मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


उसके बारे में पिताजी से कुछ बातें पूछती है। लगभग एक सी ही बातें, जो उसने पहले भी कई बार पिताजी से पूछी है। पिताजी उसकी बातों का जवाब देते है, एक सा जवाब, जो शीना ने कई बार सुना है। शीना ध्यान से पिताजी की बातें सुनती है। वे बातें जो उसने पहले भी कई बार सुनी है। फोटो और माँ की बातें, एक सी बातें, बार–बार सुनी बातें, जिन्हें फिर सुनने के लिए वह पिताजी से चिपक सी जाती है।

कई बार वह उस फोटो को लेकर ड्रेसिंग टेबल पर बैठ जाती है। शीशे में खुद को निहारती है। फिर फोटो को देखती है। माँ की तरह सजने की कोशिश करती है। उसके पास भी बडे.–बड़े फूलों वाला एक सलवार कुर्ता है, उसे वह पहन लेती है। फिर माँ जैसी ही बड़ी बिंदी लगाती है, दो चोटियाँ बनाती है। फिर शर्माती सी पिताजी के सामने जाकर खड़ी हो जाती है। कभी–कभी वह पिताजी के सामने नहीं जा पाती है, बस पर्दे के कोने से झाँकती रहती है। फिर पिताजी उसे बुला लेते हैं। शीना को लगता है कि अगर कभी माँ आ गई और उन्हें पता चल गया कि वह उनकी नकल करती है, ड्रेसिंग टेबल के सामने उनकी तरह सजने की कोशिश करती है, तब क्या होगा?...ऐसे में वह भागकर कहीं छुप जायेगी ताकि कोई उस पर हँस नहीं पाये, उसका मजाक ना बनाये।
"पिताजी, मैं यह फोटो स्कूल ले जाऊँ...।"
"क्यों?"
"मैं अपनी सहेलियों को दिखाऊँचागी।"
"नहीं बेटा, आप फोटो तोड़ दोगे।"
"मैं नहीं तोडूँगी...प्लीज।" शीना ने गर्दन टेढ़ी कर फोटो को अपनी छाती से चिपकाकर धीरे से कहा।
पिताजी ने हाँ कह दी। शीना फोटो स्कूल ले गई। स्कूल में उसने उसे अपनी सहेलियों को दिखाया। उन सहेलियों पर थोड़ा रौब भी मारा कि उसकी माँ कितनी सुंदर है...अचानक उनकी तंद्रा टूट गई। पता नहीं बचपन की यह बात उन्हें कैसे याद आ गई। रोज शाम को जब वे अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी होती है, उनका दिमाग खाली रहता है। वे देर तक खिड़की के किनारे लंबी फट्टी वाली आरामकुर्सी पर लेटी रहती है। आँखें मूँदे रहती हैं। उनकी आँखों में एक लाल–काली दीवार बनी रहती है, जैसे फोटोग्राफर के डार्क रूम में काले अँधेरे में एक मद्धम लाल बल्ब जलता रहता है। वे इस दीवार को खाली ही रहने देती हैं, सपाट और कोरा। वे उस दीवार पर कुछ नहीं बनाती हैं। पर आज उस दीवार पर उनके बचपन के कुछ चित्र पोस्टर की तरह चिपकने, उखड़ने, फड़फड़ाने लगे थे।

शाम को उनका कमरा बहुत शांत रहता है। इतना शांत की खिड़की पर हवा की चहलकदमी की आवाज तक सुनाई देने लगती है। जब हवा रुकी रहती है तब हवा की जगह उन्हें अपनी सांसों की आवाज़ सुनाई देने लगती है। वे कभी–कभी सोचती है कि यह चुप्पी कहाँ से आती है? उन्हें लगता है यह बाहर से ही आती होगी। क्योंकि उनका मन तो अशांत रहता है। इसलिए यह चुप्पी उनके भीतर से नहीं आती है। उनका मन सिर्फ इस चुप्पी को महसूस करता है। वह चुप्पी बना नहीं सकता। चुप्पी तो बाहर से ही आती है। वह रोज खिड़की के पार से आ जाती है। कमरे में तैरती है। उनकी त्वचा पर बैठ जाती है। फिर त्वचा के रोमछिद्रों से रिसकर उनकी नसों पर गाद की तरह जम जाती है। फिर वह धीरे–धीरे उनकी नसों की धड़कन को कम करने लगती हैं . . ।


रोज की तरह आज भी उनके कमरे में शाम का सिंदूरी प्रकाश बिखरा था। पहले वह सिंदूरी था पर अब काले–स्लेटी शेड के साथ है, उस शेड़ में डिफ्यूज होता हुआ। खिड़की के पार भी यही स्लेटी–सिंदूरी प्रकाश बिखरा था। जिसमें शहर की लाइटों के झिलमिलाते बिंदु रोज की तरह उभर रहे थे। वे बचपन की बातों से निकलना चाह रही थी। समय बीत रहा है। उन्हें अपने रूटीन के काम निबटाने हैं। पर एक अजीब सी इच्छा उन्हें हो रही है, बचपन की बातों को याद करते रहने की इच्छा। वे अपने आप को समझातीं – चलो थोड़ी देर और सही। थोड़ी देर और उन बातों में भटका जा सकता है। थोड़ी देर में कुछ नहीं होता। रूटीन भी कहाँ ज्यादा डिस्टर्ब होगा। बचपन से आज तक पिताजी की एक बात चली आई है – "शीना शायद तुम्हें याद हो...। जब माँ की मृत्यु हुई, तुम बहुत छोटी थीं। पर तुम्हें माँ के बारे में थोड़ा बहुत याद होगा। याद करो...।"

पिताजी की इस बात को पचास साल हो चुके हैं। पर अब भी उन्हें जब यह बात याद आती है, वे अपने बचपन की धुंधली यादों को टटोलने लगती हैं। उन्होंने कहीं पढ़ा था कि तीन साल की उम्र में देखी हुई चीजें याद रह सकती है। शायद उन्हें हो, वे माँ की मृत्यु के समय तीन साल की थीं। वे बचपन के धुँधले चित्रों का संदर्भ तलाशती है। शायद उसका संबंध माँ से हो, पर वे जल्दी ही निराश हो जाती है। आज भी उन्होंने कोशिश की, एक नाकाम कोशिश। पर माँ उनकी यादों के बाहर ही खड़ी हैं, एक ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो में, जिसे देखकर वे बचपन में कुलाचें मारती थी। कहती थीं – उनकी सुंदर माँ। अगर वे आज ऐसा करें, जैसा बचपन में उस फोटो को देखकर करती थीं, तो...?

