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घर में रह रही थी और सब पुराने लोगों को याद करती रही। पापा मां के ज़माने में इसी घर की कितनी रौनक थी। कैसी शानदार पार्टियाँ‚ कैसे रंगीन समारोह। सब पुराने लोगों को याद करती रही। अब घर कितना उजाड़‚ सुनसान।

मैं इस कमरे से उस कमरे डोलती। पिछवाड़े के अहाते में आम और अमरूद के पेड़ो के तनों को छू कर इतनी शिद्दत से बीते दिनों को महसूस करती कि लगता कि इस घर को बेचने का फ़ैसला शायद ग़लत था।

ये दो दिन बेहद उदासी और अकेलेपन के थे। रजत मुंबई में थे और फ़ोन से रोज़ बात हो रही थी।

कल लौटना था। पर उसके पहले चाची ने ही राघवेंद्र भाई की ख़बर दी थी। कुछ ज़्यादा नहीं, बस इतना कि अचानक मौत हो गई। "शाम को चलेंगे" वो कह गई थी।

मेरे बचपन के दिनों के राघवेंद्र भाई बेहद डैशिंग फ़िगर थे। सजीले हसीन डाक्टर थे। दूर के रिश्ते के भाई। लड़कियों की मांएँ लाइन लगाए घूमती थी‚ पर चाचा‚ चाची इतनी आसानी से अपने होनहार बेटे का रिश्ता कैसे करते। दूरबीन लेकर लड़की खोजी जाती। कोई कहता भाई की कोई बैचमेट है जिससे वो ब्याह करना चाहते हैं पर दक्षिण भारतीय है। चाची के सुंदरता के मापदंड पर दूर–दूर तक फिट नहीं होती। क्या सच था ये तो नहीं पता पर चाची आख़िर सफल हो गई थीं। अपने बेटे के जोड़ की लड़की उन्होनें खोज निकाली थी। विनी भाभी भी एम•बी•बी•एस• की पढ़ाई कर रही थीं। लंबी, गोरी, बेहद सुंदर। ऐसी जोड़ी कम दिखती है। मंैने बचपन में भाई भाभी के बारे में अक्सर ऐसी टिप्पणी सुनी थी। बचपन का ये मुझे याद है कि भाभी के घर जब जाते तो मैं घंटो उनको निहारती। उनके कपड़े, उनके गहने, उनके बात करने का, हंसने का, चलने का सलीका सब मुझे बहुत भाता।

फिर पापा का तबादला हो गया था। बचपन की बातें छूट गई थी। उड़ते–उड़ते ये ख़बर भी आई थी कि भाई ने भाभी को छोड़ दिया है। दोनों में निभती नहीं।

छोटा शहर। बहुत बाते होतीं। स्कैंडल ही था। एक बेटा भी था। कभी कोई शहर से आता तो ऐसे ही कोई नेगेटिव सी बात कभी भाई के बारे में कभी भाभी के बारे में बता जाता। मां इन बातों पर बहुत कम ध्यान देतीं। इस तरह की गॉसिप को प्रोत्साहित भी नहीं करतीं।

मेरे बड़े होने के बाद और ख़ासतौर से शादी के बाद शहर से नाता टूट सा गया था। पापा मां के गुज़र जाने के बाद से तो और भी ख़त्म हो गया था। आज इतने सालों बाद से तो मन में कहीं ये ख़याल आया था भाई के विषय में पता करने की। पर इन दो दिनों में मौका ही नहीं मिला। अब भाभी का सामना उन दुखद परिस्थिति में करना बहुत मुश्किल और तकलीफ़देह लग रहा था।

•••

बाहर से घर बहुत प्यारा कॉटेजनुमा था। लेकिन एक वीरानी सी छाई थी।

अंदर कुछ लोग थे। मैं किसी को भी पहचान नहीं पाई थी। चाची ने कुछ लोगों को मेरा परिचय दिया तो "अच्छा गिरधर की बेटी हो।" फिर कुछ प्रश्न उसके पति के बारे में, पापा की याद में।

