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हम आँगन के दरवाजे के पास खड़े होकर एक-एक चीज देखते, उसके साथ-साथ हमारे मुँह का स्वाद भी बदल जाता। सोचते, तीन पर्तों के लाल-लाल सिके पराठों के साथ चाय का स्वाद अवश्य ही अच्छा होता होगा। फिर कोई बहन बस्ता तैयार करके देती और हम लोग फिर पन्द्रह सीढ़ियाँ उतर कर पुलिस चौकी वाले छ: नम्बर के प्राइमरी स्कूल को चल पड़ते।

हमें भी लगता और लोग भी मानते कि तिलक राज हमारा पक्का दोस्त था, पर शायद उन दिनों पक्के दोस्त की परिभाषा भी न जानते थे हम।

अपने घर की गिरी आर्थिक स्थिति हमसे छिपी नहीं थीं। त्योहारों पर लोगों के घरों से पकवान बनने की सुगन्ध आती। माँ के न रहने के कारण बुआ जी आकर कुछ न कुछ दे जाती। फूफाजी एक गाँव के मुखिया थे, बहुत बड़े-बड़े बगीचों, न जाने कितने खेतों और बड़ी सी हवेली के मालिक। एक बड़ी सी घोड़े की बग्घी में बैठ कर आती बुआजी, सर पर हमेशा च र का पल्ला होता।

राम सरन कोचवान एक घर के सदस्य की तरह था, आते ही पिताजी से कहता - "मामाजी राम-राम" और दादाजी से कहता - "दादाजी पायलागूँ।" पिताजी , दादाजी उसे सुखी रहने, लम्बी उमर तक जीने का आशीर्वाद देते। बुआजी बारी-बारी से सभी से गले मिलतीं। बुआ जी के पीछे-पीछे राम सरन साथ लाये सामान को एक-एक करके अन्दर रख देताा, उनमें होते बगीचों तथा खेतों की फसल की चीजें, पकवान, मिठाई आदि।

दोपहर के बाद तीन-चार बजे तक बुआजी भाई के पास बैठकर उनके दुख-सुख की बात करके लौटने के लिए तैयार होतीं। बुआजी फिर बारी-बारी से सबके गले लगतीं तथा अपने पल्लू से आँखें पोछती हुई बग्घी में बैठ जातीं। राम सरन बग्घी हाँक देता और हम उसके पीछे-पीछे थोड़ी दूृर तक जाते। मुहल्ले के और भी बच्चे हमारे साथ होते। बुआजी के बग्घी में आने की बात एक बड़ी बात मानी जाती उन दिनों।

अलीगढ़ में समय-समय पर मेले लगते। दशहरा तथा राम लीला के दिनों में तो कई मेले लगते, काली की सवारी वाले दिन मेला, भरत मिलाप वाले दिन मेला, सरयू पार करने वाले दिन अचल ताल में नाव चलती, उस दिन भी मेला। मेले में लोग तरह-तरह की चीजें बेचते, खाने-पीने की चीजें, खिलौनों की चीजें और न जाने कितनी अनेक चीजें। एक बाँस के डंडों पर पतले वरक से बनाई फूल नुमा फिरकियाँ टँगी रहती किसी के पास, तो किसी के पास दफ्ती को गोलाई में मोड़कर बनाई गई बजने वाली सीटियाँ होतीं। जैसे ही मुँह पर लगा कर हवा मारते, कुछ पैनी सी आवाज दो किनारों पर लगी पन्नी पर टकराने से आती, कीमत होती एक पैसा।

तिलक राज के साथ मेले में घूमते समय हमारे मन में द्वन्द्व उठता कि क्यों न हम भी कोई चीज बना कर मेले में इसी तरह से बेचें जिससे कुछ पैसे कमा कर घर की स्थिति को सुधार सकें। हम यह भी जानते थे कि हमारा उ ेश्य कुछ भी हो, पर पिताजी की प्रतिष्ठा को देखते हुए यह सब करना उचित नहीं था। कोई न कोई तरीका तो निकालना ही था इसका।

घर में तार में लगे पोस्ट-कार्डों की पुरानी चिठि्ठयों को निकाला, उन्हें साफ किया। बाजार से लाल तथा हरे रंग की पन्नियाँ खरीद कर लाये तथा बाजार में बिकने वाली दफ्ती की सीटी हमने तैयार कर ली। ट्राइल के बाद काफी सारी सीटियाँ बना डाली तथा आँगन में धूप में सुखाने के लिए रख कर उनके सूखने का इन्तजार करते रहे। पोस्ट कार्डों से बनी सीटियाँ हवा आने पर आँगन में इधर-उधर नाचतीं।

कहाँ-कहाँ की चिठि्ठयाँ थी वे! कोई दुख की थी तो कोई खुशी के समाचारों से भरी थी, तरह-तरह की लिखावट से लिखी, तरह-तरह की स्याहियों से रंगी अपने-अपने भावों को प्रगट करती थीं वे चिठि्ठयाँ। एक किनारे बैठे-बैठे सोचते रहते नई कल्पनाओं के साथ, उनका हिसाब लगाते कि अगर एक पैसे के हिसाब से बिकी तो ४० सीटियों से सात आना मिलेगा। दस आने में तो बहुत कुछ हो सकता है, सात दिनों की सब्जी का खर्च निकल सकता है। एक आने की पूरी मूली की एक लम्बी गड्डी ले लो, पत्तों से एक दिन भुजिया बना लो या उन्हें कूट कर पतला साग बना लो। पत्तों के बाद बची आठ मूलियों को गोलाई में काट कर सूखी सब्जी बना लो, चल गया दो बख्त का काम, सिर्फ एक आने में। सब्जी के साथ न जाने कितनी और चीजे डलेगी, इस ओर ध्यान नहीं जाता हमारा।

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