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खाला ने सोचा शायद डाक्टर अनवर कुछ दिनों में मान ही जायें। खाला ने तो यहां तक कहा था कि तू अनवर को मना ले; मैं तेरी सब ख्वाहिशें पूरी कर दूंगी। अनवर एक सरकारी अस्पताल में डाक्टर था। सलमा को यही अच्छा लगता था। बंधी बंधाई तनख्वाह हो तो आदमी अपने रहने का एक ढंग बना लेता है, रोजगार में तो कभी दस तो कभी दो; चैन नहीं। लेकिन यह तो बाद की बात है। सलमा को चैन कहां?

उस दिन खाला सलमा को ले कर बिरादरी में सोग करने गई थी। वहीं मिले हाजी साहब और उनकी बीबी, उन्होंने सलमा को देखा तो देखते ही रह गये। सोचा अगर उनके मझले बेटे से इसकी शादी हो जाये तो शायद बेटा रूप के बंधन में बंध कर सुधर जाये। फिर इधर उधर पूछा तो, तो खाली के कान तक भी बात पहुंच गई। चार दिन बाद पैगाम भी आ गया। तमीना का दिल एक बार तो छटपटा कर रह गया। कहां अजरा का डाक्टर बेटा और कहां ज़मीर? लेकिन फिर भी खूब खुश होकर बोलीं, "चलो, जब समय होता है तो सब कुछ हो ही जाता है। उनकी अपनी कपड़े धोने की दुकान है। खूब चलती है। किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी। ज़मीर ज्यादा पढ़ा नहीं है तो क्या, देखने सुनने में तो कोई बुरा नहीं हैं। सलमा ने भी राहत की सांस ली। जो है वही ठीक है। तमीना चाहती थी कि निकाह दो महीने बाद हो लेकिन, हाजी साहब राजी नहीं हुये, बोले अगले हफ्ते ही निकाह करा दें तो ठीक रहेगा। निकाह में मेहर की रकम के लिये खाला ने ज़ोर देना चाहा, लेकिन हाजी साहब कुछ साफ बोल नहीं रहे थे। तो उन्होंने भी सोचा कि करना ही क्या है, अगर ज़मीर ठीक रहे तो फिर मेहर की ज़रूरत ही क्या पड़ेगी। और फिर कहीं इसी चक्कर में हाजी साहब भी मुकर गये तो हाथ आया मौका निकल जायेगा। पाकिस्तान भी खबर कर दी। सीधे सादे ढंग से निकाह करा कर सलमा ससुराल आ गई। मां बाप भी खुश हुये, गाने करवाये, मिठाई बंटी, बस अब अल्लाह सलमा को खुश रक्खे।

सलमा बीच बीच में खाला को फोन करती रहती। मैं तो बहुत खुश हूं, सब मेरा खयाल रखते हैं, मुझे कोई कमी नहीं है। लेकिन सलमा को लगता, ज़मीर अधिकतर तो बाहर ही रहता है। पर जब घर में रहता भी है तो मीलों दूर ज़ज़बाती तौर पर वह हमेशा अलग सा हो जाता है। जिस्म ही तो सब कुछ नहीं होता।

सलमा के दिन अच्छी तरह बीत रहे थे। उसका मन होता कि कभी वह ज़मीर के साथ घूमने बाहर जाये, लेकिन सास कभी भी उसे कहीं जाने को कहती नहीं थी। अगर कहीं जाना हो तो वह अकेले ही जाती थी। सुबह शाम बस खाना बनाना, घर साफ करना, घर में अगर कोई आये भी तो सास उसे चाय बनाने या कोई और काम के बहाने वहां से हटा देती। कभी वह खिड़की के पास खड़ी हो जाती, बड़ी बड़ी बसों को देखती, मन होता कि वह भी बसों में बैठकर घूमने जाये। ज़मीर के साथ जाकर अच्छे–अच्छे कपड़े खरीदे, फिर सोचती कि शायद कुछ दिन बीतने पर उसकी सास खुद ही कहेगी, एक दिन घर में बहुत से रिश्तेदार आये थे, दूध खतम हो गया था। उसकी सास ने कहा, "सलमा ज़मीर से कुछ पैसे ले आ! पास की दुकान से कुछ दूध ले आऊं।" 

