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सब कुछ यहाँ-वहाँ, ऊपर-नीचे बेतरतीब हो रहा है और मेरे अंदर की पैंतीस साला, सुदक्ष गृहिणी, एक सनाके में आयी-सी सब कुछ देखे जा रही है
"जी नहीं पहचान तो रही हूँ आ़ ------शायद "

"केशी! हाँ मेरे अंदर की समेटी हुई धड़कनें फिर बिखरने लगती हैं। बस, एक बार जरा-सी बहुत पुरानी पहचान की बात पर औ़र मैं उँगली पर इतना ढेर सारा पल्लू समेट डालती हूँ कि मेरी पैंतीस साला गृहिणी मुझे फटकार उठती हैं ओ़फ्फोह! केशी ही सही तो क्या हुआ? इ़स नाम को थोड़ा-सा जान भर लेने को छोड़कर और वास्ता ही क्या है तुम्हारा इससे? कहाँ का कहाँ सदियों पहले का देखा हुआ आदमी ज़िसे न कभी याद किया, न जिसके नाम को बिसूरा, आज दिख गया तो अल्हड़ किशोरी-सी पल्लू समेटने लगी हो उँगलियों पर ऐसे-ऐसे तो हजारों नाम जोड़े जा सकते हैं जिंदगी के इतिहास में पर जहाँ तक मुझे याद है यह कोई जुड़ सकने या लिखा जा सकने वाला नाम तो बिलकुल नहीं

"हाँ -- बिलकुल नहीं मैंने अपनी पैंतीस साला गृहिणी के सामने हथियार डाल दिये हैं और उँगलियों में लपेटे पल्लू का छोर फर्र से खोल दिया है।

गृहिणी फिर अपनी आदत के मुताबिक सीख देने लगी हैं औ़र फिर पता नहीं यह इतने साल बाद एकाएक क्यों आया हैं ज़रूर कोई स्वार्थ, मकसद या कोई-न-कोई काम होगा। रवि ने और मैंने इसका फोन पाने के बाद आपस में मशविरा भी तो किया था कि बात बिना बात भला जाने कहाँ का कहाँ रिश्ता जोड़कर कोई केशी यह जहमत क्यों उठाने लगा? जरूर रवि के ऊँचे ओहदे का फायदा उठाकर कोई जानकारी, नौकरी, सिफारिश, प्रमोशन क़ोई-न-कोई बात तो होगी ही वरना यों बिना बात कौशल वर्मा -- या केशी ही सही, क्यों पधारने लगे? सो, बस यों ही झटपट निपट लेना है जैसे आये दिन आनेवाले ऐरे-गैरों से निपटती रहती हूँ।

लेकिन आगंतुक यानी कि तुम कह रहे हो --
"आ --प त़ुम बहुत छोटी थीं, जब तुम्हें देखा था।"
"जी हाँ।" मैं खिलखिलायी थी क्योंकि अब तक अपने-आपको काफी कुछ सँभाल चुकी थी।" जाहिर है, आप भी तब छोटे ही रहे होंगे।" जरूर मतलब की बात पर आने से पहले भूमिका बाँध रहा है।
"हाँ था तो पर इतना नहीं कि सबकुछ भूल सकता।"
"क्या --" यह कह नहीं पायी थी, यह सिर्फ मेरे अंदर के प्रश्न की प्रतिध्वनि थी। ऊपर से हँसकर बड़ी सहजता से पूछा था --
"अच्छा? क्या नहीं भूले आप?"
"बताऊँ? सबसे पहले आप त़ुम्हारी पीले फूलों वाली फ्रॉक की।"
"मैं मेरी फ़्रॉ --क! अवाक् हतप्रभ हड़बड़ा उठी थी मैं।
यह यह आगंतुक ये सब क्या कह रहा है! जैसे किसी अनाम सम्मोहन से आँखें ढप गयीं हों और जादुई करिश्मे से वह सफेद फूलों वाली फ्रॉक मेरे गले में सरकती आ पड़ी हो और मैं यहाँ-वहाँ छुपने की कोशिश करने लगी होऊँ मेरे अंदर से एक छोटी-सी धड़कन छिटक पड़ी है।
"और?"
"और पीला रिबन।"
"रिबन। "
"हाँ -- दो कसी चोटियों में गूँथा हुआ रिबन।"

