बजरे वाले के पास आ गये।

उस दिन, जब पापा श्रीनगर जाने की तैयारी कर रहे थे, मम्मी से खासा तनातनी हो गयी थी, तब अचानक मम्मी एक सुझाव दे बैठीं। अपनी निजी योजना के तहत उन्होंने पापा का सी.आई.डी. बनाने की इच्छा से रवीश को उनके साथ कर दिया था, और अलग कोने में ले जाकर, दुलराकर, अपना प्यारा बेटा बताकर हिदायत दी थी कि एक-एक मिनट का हिसाब रखना, खूब घूमना, आओगे तो पूछूँगी।

पापा ने बहुत समझाया था कि वे मीटिंगों में व्यस्त रहेंगे, रवीश बोर हो जायेगा, पर ये तो अम्मी की योजना थी, भला उसमें बदलाव की गुंजाइश कहाँ होती? शक के साँप जिह्वा लपलपाने लगते हैं, तो जहर का निकल पड़ना स्वाभाविक ही था। मम्मा के मन में तो जाने कितने ढेर-से सन्देहों के कैक्टस उगे पड़े थे, जो उन्हें जब तक भिदते-छिदते रहते और वे जख्मी और लहू लुहान होती रहतीं।

पर आज अगर कहें कि पिछले चन्द दिनों में रवीश उन कैक्टसों का उगना, उनकी चुभन व दु:खन ही नहीं समझने लगा था, बल्कि पापा का दर्द भी महसूस करने लगा था, तो गलत न होगा। खैर! तो रवीश, मम्मी की सारी हिदायतों को सीने पर बाँधे, पहले निदा की नाराज़गी कि वह अकेला क्यों जा रहा है, की जवाबदेही करता और अन्त में निदा के लिए ढेर-से गिफ्ट लाने का वायदा करके, पापा के साथ श्रीनगर चला गया।

'होटल ऑबेराय' किसी महाराजा के महल को होटल में बदलकर बनाया गया था। मेन गेट से ही कार अन्दर घुसी तो सीधे हाथ की तरफ के बड़े-बड़े बाग के किनारों पर बनी क्यारियाँ दिखीं। सभी रंग-बिरंगे फूलों से लदी थीं। कहीं-कहीं ये क्यारियाँ आधी गोलाई में बनी गले के 'नैकलेस' जैसी लग रही थीं। दूर के छोटे बाग में बहुत भीड़ थी। ड्राइवर अंकल ने बताया था कि फिल्म की शूटिंग हो रही है। रवीश शूटिंग देखने उड़ जाना चाहता था पर पापा से कैसे कहे? बेअदबी कैसे करे? कनखियों से पापा का मूड आँक ही रहा था कि कार पोर्टिको में आकर खड़ी हो गयी।

ऑबेराय की लॉबी की शाही शान देखकर रवीश की आँखें तो चौंधियाँ गयीं। पापा काउण्टर पर रजिस्ट्रेशन की फार्मेलिटी के लिए चले गये। रवीश वहीं लॉबी का जायज़ा लेता आने-जाने वाले लोगों को तौलता घूमता रहा। एक सीधी-सधी चाल से चली आती, लम्बी-भरी-सी उस औरत की ओर उसका ध्यान पता नहीं कैसे खिंच गया? एक अजब आत्मविश्वास और सख्ती दोनों ही - मानों वह कोई विशिष्ट महिला हो। गॉगल्स उसके गोरे रंग पर खिल रहे थे। रवीश उन आंटी के बारे में कुछ और सोचता कि पापा आ गये। रवीश की निगाह मिलाते-मिलाते उन्होंने भी उस औरत की ओर देखा। इसी बीच वह सामने आ खड़ी हुई।

"हाय रुख़! तु तुम यहाँ?"
पापा के चेहरे पर इतनी चमक, इतनी खुशी रवीश हैरानी से कभी पापा को, कभी उस आंटी के चेहरे की ओर देख रहा था।
"हाय सुवि! तुम क्या खूबसूरत इत्तफाक है पर, मैं तो बहुत बार यहाँ आती हूँ यहीं इसी होटल में ठहरती हूँ तुम कभी मिले नहीं। पहली बार श्रीनगर आये हो क्या? कैसे हो?"
पापा प्रश्नो के जाले में, या कि इस अचानक की मुलाकात से हैरानी में इतना उलझे कि आखिरी सवाल ही याद रहा बस। बोले -
"ठीक हूँ! देख नहीं रही मोटा हो गया हूँ उम्र के असर से बचा तो नहीं जा सकता ना पर तुमने तो उम्र के असर को दगा दे दी बिल्कुल वैसी ही हो जैसी कॉलिज में थीं।"
फिर विशेष कोणों से देखकर बोले, "बस चेहरे पर कुछ सख्ती झलक आई है। आत्मविश्वास कुछ ज्यादा।"
पापा ने कुछ सेकेण्ड भर में रुख़साना (पापा ने यही नाम बताया था) का पूरा जायज़ा ले लिया था। रवीश के मन में भी उन्हें देखकर यही दो शब्द आये थे। रवीश हैरान था - इस इत्तफाक पर। तो क्या वह धीरे-धीरे समझकर और बड़ा होता जा रहा है?