मेरी आँखे भाभी को खोज रही थीं। देखा तो यकायक पहचान नहीं पाई। सुंदर तो अब भी थीं पर चेहरे पर अजीब सी रुखाई। बाल खींचकर जूड़े में बंधे थे। सफ़ेद हल्के फूलों की सूती साड़ी और कुहनी तक का ब्लाउज़ लगभग लापरवाही से लपेटी हुई। उम्र की छाप चेहरे पर लकीरें छोड़ गई थीं।
चाची ने परिचय दिया तो उनके चेहरे पर पहचान की चमक कौंध गई। मेरे हाथों को कस कर पकड़ लिया था उन्होंने।
"राजे से मिलीं?"
"राजे इधर आओ, बुआ से मिलो।"
लंबा दुबला पतला सा राजे बहुत कुछ भाई से मिलता हुआ, चुपचाप प्रणाम कर फिर कहीं घर में खो गया।
मैं और चाची बैठ रहे थे। फिर चाची ने वापस लौटने का उपक्रम किया था।

"मैं भाभी को बोलकर आती हूँ। नीचे किसी ने बताया शायद उपर हों। सीढियाँ चढ़कर उपर आई। गलियारे के अंत वाले कमरे में भाभी दिखी। मैं दरवाजे. पर ठिठक गई थी। रॉकिंग चेयर पर आँखें बंद कर बैठी थीं। मेरी आहट शायद उन तक पहुँची थी। हाथ बढ़ाकर मुझे अंदर बुला लिया।
धीमे आवाज़ में बोल रही थीं।
"आपके भाई इसी कमरे में रहना चाहते थे। नहीं हो पाया।"
"कुछ भी तो नहीं हो पाया।"
मैं चुप उनके हाथों को थाम बैठी रही। सांत्वना के कौन से शब्द बोलूँ ये समझ में नहीं आया। भाभी की आँखों के कोरों
से आँसू बह गए थे। एकदम से संभाला था अपने आप को। "आपको निकलना होगा न?"

"मेरा पता मुम्बई का लिया? शायद कभी जाना हो"। फीकी सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर आई। राजे से निकलते वक्त मुलाकात नहीं हो पाई।
अगला दिन आनन फानन में बीत गया। शाम को ट्रेन थी। भाभी के घर फ़ोन किया था जाने से पहले पर बात नहीं हो पाई थी।

वापस लौटकर पुराने रुटीन में मैं एकदम से व्यस्त हो गई थी। बीच–बीच में कभी–कभी भाभी की याद आती तो मन बेहद उदास हो जाता।
मकान की डील भी फाइनल हो गई थी। शहर से अंतिम कड़ी भी ख़त्म हुई। रजत मेरी भावनाओं को समझते। हमेशा मेरे साथ रहते‚ मेरी परवाह करते हुए। मैं रजत के साथ बहुत खुश थी।

कभी भाभी और भाई के रिश्ते की याद आती तो मैं अपने और रजत के रिश्ते के सुखद साथ के घमंड में चूर ये समझ नहीं पाती कि उनका साथ कड़वाहट भरा कैसा रहा होगा। फिर भाई के गुज़रने पर भाभी की वो निशब्द रुलाई याद आती और मन तड़प जाता था।

रजत इधर दस दिनों के लिए बाहर गए हुए थे। पीछे मेरी तबीयत ख़राब हो गई थी। वाइरल था। आफ़िस से छुट्टी ली थी। चुपचाप बिस्तरे में पड़ी रजत की कमी महसूस कर रही थी कि फ़ोन बज उठा। आश्चर्य, भाभी थीं। किसी मेडिकल
सेमिनार में आई थी। होटल से बोल रही थीं।

मेरी तबीयत का पता चला तो आने को तैयार हो गई। होटल से घर बहुत दूर भी नहीं था। उनका क्या मैं स्वागत सत्कार करती‚ उलटा वो ही मेरी सेवा में जुटी रहीं। कुछ दवाइयाँ दी। फिर किचेन में जाकर टोस्ट और सूप। मैं मना करती रही पर अंदर ही अंदर बहुत अच्छा भी लगता रहा। कुछ देर तक मेरी आँख भी लग गई। भाभी शायद कुछ पढ़ती रहीं होंगी।
आँख खुली तो तबीयत हल्की लगी। भाभी चाय ले आई थीं।
बातें चल निकली। भाई का ज़िक्र छिड़ा तो भाभी ने जो बोलना शुरू किया तो अनवरत बोलती गई। छाती पर जमा वर्षों का पत्थर एक–एक कर हटाती गई‚ कभी आवाज़ भावावेश में बिखर जाएँ‚ कभी एकदम सपाट भावहीन।