सलमा ऊपर गई, ज़मीर वहां नहीं मिला पर उसका कोट टंगा था। उसने जेब में हाथ डाला कि कुछ चेंज निकाल कर सास को दे आये। चेंज के साथ साथ एक फोटो भी हाथ में आ गई। फोटो देख कर उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। उधर नीचे से सास आवाज़ लगा रही थी। जैसे तैसे कर के वह नीचे गई। सास को पैसे दे कर फिर वापस उपर आ गई। फोटो थी ही इतने बेतुके ढंग से कि कुछ भी सफाई की ज़रूरत नहीं थी। सलमा यही सोचती रही कि क्या करे सास से कुछ कहे या चुप ही रह जायें। सलमा को लगा था जैसे जीते जी उसे किसी ने बर्फ की सिल्लीपर लिटा दिया। वह क्या करे? क्या खाला के पास फोन करे। नहीं! यह लड़ाई अब उसे अकेले ही लड़नी है। 

शायद सास को भी न मालूम हो। हाज़ी साहब तो ज़रूर ही ज़मीर को समझायेंगे। कि सास की तेज़ आवाज़ आई, "सलमा नीचे सारा काम फैला पड़ा है।" 
वह झुलसते मन से नीचे आई, जैसे ही चाय के बरतन समेटने लगी, उसके कांपते हाथ से ट्रे छूट गई। 
हाजी साहब भी बाहर से दौड़े आये, बोले, "ज़रा काम संभाल कर किया करो। सारी चीजें इतनी महंगी हो रही है।" 
सलमा ने कुछ कहा नहीं, बस दौड़ी गई और ऊपर से फोटो ला कर सास के हाथों में रख दी और खुद ऊपर जाकर बिस्तर पर गिर पड़ी। सारी मज़बूरी, बेबसी ही उसके हिस्से में पड़ी थी। सलमा को लगा कि वह हर तरफ से हार गई। घर छूटा, मां बाप भाई बहन सब को छोड़ कर वह एक सपना लेकर यहां आई थी। सास ऊपर आकर बोली, "कोई मुसीबत की बात तो नहीं है! मर्द जात तो रहते ही इसी तरह है।" 

सलमा को धक्का लगा। वह समझ गई कि यहां कोई भी उसकी बात समझने वाला नहीं है। एक शर्त अनवर ने रक्खी थी शादी से पहले साथ रहने की, अब यह दूसरा जाल। अनवर की शर्त से तो निज़ात मिली पर क्या वह सही मायनों में आज़ाद हुई है। पहाड़ से गिर कर वह नीचे लुहूलुहान हो कर पड़ी है, सहारा कौन देगा। उसके सारे वजूद पर एक सवालिया निशान लगा है। सास ने घुमा फिरा कर यह भी बता दिया कि घर की इज्ज़त घर में ही रहनी चाहिये। मतलब खाला या किसी से भी इसका ज़किर करना गुनाह ही होगा। और यह भी कि कुछ गलती उसकी भी होगी।

सलमा के लिये घुटन बढ़ती जा रही थी, न कोई रोशनी का एक कतरा दीखता न ऐसा अंधेरा कि उसमें डूब कर सब कुछ खतम हो जाये। सलमा को आज यह एहसास हुआ कि कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जो न मरने देते हैं न जीने। वह जिस गहरी खाई में धंसती जा रही थी, वहां से निकलना कैसे होगा। उसका सिर दर्द से फट रहा था। उसने बड़ी हिम्मत करके ज़मीर से शिकायत की लेकिन वह उसके तेवर देख कर दंग रह गई। 
ज़मीर बोला, "मैं उसे घर में लाकर नहीं रखता यही क्या कम है। खबरदार अगर आज के बाद कुछ कहा। तुम्हें खाना कपड़ा चाहिये और क्या? मैं जैसे भी चाहूं रहूं तुम्हें कुछ भी बोलने का हक नहीं है।" 
सुनते ही सलमा के सारे शरीर में आग फैल गई। उसने कांपते हुए पूछा, "क्या हाज़ी साहब के सामने भी तुम ऐसी बात कह सकते हो।" 
ज़मीर ने हंस कर कहा, "तुम किस घमंड में हो? उन्हें सब कुछ मालूम है।" 
दुख और क्रोध से कांपती सलमा वहीं बैठ कर सिसकने लगी। ज़मीर पैर पटकता हुआ बोला, "मैं उसे कलमा पढ़ा कर दूसरा निकाह करा लूंगा। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम चुप रहो।" और चीखता चिल्लाता घरसे बाहर चला गया। थोड़ी देर बाद फोन की घंटी बजी, सलमा ने बड़ी हिम्मत करके फोन उठाया, उधर से खाला की आवाज़ आई, सलमा ने खाला से बड़ी आरजू की,"खाला मुझे ले चलो वर्ना मैं मर जाऊंगी।" 