ऐसा सोचकर उन्हें हँसी आ गई। लोग क्या कहेंगे और फिर यह तो पागलपन होगा। आज वे अपनी माँ से कितनी अलग हैं। जब माँ की वह फोटो खींची गई होगी तब माँ बाइस या तेईस साल की रही होंगी। पर आज वे बावन वर्ष की है। आज उन्हें फोटो वाली माँ किसी बच्ची की तरह दिखती है। मानो वे उनकी माँ नहीं है। उनके नारी निकेतन की कोई लड़की है जो तनिक भी गंभीर नहीं है। उनके सामने इतरा–इतरा कर घूमती है। जिसकी हरकतों पर वे उसे डाँटती रहती है। उन्हें एक मलाल सा रहता है, काश उन्होंने कभी माँ को देखा होता। कम से कम माँ की कोई याद होती। कोई भी याद चाहे एक ही याद हो। यद्यपि ऐसी याद के होने ना होने से कोई अंतर नहीं पड़ जाता, पर एक इच्छा सी है। वे सोचने लगती है कि काश ऐसी याद होती...। वे इस इच्छा का कारण नहीं जान पाई हैं। उनका मन हुआ कि माँ की उस ब्लैक ऐण्ड व्हाईट फोटो को देखें।
 
पिछली बार पुरानी अलमारी की सफाई करवाते समय वह फोटो उन्होंने देखी थी, तब वह फोटो ब्लैक ऐण्ड व्हाइट से मटमैले रंग की हो गई थी, जैसी कि पुरानी फोटो हो जाती है। फोटो के चारों ओर एक सफेद पीला सा घेरा बन गया था। इस घेरे ने उस फोटो में बनी क्विस केलिस की बेल को मिटा दिया था। पता नहीं अब वह फोटो कैसी होगी? कुछ दिनों बाद वह सफेद पीला घेरा पूरी फोटो पर फैल जायेगा। और फोटो की जगह एक सीला हुआ कागज भर रह जायेगा, जिसमें माँ नहीं होगी, उनका एक बिंदु तक नहीं होगा। कोई यकीन भी नहीं करेगा कि उसमें माँ थी। पूरी जीवंतता लिये हुए जिन्हें देखकर वे कुलाचें मारती थीं। फोटो देखने की उनकी इच्छा खत्म हो गई। जैसे बिस्तर ठीक करते समय उसकी सिलवटें गायब हो जाती हैं। वे नहीं उठीं। वे वहीं बैठे–बैठे खिड़की के बाहर देखने लगीं। खिड़की के बाहर अंधकार था।

खिड़की के ठीक बाहर युकेलिप्टस के दो पेड़ हैं। पर अब वे पेड़ नहीं दीख रहे हैं। वे अँधेरे में खो गये हैं। बस उनके पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दे रही हैं। दूर शहर की लाइटों के बिंदु उभर आये हैं। जब अँधेरा गाढ़ा हो जाता है, तब आकाश के तारे और शहर के चमकीले बिंदु एक दूसरे में मिल से जाते हैं। वे जान नहीं पाती हैं कि कहाँ से आकाश शुरू होता है और कहाँ पर शहर खत्म होता है। दोनों के बीच की विभाजक रेखा मिट जाती है, लगता है शहर के झिलमिलाते बिंदु आकाश तक फैल गये हैं, तारों के बीच छिटक गये हैं। वे रोज शहर के चमकीले बिंदुओं को देखती हैं, उनकी खिड़की पर यह शहर बिना नागा किये रोज उभर आता है। रोज शाम जमीन पर उतर आने वाला काला आकाश। जिसके नजदीक जाया जा सकता है, जिसे छुआ जा सकता है।

उस शहर में उनका बचपन बीता है। पर शाम को उसे देखते समय शायद ही उन्हें कभी इस बात का खयाल आता है। ऐसा बहुत कम हुआ है कि वे शहर के उभरते झिलमिलाते बिंदुओं को देख रही हों और उन्हें अपना बचपन याद आ जाये, जो इन्हीं झिलमिलाते बिंदुओं के बीच कहीं बीता था।

वे एक बार शहर गई थीं। उन दिनों जीतन काका जिंदा थे। वे बेमन से शहर गई थीं। जीतन काका उन्हें जबरदस्ती ले गये थे। जीतन काका अक्सर उन्हें घर से बाहर चलने को कहा करते थे। कभी किसी मंदिर, कभी उनके किसी मित्र के घर, कभी नारी निकेतन के काम से कहीं तो कभी घूमने फिरने, पर वे हमेशा इंकार कर देतीं। कभी–कभी इसी बात पर उनकी और जीतन काका की बहस हो जाती थी। वे नहीं जाने का कोई कारण बतातीं। जीतन काका उस कारण को बेतुका बताते। फिर वे उनकी बात का जवाब देतीं। बतातीं कि ना जाने का कारण उनके लिए क्यों अहमियत रखता है। जीतन काका उन्हें एक असंभव लड़की बताते। वे अपना जस्टीफिकेशन देने के लिए शब्दों को टटोलतीं। पर जीतन काका की बातों का कोई माकूल जवाब वे नहीं ढूँढ पाती थीं, और अंत में उनकी कोरी सी जिद भर रह जाती, किसी छोटे बच्चे की तरह एक कोरी जिद।