पापा और वह(जिन्हें पापा ने 'रुख़' कहा था, बाद में उसका नाम रुख़साना बताया था और जिन्हें वह 'रुख़ आंटी' कहने लगा था) दोनों एक-दूसरे को खोये-खोये से निहार रहे थे। रवीश अचानक कुछ समझने लगा था अचानक उसे पापा पापा का मन मानसिकता सब समझ में आने लगी थी। जादू की छड़ी-सी फिरी और वह बदल गया था। मानों वक्त ने उसके हाथ में सर्चलाइट थमा दी जिसने लुकी-छिपी सभी चीजों को स्पष्ट और मुखर कर दिया था।

रुख़साना को रवीश की ओर देखता पाकर पापा खुद में लौटे और बोले -
"रुख़! ये हैं मेरे साहबज़ादे रवीश! और ये हैं रुख़साना हम दोनों कॉलिज में साथ-साथ पढ़ते थे।" कहते-कहते पापा जैसे कॉलेज के ज़माने में पहुँच गये और बोले- "वह भी क्या जमाना था तुम्हें याद है रुख़?"
"सिरफ याद पता है, कभी भी अहम् न लगने वाली छोटी-छोटी-सी बातें इंसान की ज़िन्दगी का ऑक्सीजन बन जाती हैं, वजुहात बन जाती हैं उसके ताउम्र ज़िन्दा रहने की मैं तो उसी ऑक्सीजन के बल पर जिन्दा हूँ।"
रुख़ आंटी ने 'गॉगल्स' उतार दिये थे। आँखों से उनकी खुशी, उनका गम, उनका अदबी ज्ञान, उनका प्यार-हार-मनुहार सभी छलके पड़ रहे थे।
"सच तो है पर सभी को किस्मत इसकी मुहलत तो नहीं देती।"
"मौके और मुहलत तो सभी को मिलते हैं, सँभालकर रख पायें या नहीं, यह अलग बात है।" रुख़ आंटी ने जवाब दिया था।
रवीश साथ चल रहा है, दोनों इससे अनजान जाने कौन-से शिकवे-शिकायत करने लगे थे। अचानक पापा को रवीश का ध्यान आया और बोले -

"छोड़ो! यार! (पापा के मुँह से 'यार' जैसा शब्द - रवीश चौंक गया था) और बताओ अपनी सुनाओ। क्या शगल रहता है और किसी क्लासमेट से मिली क्या?"
पापा के पास ढेर-सी जिज्ञासाएँ थीं, वक्त की बनाई बड़ी-सी खाई थी, जिसे वे भरना चाहते थे।
"नहीं भई! इसकी तो हमने खुद को मोहलत ही नहीं दी। पापा के इन्तकाल के बाद सीधा लन्दन भाग खड़ी हुई यहाँ मन लगाने व लुभाने को कुछ न था ना।"
रुख़ आंटी सुस्त हो गयी। बातें फिर पिछले व बीते वक्त के सिर पकड़ने लगी थीं कि अचानक उन्होंने पूछा - "वो 'अद्धा' मिला कभी?"
"अद्धा ।" पापा खिलखिलाकर हँस पड़े। रवीश भौंचक्का-सा दोनों को हँसते हुए देख रहा था।
"अरे! पापा तो बहुत जीवन्त और खूबसूरत व्यक्ति हैं। घर में ऐसा क्या है, जो उन्हें इतना रूखा-सूखा और चिड़चिड़ा बना देता है कितनी लाइनें बन जाती हैं चेहरे पर - आड़ी-तिरछी और कितना बिगड़ा-सा चेहरा पापा तब बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते।"
रवीश एक ओर तो पापा के बारे में सोच रहा था, दूसरी ओर 'प्यार' के भाव को तर्ज दे रहा था पर तीसरी ओर एक कीड़ा भी उसके जेहन में रेंग रहा था।
"आखिर पापा घर में ऐसे ताजे क्यों नहीं रहते। पापा ऐसा रहें तो मम्मा की शिकायतें और शक दूर न हो जाये।"

उसने यह भी महसूस किया था कि प्यार खूबसूरती है, प्यार उत्साह है, प्यार खुशी है, रोशनी है, पर साथ ही गले में अटकी एक फाँस भी महसूस की थी। क्या यहाँ रुख़ आंटी का मिलना एक इत्तफाक था, या फिर किसी पूर्व निर्मित योजना का एक हिस्सा? तो क्या शक के ऑक्टोपस उसे भी डसने लगे हैं? उसने सोचा और झटका देकर उनको निकाल फेंका।

उस दिन तो इत्तेफाकों का तिलिस्म खुल गया था। मीटिंग में जाने से पहले पापा रवीश को गार्डेन में हो रही फिल्म की शूटिंग देखने, गार्डेन में घूमने तथा फिर वहीं पर रखी सफेद तथा सुनहरे फूलों से सजी टेबल की ओर इशारा करके लंच के लिए इन्तज़ार करने की हिदायत दे कर चले गये। कुछ रूपये भी थमा भी दिये जिससे चाहें तो कुछ खाया-पिया भी जा सकता था। उसे पापा के व्यवहार ने खुशी की इन्तहा दी थी। उधर-रुख़साना आंटी, जिनकी शख्सियत से वह पहली नजर में ही प्रभावित हो गया था, वे ही उसकी सरपरस्त की तरह देखभाल कर रही थीं। मम्मा के लिए ढेर-से शकों-शुबाओं के कुलबुलाते कीड़ों, प्रश्नों के सर्प तथा बेचारगी का सीलापन होने पर भी उसे रुख़ आंटी की सरपरस्ती अच्छी लगने लगी थी। फिर उम्र भी तो ऐसी थी।

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