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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से राजेश जैन की कहानी—"प्रोग्रामिंग"।


यह इक्कीसवीं सदी के संध्याकाल का एक भारतीय महानगर हैं – सम्पूर्ण परिवेश 'इंटरनेट' की न दिखने वाली सूक्ष्म इलेक्ट्रॉनिक तरंगों के गसे हुए जाल में बँधा पड़ा है। 'हार्ड प्लास्टिक' की दीवारों से बने हुए अपार्टमेंट्स में लोग बैठे–बैठे पूरा कारोबार कर रहे हैं। सड़कों पर बाहर तभीं निकलते हैं जब पर्यटन की इच्छा हो या बदलाव के लिए वाकई किसीसे रूबरू मिलना हो, अन्यथा टी.वी. साइज के 'पावडा' (पर्सनल आडिओ विजुअल डिवाइस एपरेटस) घर–घर में कल्पवृक्ष की भाँति लगे हैं और अपने कमाए हुए 'मेन मिनट्स' खर्च करके लोग अपने–अपने 'पावडा' से अपना अपना काम कर रहे हैं –– फैक्ट्री हो या आफिस...सबका कंट्रोल पावडा की मदद से घरमें ही हो जाता है, हाँ कभी–कभार संकटकाल में जाना पड़ता है तो इमारत के तलघर में खड़ी स्वचलित कारों से प्रोग्रामिंग करके बगैर ड्राइविंग तनाव के वे यहाँ से वहाँ कुछ ही क्षणों में पहुँच जाते हैं...।

पर यह मुफ्त नहीं हैं। पूरे तंत्र में जो जितना योगदान करता है, उसके अनुकूल उसे रूपयों की तरह 'मेन मिनट्स' का भुगतान होता है। लोग जब तब मेन मिनट्स का बैलेंस देखकर चिंता करते रहते हैं...उसे बढ़ाने के लिए काम करते हैं...यही एक प्रेरणा हैं जो लोगों को व्यस्त रखती है –– काम करने के लिए दबाव डालती है।

विभा और विकास पति–पत्नी हैं। एक फ्लैट में रहते हैं। दोनों ही इंजीनियर...विभा 'जेनटिक इंजीनियरिंग' में स्नातक है तो विकास 'एरोनाटिक्स' में।

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