उस रोज भी पहले उन्होंने मना किया। बिना कारण जाने का क्या मतलब? फिर शहर जाने से उनका रूटीन भी बिगड़ता था। पर हमेशा की तरह वे जीतन काका की बातों का जवाब नहीं दे पा रही थीं। क्या दो घण्टे का समय भी नहीं निकाल सकती हो? घूमोगी तो अच्छा लगेगा। अकेले–अकेले रहना, अपने आप में डूबे रहना कोई अच्छी बात है? फिर तुम्हारे पास कोई खास काम भी तो नहीं है। कौन मैं रोज–रोज कहता हूँ। महीने पंद्रह दिन में एकाद बार, और क्या...। कौन सा तुम्हारा रूटीन बिगड़ जायेगा भला...। उनके पास तो बातों का जवाब था। वे बस कह नहीं पाई। जीतन काका उन्हें जबरदस्ती शहर ले गये थे।
उस दिन वे डॉ. श्रीनिवासन के घर गये थे। डॉ. श्रीनिवासन नारी निकेतन की एक्जीक्यूटिव कमेटी के मेंबर थे। वे दक्षिण भारतीय थे और सही तरह से हिंदी नहीं बोल सकते थे। उस रोज वे उनसे ऐसे मिले जैसे पहले से जानते हों।
"सो यू आर शीना। जीतन हमको बताया है, तुम्हारे बारे में...।
"जी...।"
"अच्छा आप अपना सजेशन देना...।"
"किस बारे में?"
"हमारे नारी निकेतन के बारे में। एक्चुअल में होस्टल में एक लड़की आई है। व्हॉट्स हर नेम।"
"रत्ना...।"
"हाँ वही। रेल्वे प्लेटफॉर्म पर पुलिस को मिला था। फिर पुलिस इधर छोड़ गया। दे हैव डन देअर ऑल फॉरमैलिटीज़। पर लड़की होस्टल रखने में प्रॉब्लेम है...।"
"वह क्या?"
"वह कम ऐज का है। बाई लॉज के अनुसार होस्टल के लिए मिनिमम एट्टीन का ऐज होना...।"
"तो आप लोग ट्रस्टीज से बात क्यों नहीं करते?"
"अभी हम लोग तो एग्रीड हो जाय। बाकी मेंबर कहते हैं कि एक बार ले लिया तो रूटीन बन जायेगा। और लोग भी आने लगेगा। इट विल क्रियेट ए प्रॉब्लम।"
"पर वह लड़की कहाँ जायेगी? अगर आप लोग उसे रख सकते हैं तो जरूर रखना चाहिए। फिर ट्रस्टीज को भी एग्री किया जा सकता है।"
"देखो जीतन मेरे को एक और सपोर्ट मिल गया...। मिसेज सक्सेना इज रांग...वी आर गोइंग टू गिव हर एडमिशन...।"

फिर तय हुआ, दो रोज बाद जीतन काका, डॉ.श्रीनिवासन और मिसेज सक्सेना ट्रस्टीज के घर जाएँगे। वे भी साथ चलेंगी पर वे नहीं गई। उस रोज जाते समय जीतन काका रत्ना को उनके पास छोड़ गये थे। उस शाम खिड़की के पास वे अकेली नहीं बैठी थीं। उनके पास रत्ना थी। रत्ना लगभग चार एक साल की रही होगी। उसकी आँखों में एक साथ अचरज और शैतानी झलकती थी।
"टीना कब आयेगी?" रत्ना ने उनकी उँगली पकड़ते हुए कहा था।
"कौन टीना?"
"वो मेरी फ्रेण्ड है।"
"अच्छा रत्ना ये बताओ, वो वहाँ रेल्वे स्टेशन पर कौन आया था?"
उन्होंने उसका ध्यान बाँटने की कोशिश की। रत्ना ने अपने दिमाग पर जोर डाला। फिर दिमाग पर जोर डालने का नाटक करने लगी।
"कौन आया था?"
सोचने के बाद अपनी पाँचों उँगलियाँ हवा में घुमते हुए रत्ना ने कहा। मानो हथेली से उखड़कर उसकी उँगलियाँ पूरा गोल चक्कर कर लेंगी।
'कोई पुलिस वाला था। है ना...।"
"हाँ पुलिस अंकल...।"
"फिर क्या हुआ था?"
"पर पुलिस अंकल तो कहते थे...वो पापा, भइया के पास ले जाएँगे।"
"तुम्हारे भइया भी है?"
"हाँ है...मेरे से छोटा। बस इत्ता सा।" रत्ना ने अपनी हथेली कान पर लगा ली।
"जब वो आयेगा ना तब मैं और वो साँप सीढ़ी खेलेंगे।"
कुछ दिनों बाद जीतन काका पुलिस थाने से कुछ कागज लाये थे। रत्ना की गुमशुदगी रिपोर्ट की एक कॉपी और एक बरामदगी रिपोर्ट। नारी निकेतन में रत्ना के एडमीशन के लिए ये कागज जरूरी थे। उन्होंने उस बरामदगी रिपोर्ट को पढ़ा था – टीन का पेण्ट किया हुआ एक फीट बाई एक फीट का बच्चों के खेल साँप सीढ़ी का एक बोर्ड। खेल खेलने की गोटियाँ। एक पासा और एक पासा फेंकने का कप...लड़की के पास से बरामद हुआ।

रत्ना आज बाईस साल की है। उस दिन के बाद से आज तक एक लंबा अरसा बीत गया है। रत्ना का भइया कभी नहीं आया। सो उसे साँप सीढ़ी नहीं सूझा। उन्होंने एक दो बार रत्ना से कहा था कि वह चाहे तो उनके साथ साँप सीढ़ी खेल ले। पर वह तैयार नहीं हुई। बस चुपचाप अपना सिर नीचे कर नहीं की मुद्रा में हिलाती रही। उसने यह भी नहीं बताया कि वह उनके साथ क्यों नहीं खेल सकती? रत्ना को भइया साँप सीढ़ी खेलने के लिए चाहिए था। जब भी भइया की बात होती उसे साँप सीढ़ी याद आता था। पर आजॐ आज अगर रत्ना का भइया उसके पास होता तो भइया का मतलब कुछ और होता। पर भइया नहीं है। अँधेरे में छूटी एक बात जिसे याद नहीं दिलाना पड़ता। पर जिससे रत्ना की कोई पहचान भी नहीं है। शुरू–शुरू में रत्ना को नारी निकेतन में टिका पाना बड़ा मुश्किल था। रत्ना का गाँव, उसका घर, मम्मी–पापा, भइया, स्कूल, स्कूल की किताबें, सहेलियाँ, लोरियाँ, प्यार, मनुहार...सब कुछ दनदनाकर नारी निकेतन चला आता था। हर कोई उसे रोकने का प्रयास करता था। पर वह सब चला आता था। रत्ना एक कोरी जिद के साथ जोर–जोर से रोती थी। पुरानी बातें हर चीज को निगल जाती थीं। लड़कियों का खेल, मान–मनौबल, जीतन काका का सैर सपाटे का प्रोग्राम, रत्ना को बहलाने की शांता की कोशिश...हर चीज मानो कूड़ा हो।

रत्ना का घर, घर के लोग...इन सबको लेकर हर किसी के अपने–अपने धुँधले चित्र थे। शायद उसका घर ऐसा होगा। उसके घर वाले फलां जगह के हो सकते हैं। रत्ना से और पूछकर हर कोई अपने–अपने चित्र सुधारता। पर शायद ही कोई चित्र पूरा हो पाया। कुछ बातें हमेशा रत्ना की याददाश्त के बाहर लटकती रहतीं। तो कुछ बातें नारी निकेतन के लोगों की बहस के बाहर ही नहीं आ पाती थी।