मैं उँगलियों में दबा पल्लू का छोर फिर से समेटकर भींच लेती हूँ और अनायास मेरी उँगलियाँ, कानों के पास की दो लटें सहला उठती हैं जैसे वहाँ अभी भी कसी-कसी चोटियों का एहसास बाकी हो मेरे होंठ हलके से बिंधे हैं। मेरी गृहिणी परेशान-सी, हैरान-सी देखती रह जाती है। मैं अधटूटे वाक्य में किसी तरह कह पाती हूँ
"पता नहीं हाँ, थोड़ा-थोड़ा याद है उस पीले फ्रॉक की औ़र रिबन की।"
"लेकिन मुझे पूरा याद है।" तुम इस बार हँसे नहीं। जैसे कहीं बहुत गहरे में डूब गये मेरे देखते-देखते।
"बहुत-बहुत साल हो गये न!"
"किस बात के?"
"वही, सन्नो बुआ की शादी के।"
"हाँ, तभी का तो देखा है आप त़ुमको।"
"हाँ, मैंने भी।"
"जाहिर है बिलकुल "तुम हँस पड़े थे। और मैं अपनी इस बेवकूफी भरी उक्ति पर एकदम शरमा गयी थी। सच ही तो बात थी -- भला जब का तुमने देखा होगा तभी तो मैंने भी। फिर यह कहने की तुक ही क्या? यह भी कोई बात हुई इस वयस्क-सी उम्र में अटपटाकर कहने की? मैंने भूलकर आँखें उठायी कि तुम्हारी आँखों में कितनी और कैसी हँसी हैं। लेकिन देखा तो तुम्हारी दृष्टि में सिर्फ ढेर सारे रेशमी पंख थे। मैं एक भी पंख न बटोर पायी। आँखें संकोच से झुक गयी थीं। तुम फिर से उस पीले फूल वाली सदी के छोर पर पहुँच गये थे।
"उस शादी में, तुम्हें याद है -- एक शाम करीब आधे घंटे के लिए बिजली ही चली गयी थी पूरे मुहल्ले की "
"हाँ-हाँ याद है मौसा जी, फूफा जी, सब लोग परेशान थे कि शादी की लग्न इतनी तेज है कि गैस के हंडे तक नहीं मिल रहे "
"सब लोग ढूँढ-ढूँढकर मोमबत्तियाँ जला रहे थे।"
"मोमबत्तियाँ जल गयीं तो तय हुआ कि इस अंधेरे में और कुछ तो हो नहीं सकता, चलो गाने की अंताक्षरी की जाये।"
"हाँ, हाँ, एक ग्रुप सब आदमी लोग और लड़के और दूसरे में औरतें और लड़कियाँ, मैं उत्साहित थी।"
"तुम्हारी वाली पार्टी एकदम बेकार थी। ज्यादातर बिना बात शरमाने वाली, और देर तक ना-ना करके तब पीं-पीं कर गाने वाली लड़कियाँ थीं।"