भाई और भाभी में कभी निभी ही नहीं। मानसिक स्तर पर कभी एक नहीं हुए। कोई इमोशनल बैलेन्स नहीं हुआ। शुरू में भाभी दबती रहीं इस उम्मीद में कि शायद वक्त के साथ जीवन में एकरसता आ जाए। साथ रहने की आदत ही पड़ जाए। पर स्थिति बिगड़ती गई। भाई के मन में शायद‚ ज़बरदस्ती इस बंधन में बंध जाने का विद्रोह इस रूप में फट पड़ा था। घर में कलह‚ लड़ाइयाँ आम हो गई थीं। भाई पीने लगे थे और पीने के बाद उनका गुस्सा मुखर हो जाता। पास–पड़ोस किसी की चिंता उन्हें नहीं रहती।
आँखों के सामने बेटे की हालत देखते–देखते चाची भी भाभी को दोषी ठहराने लगी थीं। भाभी का रूप‚ लावण्य‚ गुण कुछ भी तो भाई को बाँध नहीं पाया था।

चाचा चाची भी इकलौते बेटे की इस हालत को देख‚ गाँव वाले घर चले गए थे। बड़ों के नहीं रहने से जो थोड़ा बहुत लिहाज़ बचा था वो भी ख़त्म हो गया।

भाई बीच–बीच में घर से ग़ायब हो जाते। भाभी लोगों के प्रश्नों से बचने के लिए‚ अपने आप में सिमटने लगीं थीं। भाभी की प्रैक्टिस पर भी इसका असर हुआ था। भाई की क्लीनिक तो बंद हो ही चली थी। इक्का दुक्का मरीज़ कभी आए तो आए। रिश्तेदार और पड़ोसी आते‚ चुटकी लेते‚ भाभी को नसीहतों का पिटारा पकड़ाकर‚ चले जाते‚ बिना असलियत जाने, समझे। इस दुखद हालात का सीधा जिम्मेदार भाभी को ठहरा दिया जाता। राजे भी इसी माहौल में बड़ा हो रहा था।

भाई ने अपनी कोई ज़िम्मेदारी राजे के प्रति नहीं निभाई। बाद में किसी बहुत छोटी सी बात पर भाई ने पड़ोसियों को घर बुला लिया था‚ पूरा घर आसमान पर उठा लिया। गाली–गलौज सब हुआ। भाभी सन्न कमरे में बंद बैठी रहीं राजे को छाती से चिपका कर।

भाई घर छोड़ कर चले गए थे। उसी शहर में किसी लॉज में रहते थे। जो भी मिलता उसे पकड़कर भाभी के विषय में उलटी सीधी बातें करते। अपना जीवन उन्होंने चौपट कर लिया था। सोने से जीवन पर राख डाल दी वो भी अपने ही
हाथों। मन की बारीकियों को कौन समझे। किस भाग्य चक्र के मारे थे हम सब कौन जाने।

छोटे से शहर में लोगों के लिए किसी टी वी सीरीयल से कम मसालेदार नहीं था ये सब। भाभी बोलती जा रहीं थीं। भाई एक बार घर आए थे वर्षों बाद। फिर साथ रहने की इच्छा से शायद। उम्र के उस फासले पर थे जहाँ से भविष्य का अकेलापन बहुत भयावह लगता होगा। भाभी उस दिन घर पर नहीं थी। राजे ने बेइज़्ज़त कर उन्हें निकाल दिया था।
"मुझे बाद में पता चला।"
भाभी की आवाज़ मद्धिम हो गई थी। लॉज पता करके वो वहाँ गई थी। भाई कहीं गए थे। मटमैला बिस्तर‚ हैंगर पर गंदे‚ मटमैले पजामे‚ पैंट और कमीज़‚ बिस्किट के अधखुले पैकेट‚ चाय का कप जिसमें पता नहीं कब की चाय पड़ी थी। जिस आदमी के पास सब कुछ हो सकता था वो आज इस हालत में‚ इतने निरीह और बदहाली में रह रहा हो। पत्नी और बेटे के बावजूद कोई उसका ख.याल रखने वाला न हो।