शुरू–शुरू में जमकर खोज खबर हुई। नारी निकेतन की ओर से पेपर में विज्ञापन निकाला गया। दूरदर्शन में गुमशुदगी की तलाश में दिया गया। जगह–जगह पत्र लिख गये, थानों, तहसीलों और पंचायतों को। हर पत्र में रत्ना का हुलिया, गाँव की बातें जो रत्ना ने बताई थीं और संभावनाओं के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष का उल्लेख किया जाता। पर नतीजा सिफर, हर जगह से इंकार आया। धीरे–धीरे गाँव, गाँव का घर, मम्मी–पापा, भइया, स्कूल की किताबें, लोरियाँ, प्यार, मनुहार...सब अपना प्रभाव खोते गये। शायद वे बातें रत्ना को आज भी याद आती है। पर वह रत्ना को कचोट नहीं पाती हैं।

पहले रत्ना के घरवालों को ढूँढने का काम वे अकेले करती थीं। पर आजकल इस काम में रत्ना उनकी मदद करती हैं। रत्ना उत्सुक हैं, वह अपने माँ–बाप को जानना चाहती है। और यह भी जानना चाहती है कि वह कैसे गुम गई? गुमने की बात अब कौतुहल पैदा करती है। उसमें से दुःख और अकेलापन हट गया है। बस कुछ उत्सुकताएँ हैं – मम्मी पापा कैसे दिखते होंगे? क्या मेरे गुमने के बाद उन्होंने भी बाट जोही होगी? क्या पेपर में गुमशुदा की तलाश वाले कॉलम में उन्होंने रिपोर्ट छपवायी थी...माँ–बाप की प्यारी, भइया की दुलारी जहाँ भी हो आ जाओ...। क्या भइया भी मेरे जैसा दीखता होगा? रत्ना ने बरगद की तरह रहना सीख लिया। दीवार को भेदकर, दरारों में जमकर, चट्टान को चूसकर जीना...सिर्फ जीना। यद्यपि उसे थोड़ा समय लगा।

उन्होंने घड़ी की ओर देखा। अँधेरे में चमकते रेडियम के कांटे नौ बजकर पाँच मिनट पर अटके थे। पता ही नहीं चला समय का, कितनी देर तक वे सोचती रही। जाने क्या हो गया था? कभी–कभी ऐसा हो जाता है। अक्सर शाम को जब वे खिड़की के किनारे बैठी होती है, उनका दिमाग खाली रहता है। वे रोज नहीं सोचती, पर कभी–कभी जब वे कुछ सोचने लगती है, तब उनका अपने पर नियंत्रण नहीं रह जाता है। वे बेतहाशा सोचती रहती है, देर तक सोचती है। और समय तेजी से गुजर जाता है। वे रोज रात सोने से पहले नारी निकेतन का एक चक्कर लगा आती है। पर जब वे सोचने लगती है, समय बीत जाता है। तब वे नहीं जा पाती है। उन्होंने सोचा आज भी वे नारी निकेतन का चक्कर लगाने नहीं जाएँगी। भक्तु आयेगा तो वे उससे कह देंगी कि आज उनकी तबियत खराब है। आज वे चक्कर लगाने नहीं जाएँगी। वे भक्तु से यह नहीं सकती है कि आज वे सोचना चाहती है इसलिए नारी निकेतन नहीं चलेंगी। सो बहाना बनाना पड़ेगा।

वे रोज रात नारी निकेतन का एक चक्कर लगा आती है। वे निश्चिंत होना चाहती है। जिस रोज वे चक्कर नहीं लगा पाती है उस रोज उन्हें शुबा सा रहता है। पता नहीं सब कुछ ठीक है या नहीं। वे निश्चिंत नहीं हो पाती है। नारी निकेतन को लेकर वे सचेत रहती हैं। विशेषकर उस घटना के बाद। वह बात जीतन काका के समय हुई थी। जीतन काका नारी निकेतन की लड़कियों पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते थे। उन्होंने लड़कियों को बड़ी छूट दे रखी थी। लड़कियाँ नारी निकेतन के बाहर तो नहीं जाती थीं पर वे अक्सर छत पर खेलती रहतीं। फिर होस्टल की खिड़कियाँ भी कमजोर हो गई थीं। इन सब मुद्दों पर कमेटी में भी बात उठी थी। पर जीतन काका आश्वस्त थे। फिर वही हुआ जिसका डर था। एक लड़की खिड़की के दो सरिये निकालकर भाग गई। कमेटी के सदस्यों ने जीतन काका पर चढ़ाई सी कर दी। कमेटी की बदनामी अलग हुई, और कोर्ट कचहरी भी। वह मामला आज भी चल रहा है। राख ढँकी अंगार की तरह पूरी तरह शांत नहीं हुआ है। धधक रहा है जिसमें जीतन काका आखरी तक झुलसते रहे थे।

इस घटना के बाद नारी निकेतन की डॉरमेट्री की सारी खिड़कियाँ बंद कर दी गई थीं। वे बड़ी–बड़ी खिड़कियाँ थीं। उनमें से कुछ खिड़कियाँ मैदान में खुलती थीं। कुछ खिड़कियाँ रोड की तरफ खुलती थीं। लड़कियाँ उनमें से झाँकती रहती थीं। नारी निकेतन की लड़कियाँ रोड की तरफ खुलती थीं। लड़कियाँ उनमें से झाँकती रहती थीं। नारी निकेतन की लड़कियों को बाहर जाने की इज़ाज़त नहीं है। वे साल में बस कुछ मौकों पर ही बाहर जा सकती है। सो खाली समय में वे खिड़कियों के बाहर झाँकती रहती है। ऐसे में जब नारी निकेतन की खिड़कियाँ बंद की गई, उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा। पर क्या किया जा सकता था? खिड़कियों को बंद कर उनमें लोहे और लकड़ी के बत्ते ठोंक दिये गये। पहले वे खिड़कियाँ थीं पर अब दीवार का हिस्सा हैं। तभी भक्तु आ गया। घड़ी के काँटे नौ बजकर पैंतीस मिनट पर अटके थे। आज वह पाँच मिनट लेट हो गया है।
"बिल्किस की तबियत कैसी है?"
"ठीक नहीं है मैड़म...।"
"क्यों क्या हो गया?"
"शाम को दो बार उल्टी आई।" डॉ. श्रीनिवासन आये थे?"
"हाँ मैडम। शाम को आये थे। कह रहे थे, उल्टी हो सकती है। घबराना नहीं।"
"बुखार तो फिर नहीं आया?"
"नहीं।"
उन्हें कुछ संतोष सा हुआ। वे उठ गई। उन्होंने नारी निकेतन नहीं जाने का इरादा छोड़ दिया। वे तैयार हुई और भक्तु के साथ चल पड़ीं। भक्तु टॉर्च लेकर आगे चल रहा था। वे उसके पीछे थीं। वे जिस बस्ती में रहती है, वह बिजली के पीले लट्टुओं और झुकी छतों वाली बस्ती है। वे रोज नारी निकेतन जाते समय इस बस्ती से गुजरती है। यह बस्ती उसी शहर का हिस्सा है जो रोज शाम को उनके कमरे की खिड़की से दिखता है। जब तक वे शहर नहीं गई थीं, वे सोचा करती थीं कि शहर भी इसी बस्ती जैसा होगा। पीले लट्टूओं वाली झुकी बस्ती जो आगे फैलकर शहर कहलाती है। पर शहर इस बस्ती से कितना अलग है। अगर वे शहर नहीं जातीं तो उन्हें पता भी नहीं चलता कि शहर अलग है। शहर अलग है यद्यपि उनका बचपन वहाँ बीता है, पर वह अलग है। वहाँ कुछ भी नहीं बदला है, पर फिर भी वह अलग है। उस रोज जब वे जीतन काका के साथ शहर गई थीं, तब सारे रास्ते वे शहर को देखती रही थीं – शायद इस गली में पूनो रहती थी। अरे हाँ यह तो वही गली है। महाराणा प्रताप की मूर्ति वाले तिराहे से दूसरी तरफ जाने वाली सड़क, वहीं आगे वह घर था, जहाँ उनका बचपन बीता। वे गाड़ी की खिड़की के कांच से चिपक गई। पर वह दिख नहीं पाया।