उस समय इत्तफाक से घर पर कोई न था। खाला ने बहुत समझाया हाज़ी साहब और उनकी बीबी कोई भी सलमा को भेजने के लिये तैयार नहीं हुए। सलमा समझ गई कि इस घरके दरवाजे बंद है और वह इस घर की दीवारों को कभी भी न लांघ पायेगी। न ये दरवाजे कभी खुलेंगे न रोशनी का कोई टुकड़ा उसके हिस्से में आयेगा। सलमा सोचती शायद खुदकशी ही उसे छुटकारा दिला सकती है। मीग्रेन की शीशी देखती रहती, हाथ बढ़ाकर उसे छूती, फिर डर से खींच लेती। वह हर समय सोचती कि उसके पास कौन सी ताकत है, वह तो आठवी तक पढ़ी है। अकेली कहां रहेगी? चली भी जाये तो क्या वह ज़मीर के बिना रह लेगी? और तब आई उससे भी भयानक हादसे की रात। पुलीस ने घर को घेर लिया। वह ज़मीर की तलाश में आई थी। पुलीस औरत ऊपर आकर ज़मीर के कमरे में तलाशी ले रही थी। फिर नज़ीर की जेब में ड्रग मिली। ज़मीर के हाथों में हथकड़ी पड़ गई। 

सलमा पत्थर बन सब कुछ देखती रही। सलमा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। क्यों करता है ज़मीर यह सब गन्दे और खतरनाके काम! घर में सभी दुखी थे, एक तरह का गुस्सा, जैसे सलमा की जिम्मेदारी ज़मीर से अच्छे काम कराना भी था। समीना ने बाप के घर गरीबी तो देखी थी पर बेइमानी, झूठ फरेब और चरित्रहीनता नहीं देखी थी। जब होश आया, पुलीस ज़मीर को लेकर जा चुकी थी। हाज़ी साहब सर झुकाये बैठे थे। निहायत गमगीन। सबेरे का उज़ाला थोड़ा थोड़ा फैल रहा था। सलमा उठी अपने कमरे में एक निगाह डाली, सब कुछ तहसनहस पड़ा था। उसमें कुछ सोचने की ताकत नहीं बची थी। जिस दवा की शीशी से उसे डर लगता था, उसखी तरफ इस समय सलमा ने ललचाई निगाह से देखा, एक पक्के इरादे से उठी, जग से एक गिलास पानी लिया और सब दवा एक बार में खाने की कोशिश करने लगी। धीरे धीरे सारी गोलियां खा कर लेट गई। 

सलमा की ननन्द शमा ऊपर आई, उसने सलमा को बाजू पकड़ कर पूरी ताकत से झकझोर दिया, नीचे चलने को कहा। सलमा ने पूरी कोशिश की लेकिन एक तरफ लुढ़क गई। शमा ने वहीं पास में खाली दवा की शीशी देखी, भागी भागी नीचे गई। दूसरे दिन जब सलमा होश में आई तो उसने अपने को अस्पताल में पाया। एक डॉक्टर बार बार उसका नाम लेकर उससे पूछ रहा था, "अब कैसा लग रहा है?" सलमा चौंक गई। कौन है जिसे उसकी इतनी फिकर है, यह कौन है जो उसकी ज़बान में बार बार उसे पुकार रहा है। डाक्टर हाल पूछ कर नर्स को तमाम हिदायतें कर के चला गया। दूसरे दिन हाजी साहब आये लेकिन डाक्टर ने सलमा को घर जाने की इज़ाज़त नहीं दी। हाजी साहब से कहा कि यह तो अब पुलिस ही तय करेगी कि सलमा कहां जाये। डाक्टर अनवर ने सलमा से पूछा कि वह कहां जाना चाहती है। सलमा ने अपनी खाला का पता बता दिया और कहा कि उन्हें खबर कर दे तो बड़ी मेहरबानी होगी।

दूसरे दिन डॉक्टर की डयूटी बदल गई। सोशल सर्विस वालों ने सलमा से पूछा कि वह लड़कियों के होस्टल में रहना चाहती है क्या? सलमा ने सोचा कि शायद अब यही उसके लिये सबसे अच्छा रास्ता है? और वह होस्टल में चली गई। 

डाक्टर अनवर एक कागज़ पर होस्टल का पता और सलमा की खाला का पता लिख कर लाये थे। अपनी मां से सब बताया कि जैसे एकाएक सब कुछ समझ में आ गया, यही वह लड़की है। एक बेचैनी ने डाक्टर अनवर को घेर लिया। सफेद कागज़ का टुकड़ा उनकी उंगलियों में फड़फड़ाता रहा। 

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