"लेकिन आपके ग्रुप में तो किसी को भी गाने का शऊर नहीं था सब गलत और बेसुरा गाते थे एकदम ऊटपटाँग "
"उससे क्या ह़म सब किसी अक्षर से गिरते ही फौरन गाते थे तुम लोग देर लगाती थीं और हर बार अपनी पार्टी को हार से बचाने के लिए तुम्हीं गाती थीं।"
"हाँ -- क्या करती।" मैंने उदासी और तुनक से एक साथ कहा।
"लेकिन कितने सारे गाने याद थे तुम्हें? बाप रे इ़तनी छोटी थी तुम, फिर भी जब गाती थीं तो हमारी तरफ के सब लोग सिर हिलाकर वाहवाही जताते थे।"
"पता नहीं।" मैं झेंपी "क्या-क्या गाती पता नहीं उन दिनों ज़ाने कहाँ-कहाँ के गाने।"
"मुझे याद है, तुमने कौन-कौन-से गाने गाये थे उस दिन।"
मैंने देखा तुम मेरे आगंतुक, फिर डूब रहे थे मैंने तुम्हें चुहल से ऊपर खींचा हँसकर बोली, "हुँह, वैसे तो मुझे भी याद है आप कैसे एक बार, एक गाने के बीच के शब्द एकदम भूलकर शरमा गये थे सब लड़कियाँ हँसने लगी थीं, अँधेरे में दिल-दिल करतीं एक-दूसरे के कान में फुसफुसाने लगी थीं -- "बहराइच वाली मामी के छोटे भाई हैं बीच में भूल गये, गाना।"
"मेरी तरफ भी सब फुसफुसाते थे वही पीली फ्रॉक वाली है न अकेली झाँसी की रानी-सी लड़े जा रही है जीत के लिए व़रना इन सबको तो कभी का हरा दिया होता।"
"ओह आ़पको कितना कुछ याद है? "
"हाँ, मुझे सब कुछ याद है यह भी कि तुम्हारी पार्टी अंत में हार गयी थी।"
धक् वह हार मेरे जेहन में सचमुच आज तक मौजूद थी; यह मुझे आज ही पता चला था जाने कैसे मैं भी सदी के उस छोर पर पहुँच गयी थी। सिर झुकाकर उदास स्वर में मैंने स्वीकारा था -- "हाँ -- "
"और -- तुम आँगन के कोने वाले खंभे के पास जाकर चुपचाप खड़ी-खड़ी रोयी थीं।"
"नहीं, नहीं तो" ल़ेकिन मेरी आवाज खुलेआम काँप रही थी। मैं रूक-रूककर हार मानती-सी बोली थी, "लेकिन आ--प-को कैसे मालूम।"
"कैसी अजीब-सी बात है न जबकि खुद तुम्हें छोड़कर अभी तक किसी को नहीं मालूम न कि आज से बाईस साल पहले तुम घुप् अँधेरी रात आँगन के कोने वाली खंभे से टिकी रो रही थीं नि:शब्द ए़क जरासी अंताक्षरी हार जाने पर।"
"लेकिन आ़पने कैसे जाना चारों तरफ तो अँधेरा था।"
"मैं उस अँधेरे में उस खंभे के पास से हाथ में मोमबत्ती लिए गुजरा था।"
"जानबूझकर?" आह कैसी बेसब्र हुई जा रही हूँ मैं?
"यह नहीं बताऊँगा।"
और तुम्हारी आवाज मोमबत्ती की लौ-सी ही काँपी थी। क्या हो गया था मेरे मन को? कितनी-कितनी उतावली हो रही थीं मैं लेकिन क्यों?
"पता नही श़ायद उस समय खुद मुझे भी नहीं मालूम था कि क्यों जब तुम अंधेरे में खंभे के पास खड़ी रो रही थीं, मैं तुम्हारे पास जाना चाहता था अ़सल में बड़े भइया ने ताश माँगा था तो सबसे पहले मैं ही झटपट उठ गया था।"
"लेकिन वह मेरे रोने वाली बात?" मेरी उतावली और औ़र सिहरती चली जा रही थी।
"यों ही --, जाने क्यों मुझे पहले ही से बुरा लग रहा था। मैं सोच रहा था कहीं तुम रो न दो अ़सल में मैं तुम्हें दिलासा देना चाहता था सच, बहुत बुरी लग रही थी तुम्हारी हार बहुत-बहुत ममता आ रही थी तुम्हारे रोने पर।"

मैंने हैरान आँखें उठायीं थीं। इस बार तुम्हारी आँखों में पंख नहीं थे; लेकिन इतनी साफ झलझली गहराई थी कि मुझे लगा कोई भी डोंगी लेकर इस गहराई में न तिर पाऊँगी स़ो, किनारे से ही घबड़ाकर लौट पड़ी।

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