स्कूल जाते समय पड़ने वाला गंदा नाला। उसकी बदबू अभी भी वैसे ही है। इस बदबू का उनके स्कूल जाने से संबंध था।. क्षण भर को उन्हें अपनी पीठ पर स्कूल के बस्ते का बोझ सा महसूस हुआ। मस्जिद की लंबी कत्थई दीवार, जिस पर स्कूल से आते समय वे और पूनो चॉक से लिखा करते थे। बेतरतीब ढँग से दीवार को गोद दिया करते थे।...सबकुछ वैसा ही है पर फिर भी वह शहर अलग सा है। चलते–चलते तालाब का गोल घेरा आ गया। तालाब से ठण्ड के कारण भाप का सफेद धुआँ सा उठ रहा था। स्ट्रीट लाइट की रौशनी में लगता मानो तालाब पर कोई दूधिया झिन्नी सी चादर पड़ी हो। इस धुएँ को देखकर उन्हें पिताजी का सिगार याद आ जाता है, जिसमें हमेशा आग धधकती रहती थी। जिसका झितरा सा धुआँ कमरे की हवा में उलझा रहता था।

डॉक्टर पिताजी को सिगार पीने के लिए मना करते थे। सिगार उन्हें भीतर से गला रहा था, पर वे नहीं माने। वे सिगार पीते रहे। कभी–कभी जीतन काका उन्हें सख्ती से रोक देते थे। पर वे नहीं मानते थे। वे सिगार पीने का जस्टीफिकेशन देने लगते। सिगार ही उनकी मौत का कारण बनी। पिताजी बहुत धीमी मौत मरे थे। कई बार पिताजी उन्हें अपनी गोद में बिठा लेते। फिर कुछ सोचते से शून्य में ताकने लगते। वे कहते 'तू तो पराया धन है। लड़कियों को एक दिन घर छोड़कर जाना पड़ता है। कभी–कभी ऐसा कहते हुए पिताजी की आँखों में एक पारदर्शी मोती सा उभर आता था। फिर वे उन्हें अपने पास खींच लेते और देर तक चुपचाप उनका सिर सहलाते रहते। उन्हें पिताजी की बात समझ में नहीं आती थी। उन्हें ऐसी कौन सी जगह जाना है जहाँ पिताजी नहीं होंगे। कोई किसी को कहीं जाने के लिए मजबूर थोड़ी कर सकता है।
उन्होंने जीतन काका से पूछा, "काका मुझे कहाँ जाना हैं?
"किसने कहा?"
"पिताजी कह रहे थे, तू तो पराया धन है। चली जायेगी।"
"अच्छा वो...। शादी के बाद लड़कियाँ अपने पति के घर चली जाती है। तुम्हें भी जाना होगा।"
"पर मैं नहीं जाऊँचागी।"
"बेटा सबको जाना पड़ता है।"
"नहीं मैं पिताजी के पास ही रहूँगी।"
"बेटा ऐसा नहीं होता है।"
"नहीं, नहीं, नहीं...। मैं नहीं जाऊँगी। मैं नहीं जाऊँगी। मैं नहीं जाऊँगी।...बस। चाहे कोई कुछ कहे।" उन्होंने चीखते हुए कहा। उस समय वे सात या आठ साल की रही होंगी। उनके चीखने पर जीतन काका हँस पड़े थे। पिताजी गुजर गये तब वे दस बरस की थीं। फिर वे बड़ी हो गई। उन्होंने शादी नहीं की या यूं कहें उनकी शादी नहीं हुई पर एक दिन उनकी इच्छा हुई थी कि वे शादी कर लें। उस दिन पूनो की चिठ्ठी आई थी।

पूनो उनकी बचपन की सहेली थी। बचपन में स्कूल के बाद घर के गोबर पुते आँगन में वे और पूनो देर तक खेलते थे। आँगन के कच्चे फर्श पर चॉक से चौकोर खण्ड बनाते थे। फिर कूदकर उन खण्डों को पार करना होता था। कभी एक टाँग से तो कभी दोनों से। कभी स्टापू सिर पर रखकर तो कभी आँखें बंद कर। अंत में एक अर्धचन्दाकार खण्ड था। यह समुद्र होता था। वे कई बार समुद्र तक जाकर वापस लौटी थीं। उस खेल में वे सबकुछ भूल जाती थीं। उस खेल के चौकोर खण्डों में सातों समुद्र थे और सातों आसमान। बाद में पूनो की चिठ्ठियाँ आती रहीं। पहले उन चिठ्ठियों में पुरानी बातें और लाड़ होता था। वे चिठ्ठियों का जवाब भेजती थीं। वे चिठ्ठी लिखते समय असमंजस में रहती थीं। क्या लिखूँ? पर अपनी दिनचर्या में से कुछ ना कुछ ढूँढ लेती थीं। दो चार लाइनें। फिर पूनो की शादी तय हो गई। उसका शादी का कार्ड आया। यह बात जीतन काका की मृत्यु के ठीक बाद की है। उन्होंने उस कार्ड को कई बार पढ़ा। उस दिन शाम को खिड़की के पास बैठे–बैठे उन्हें एक अजीब सा सूनापन लगा था। एक सूखी सी इच्छा हुई। काश उनकी भी शादी होती पर फिर लगा अब यह असंभव है। उन्हें रोना आ गया। शायद शादी से ज्यादा वे अपने अकेलेपन पर रोई थीं।

पूनो की चिठ्ठियाँ अब बदल गई थीं। अब उन चिठ्ठियों में उनके और पूनो के बीच राजीव आ गया था। वह बचपन की यादें, आँगन का खेल, चुहलबाजी, प्यार...इन सबको हटाकर आया था। फिर उन चिठ्ठियों से वे सब बातें भी हटने लगीं। उन चिठ्ठियों में सिर्फ पूनो और राजीव रह गये। वे याद करने लगीं। पूनो की आखरी चिठ्ठी कब आई थी। उन्हें याद नहीं आया। पर पूनो उन्हें हमेशा याद रही। गोबर पुते आँगन में एक टाँग पर कूदकर गिट्टा खेलने वाली पूनो...। क्या पूनो भी उन्हें याद करती होगी? वे किसी को आसानी से भुला नहीं पाती है। पर ऐसा सब के साथ नहीं है। पूनो शायद ही उन्हें याद करती हो। ऐसा खयाल आने पर एक अजीब सा सूनापन उन्हें लगने लगा। उन्हें लगता है, शायद यह बात सही है। पूनो उन्हें याद नहीं करती होंगी। पर वे नहीं भूल सकतीं। कुछ लोग नहीं भुला पाते हैं। बिल्किस भी शायद उस आदमी को नहीं भूल पाई हैं। उन्हें फिर से बिल्किस की चिंता होने लगी।
उन्होंने भक्तु से पूछा, "बिल्किस ने कुछ खाया था?"
"मैडम शांता को पता होगा।"
"क्यों, तुम नहीं थे क्या?"
"मैडम मैं था पर लड़कियों को खाना तो शांता खिलाती है।"
"गलत बात है। किसी की तबियत खराब है, मैंने तुम्हें उसका खयाल रखने को कहा था। हमें एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।"
"जी मैडम।"

दोनों फिर चुप हो गये। वह आदमी जब वह पहली बार आया था तब गर्मियाँ थीं। होस्टल के चारों ओर नीम के पत्ते बिखरे थे। पोर्च में मरे हुए कीड़ों का ढेर पड़ा था। जब वह आया तब शाम हो चुकी थी। वह कोई उन्नीस या बीस साल का रहा होगा। वे नारी निकेतन के अपने दफ्तर में बैठी थीं। ग्रिल पर खड़खड़ाने की आवाज़ हुई। उन्होंने शांता को देखने को कहा। शांता ने बताया वह बिल्किस से मिलने आया था। पर उसने यह नहीं बताया कि वह बिल्किस का क्या लगता है। उन्होंने शांता से कहा, वह उसे मना कर दे। होस्टल की लड़कियों से इस तरह कोई अजनबी नहीं मिल सकता है। शांता चली गई। थोड़ी देर बाद शांता फिर आई।
"मैडम वह नहीं जा रहा है। आपसे बात करना चाहता है।"
"मैं नहीं बात कर सकती। कह दो वह चला जाएगा।
पर वह नहीं गया। उन्हें उससे बात करने जाना पड़ा। वह कुछ खोया हुआ सा था, शायद किसी असमंजस में। ग्रिल को ताला पड़ा था। उन्होंने उससे ग्रिल के अंदर से ही बात की।
"मुझे बिल्किस से मिलना है।"
"क्यों?"
यह प्रश्न नारी निकेतन आनेवाले हर अजनबी से उन्होंने पूछा है।
"बस थोड़ी देर को मिलना है।"
"लेकिन क्यों?"
वह चुप रहा।
"तुम उसके क्या लगते हो?"

उन्हें बाद में पता चला कि इस प्रश्न का जवाब उसके पास नहीं था। वह बिल्किस के साथ उसके संबंधों को कोई नाम नहीं दे पा रहा था। शायद ऐसा कोई नाम था ही नहीं। ऐसा कोई भी नाम जो उसे बिल्किस के साथ जोड़ दे। हाड़ और माँस की तरह, ऐसा कोई भी नाम जिसके ना होने से जीवन ही ना हो।
"बताओ भई तुम उसके क्या लगते हो?"
"बस एक बार मिलवा दीजिए प्लीज। मैं बहुत दूर से आया हूँ, बहुत मुश्किल से। मैं मिलने के बाद तुरंत चला जाऊँचागा।"
"तुम्हारा नाम?"
"अभिषेक...अभिषेक दुबे।"
शायद इस नाम की आवाज़ होस्टल के भीतर तक चली गईं। बिल्किस ने सुन लिया। वह लगभग लपकती हुई ग्रिल के पास आई। वे अपने चैम्बर में वापस लौट गई।

चैम्बर में बैठे–बैठे वे उन दोनों के बीच की बात सुनने की कोशिश करती रहीं। पर उन तक आते–जाते वे बातें इतनी बिगड़ चुकती थीं कि बस उनके होने का अहसास होता था। यह नहीं जाना जा सकता था, कि वे बातें किस विषय पर थीं? क्या थीं? बिल्किस और अभिषेक के बीच सिर्फ बातें थीं। बीच की ग्रिल और ताला उन दोनों को अलग करता था। फिर उस ग्रिल और ताले ने उनके बीच की बातों को भी अलग कर दिया। एक कटी हुई अधूरी बात जो बिल्किस के साथ रह गई। जो उसकी चुप्पियों में डूबती उतराती सी है। एक अधूरी बात जो अभिषेक के साथ चिपकी होगी जिसे साथ लिये वह भटकता होगा।

पर बातों के कटने से पहले ग्रिल खड़खड़ाई थी। उस पर लगा ताला और चेन लोहे के सरिये से टकराकर तेज आवाज करने लगा था। लोहे की पट्टी पर सरकने वाले पहिये चूं–चूं करने लगे थे। पर उन सब आवाज़ों से ऊपर एक और आवाज़ थी, बिल्किस की चीखती आवाज जिसे उन्होंने स्पष्ट सुना था जो उन तक आते–आते बिगड़ नहीं पाई थी। वह इतनी स्पष्ट थी कि वे आज भी उसे सुन सकती हैं।

"अगर यह असंभव था...तब यह सब। हे भगवानॐ मैं मर क्यों नहीं गई।...फिर तुम आज क्यों चले आए मेरी पीड़ा को और बढ़ाने। यू चीटर...।" ग्रिल खड़खड़ाती रही। शायद आज भी बिल्किस के अंदर खड़खड़ा रही है। उस दिन वे देर से घर आई थीं। वे रात देर तक बिल्किस के कमरे में उसके पास बैठी रहीं। बिल्किस अपने बिस्तर में अपने पैर मोड़कर बैठी थी। उसका सिर उसके घुटनों के बीच था। वे उससे कुछ कहना चाहती थीं पर क्या कहें? उन्हें सूझ नहीं रहा था। वे चुपचाप बैठी रहीं। बिल्किस का सिर सहलाती रहीं। बाद में उन्हें एहसास हुआ कि उस समय चुप्पी से बेहतर शायद कुछ नहीं होता। वे जब उस कमरे से बाहर निकलीं तब तक बिल्किस सिसक रही थी। फिर एक दिन वह उनके पास आई। उस दिन वे अपने दफ्तर में बैठी थीं। वह चुपचाप उनके सामने खड़ी रही।
"क्या बात है?"
"मैम आपसे एक बात कहनी है।" बिल्किस गले में जैसे कुछ अटका सा था।
"हाँ, हाँ...कहो।"
"मैम मैं प्रेगनेण्ट हूँ। मैंने सोचा नहीं था कि यह बात मुझे किसी से इस तरह कहनी पड़ेगी। किसी दूसरे से...झिझकते हुए।"
बिल्किस कमरे की छत की ओर देखने लगी। उसकी काली आँखों में दो बूँदें उभर आई।
"घबराओ नहीं...।"
उन्होंने उसे आश्वस्त करना चाहा। पर वे खुद थोड़ा घबरा गई। क्योंकि यह बात छुपने वाली नहीं है। जब मेम्बर्स को पता चलेगा तब वे सारा इल्जाम उनके ही सिर मढ़ सकते हैं।
"मैम मैं यह बच्चा नहीं चाहती हूँ। क्या आप मेरी मदद करेंगी?"
"मैं डॉ श्रीनिवासन से बात करूँगी।"
"मैम एक और रिक्वेस्ट है। यह बात अगर किसी और को पता नहीं चले तो अच्छा रहेगा।"
"मैं समझ सकती हूँ, तुम निश्चिंत रहो।"
फिर उन्होंने डॉ श्रीनिवासन से बात की। बड़ी मुश्किल से वे उन्हें राजी कर पाई थीं कि बात किसी भी मेम्बर को ना बताई जाय और चुपके से बिल्किस का एबॉर्शन करवा दिया जाय। फिर बिल्किस को अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल से लौटे उसे दो रोज हो चुके हैं। पर अभी तक उसकी तबियत पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है।

तभी उनके पैर में एक पत्थर लगा। सी–सी करते हुए उन्होंने अपना एक पैर जमीन से ऊपर उठा लिया। थोड़ी देर को खड़ी हो गई। भक्तु उनके पैर की ओर टॉर्च की रोशनी फेंकने लगा।
वे जल्द ही होस्टल पहुँच गई। हरी घास के लंबे चौड़े मैदान के बीच एक बड़ी सी गुलाबी बिल्डिंग, पोर्च के ऊपर जलती ट्यूब की रोशनी में हवा से लहराती घास दीख रही थी। किसी लहर की तरह एक ओर से दूसरी ओर तक।

होस्टल की गुलाबी दीवार पर कोयले से क्रिकेट के स्टंप बने हैं। ये मुहल्ले के बच्चों ने बनाये हैं। वे अपने खेलने की जगह बदलते रहते हैं। फिर दीवार पर स्टंप भी नयी जगह बन जाते हैं। उनकी क्रिकेट की गेंद कभी–कभी घास में गुम जाती है। फिर नहीं मिलती है पर वे खेलते हैं। पहले उन्होंने बच्चों को यहाँ नहीं खेलने की हिदायत दी थी, पर वे नहीं माने। एक बार उन्होंने एक बच्चे को पकड़ लिया। उसे दो चार चपत भी जड़ दिये। वह जोर–जोर से रोने लगा। वे कुछ घबरा गई। पर इस बात को समय हो गया है। उस घटना के बाद कुछ दिनों तक बच्चे उन्हें आते देखकर भाग जाते थे। फिर उन्होंने भागना छोड़ दिया। वे उन्हें आता देखकर बस गाय की तरह चौकन्ने हो जाते थे। पर अब वे निश्चिंत हो गये हैं। उन्हें विश्वास है कि वे उन्हें नहीं मारेंगी। इस बीच उनकी दोस्ती उनमें से एक लड़के से हो गई। वह अक्सर उनके पास आ जाता, कभी उनके दफ्तर में, कभी घर में, कभी होस्टल में, कभी होस्टल के लॉन में,...।

वह अक्सर उनके पास आ जाता है, फिर उनसे बतियाता है। वह सिर्फ अपनी बात सुनाता है, उनकी कोई बात नहीं सुनता है। वह बहुत छोटा है। जब वे उससे पूछती हैं, तब वह उनकी बात का जवाब ना देकर अपनी कोई नई बात चालू कर देता है। कभी–कभी वह उन्हें छूकर दूर भाग जाता है। जब वह ऐसा करता है, उन्हें बहुत अच्छा लगता है। जब वह नहीं आता है, वे उसके भाई से उसके बारे में पूछती हैं। उसका भाई उन लड़कों के साथ क्रिकेट खेलता है। वे लड़के अब आश्वस्त हैं कि वे उन्हें परेशान नहीं करेंगी। यह अहसास उन्होंने पैदा होने दिया है। वे चाहें तो उम लड़कों को भगा सकती है। पर उन्हें मालूम है कि उन सबके चले जाने के बाद वह छोटा लड़का भी चला जायेगा, क्योंकि वह अपने भाई के साथ आता है। भाई नहीं आयेगा तो वह भी नहीं आयेगा।

शांता ने होस्टल की ग्रिल खोली और ताला चाभी पकड़े हुए एक तरफ खड़ी हो गई। उन्हें इस ग्रिल की मजबूती पर हमेशा शक रहा है। वे सीधी बिल्किस के कमरे में गईं।
"तुम अब तक जाग रही हो?"
बिल्किस अपने बिस्तर पर बैठी कोई किताब पढ़ रही थी।
"थोड़ी देर से सो जाऊँचागी।" उन्हें उसकी आँखों के चारों ओर का कालापन पहले से ज्यादा लगा। वे उससे कुछ कहना चाहती हैं, पर कह नहीं पा रही हैं। वह बात उनके मन में हैं, आकारहीन बात जिसे वे कोई रूप नहीं दे पा रही हैं।
"चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा।"
"जी...।"
"तबियत कैसी है?"
"..." उसने ठीक है की मुद्रा में अपना सिर हिला दिया। वह ढँग से बात नहीं कर पा रही थी। उसे शायद थकान लग रही थी, शायद कमजोरी भी।
"चलूं...।"
"गुड नाइट।"
"गुड नाइट।" वे घर लौट आई।

सारा दिन निकल गया, वे सोचती रही। सारा दिन तो नहीं पर पूरी शाम वे सोचती रहीं। पर उन्होंने नया कुछ भी नहीं सोचा। सब वही घिसी पिटी यादें...माँ की फोटो, शीना की जिद्, बेमन से शहर जाना, डॉ श्रीनिवासन, शहर जो नहीं बदला पर फिर भी पराया सा लगता है, पूनो की बातें, उनका अकेलापन जिससे उन्हें एक बार रुलाया था, रत्ना की बातें, जीतन काका की मौत, होस्टल की डारमेट्री की खिड़कियाँ जिन्हें उन्होंने बंद करवा दिया है, तालाब से उठने वाली भाप और पिताजी के सिगार का धुआँ, उनकी शादी की बात, होस्टल की दीवार पर कोयले से बने क्रिकेट के स्टंप के निशान...।

एक सी बातें जिन्हें वे अक्सर याद करती रहती है। जब याद करती हैं तब उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहता है। उन्हें एक तरह से याद करना ही पड़ता है। वे यादें उन्हें छोड़ती नहीं है। वे जब याद करती है तब पागलों की तरह लगातार याद करती है। वे उन यादों में बह जाती है। बिना किसी रोक के। हवा में उड़ते–गिरते, अटकते, बहकते, सूखे पत्ते की तरह। उन बातों को उन्होंने कई बार याद किया है। इन यादों के अलावा और कुछ उनके पास याद करने को नहीं है। हाँ सचमुच नहीं है। मुठ्ठी भर यादें जिन्हें वे बार–बार याद करती है। सीमित यादें, इतनी सीमित कि वे अपनी यादों को उँगलियों पर गिन सकती हैं। इन सीमित यादों ने उन्हें उनमें डूबने की गुंजाइश दी है। हाल ही में इन यादों में एक और याद जुड़ रही है।

बिल्किस की बातें, उसकी यादें। उसे होस्टल आये ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। उसकी बातें अभी नई है। उसकी बातें अभी याद नहीं बनी है। वे बस उनकी यादों में जगह बना रही हैं। पर इससे क्या अंतर पड़ता है? क्या उनकी यादें बढ़ जाएँगी?...बस एक और याद जुड़ जायेगी, सिर्फ एक और याद। उँगलियों पर एक गिनती ज्यादा जिसे वे बार–बार याद करेंगी। जिसे वे एक ही तरह से याद करेंगी। शाम को खिड़की पार का संसार देखते हुए। संसार को अँधेरा होते हुए देखते हुए। वे उन बातों को याद करेंगी। वे उन बातों को कभी–कभी याद करेंगी। उन्हें याद करना ही होगा, क्योंकि जब वे याद करती है तब उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रह जाता है।

उस रात उन्हें एक अजीब सा सपना आया। घुप्प काले अँधेरे में कई सफेद–काली आकृतियाँ भागती जा रही हैं। जब उन्होंने उन आकृतियों को पास से देखा तो वे उन्हें पहचान गईं। वे होस्टल की लड़कियाँ थीं...रत्ना, बेबी, संतोष, बिल्किस, अपर्णा...। वे होस्टल की इमारत से निकालकर घास के मैदान में अलग–अलग दिशाओं में भाग रही थीं। शांता चीख रही थी। वे उन लडकियों को रुकने को कहना चाह रही हैं पर जैसे किसी ने उनका गला दबा दिया हो। वे चिल्ला नहीं पा रही है। नारी निकेतन की सारी खिड़कियाँ गायब हो गई हैं। खिड़कियाँ उन बत्तों और लोहे की पट्टियों के साथ गिर पड़ी है, जिन्हें उन्होंने डॉरमेट्री में ठुकवाया था। खिड़कियाँ पूरे चौखट के साथ गिर पड़ी है। होस्टल की दीवार में बड़े–बड़े छेद हो गये हैं। लड़कियाँ इन्हीं छेदों से निकलकर भाग रही हैं। वे उन्हें पकड़ने उनके पीछे भागना चाह रही हैं पर भाग नहीं पा रही है।

वे घबराकर जाग गई। थोड़ी देर बिस्तर पर ही बैठी रहीं। फिर पानी पीया, लाइट जलाई और स्टडी टेबल पर बैठ गई। टेबिल की ड्रॉर खोली, एक डायरी निकाली। उसमें से एक एड्रेस नोट किया। फिर उस एड्रेस पर एक पत्र लिखने लगीं।

प्रिय नरेश जी,
आशा करती हूँ आप ठीक होंगे। विशेष प्रयोजन से पत्र लिख रही हूँ। आप उस क्षेत्र में एक प्रभावशाली अधिकारी हैं। हमारे होस्टल में एक लड़की है, उसका नाम रत्ना है। करीब बीस साल पहले वह हमारे इस होस्टल में भर्ती हुई थी। वह पुलिस को रेल्वे स्टेशन में मिली थी। उसके बताये अनुसार वह उसी क्षेत्र की जान पड़ती हैं जहाँ आप पोस्टेड हैं। उसके पिता उस समय जब वह मिली थी तब शिक्षक थे, संभवतः मिडिल स्कूल में। जब रत्ना मिली थी तब उसने नीले रंग की फ्रॉक पहन रखी थी... लिखते–लिखते वह रुक गई। वे सोचने लगीं...यह कौन सा वां पत्र होगा? उन्होंने रत्ना के घरवालों को ढूँढने के लिए ऐसे कितने पत्र लिखे हैं? उनके पास हिसाब नहीं है। शायद हजार एक, शायद उससे भी ज्यादा, वे नहीं गिन सकतीं। पर वे अपनी यादें गिन सकती हैं। वे अपनी उँगलियों पर अपनी यादें गिन सकती हैं। उन्होंने खिड़की के पार देखा, रात के दो बजे हैं। खिड़की पार के शहर के झिलमिलाते बिंदुओं में से कुछ बुझ गये हैं। हमेशा की तरह देर रात को इस झिलमिलाते शहर की कुछ लाइटें बुझ जाती हैं।

पृष्ठ- . .

९ दिसंबर २००३

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।