भाभी लौट आई थीं। मन में बहुत कशमकश थी। उनकी प्रैक्टिस इधर कुछ जम गई थी। ये मकान भी उन्होंने लोन लेकर बना लिया था। रिस्पेक्टिबिलिटी का एक आवरण तो अब वो ओढ़ चुकी थीं। उनके निजी जीवन की कहानी भी अब पुरानी हो चली थी। लोगों को नई कहानियाँ ज़्यादा तीखी‚ मसालेदार मिलती रहती हैं। समय के साथ सब घाव फीके पड़ जाते हैं।

न्हें अपनी स्थिति भाई के बनिस्पत बहुत बेहतर लग रही थी। दया का भाव जो अब उमड़ रहा था वो उस तीखे‚ कटार के मानिंद नफ़रत और दर्द के लहर को पार कर रहा था।

बहुत सोचा था और ये तय किया था कि वो जाकर भाई को वापस ले आएँगी। राजे से उन्होंने कोई बात नहीं की थी। लॉज में भाई का पता नहीं मिला था। बस ये कि वो कुछ दिन से नहीं आए हैं। क्लीनिक खोज कर पहुँची तो कंपाउंडर मिला। उसने भी सिर बेचारगी में हिलाया था। "डाक्टर साहब तो दो दिन से नहीं आए हैं। मरीज़ भी तो कोई नहीं है।" वो बुदबुदाया था।

भाभी लौट आई थीं। दो तीन दिन बाद फिर ख़बर ली और कुछ पता नहीं चला तो चिंता हुई। "ऐसे गायब तो नहीं होते थे।" लॉजवाले ने बताया।

पुलिस स्टेशन गई। रिपोर्ट लिखाने के दो दिन बाद पता चला था कि भाई की मौत दस दिन पहले ही हो गई थी। बस से एक्सीडेंट। वहीं स्पॉट पर डेथ। लावारिस समझ कर पुलिस ने लाश की अंत्येष्टि कर दी थी। उनके कपड़े‚ एक पुरानी घड़ी‚
अंगूठी और पॉकेट में एक पुरानी चिठ्ठी से भाभी शिनाख्त कर पाई थीं।

"ऐसी मौत। बिलकुल अकेले चले गए।" भाभी की आवाज़ में बदहवासी थी।
"उनके मौत के बाद अब कहीं से राजे भी मुझे दोषी ठहराता है। पिता के लिए कभी सम्मान‚ या प्रेम उसके मन में नही रहा पर अब मुझे कह गया शायद मेरी वजह से ही पिता अलग हुए।"

उनकी आवाज़ एक क्षण को लड़खड़ाई। आँखें बंद कर फिर बोलना शुरू किया।
"मैंने जीवन में एक भी क्षण सुख का नही जिया। विमाता के साथ का बचपन कैसा होता है ये समझना मुश्किल नहीं। बचपन से ही एक अकेलपन मुझे घेरे था। जब विवाह तय हुआ तब लगा एक नए सुखद जीवन की शुरुआत अब होगी। सपने इतनी जल्दी चूर होंगे ये सोचा नही था। तब सुना था दूल्हा बहुत सजीला है। राम सीता की जोड़ी है। पर उनके सुंदर चेहरे के पीछे इतनी सड़ांध है ये किसे पता था। बाद में पता चला किसी और से विवाह करना चाहते थे। ऐसा था तो माता पिता को कहने की हिम्मत रखते। कहीं पढ़ा था जिससे प्यार करो उसके साथ रहो और अगर ये न हो पाए तो जिसके साथ रहो उसे प्यार करो। पर जीवन के व्याकरण इतने सरल कब हुए हैं।"
"मेरी गलती कहाँ थीं। कौन से पूर्व जन्मों का पाप अपने कंधों पर उठाए रहने का शाप भोगना है। और कब तक‚ हे
प्रभू।"
मन होता है उन्हें रोकूँ। उन तकलीफ़देह क्षणों को क्यों फिर से जिएँ। तुरंत ही अहसास हुआ शायद उन्हें अपने दिल को किसी के सामने रखने तक का मौका न मिला हो। कुछ तो गुबार निकले‚ कुछ तो मन हल्का हो।

त्तेजना और आवेश से उनका शरीर रह–रह कर काँप उठता।
"मैंने स्थिति संभालने की बहुत कोशिश की। हमारे संस्कार ही ऐसे हैं कि हम तुरंत अलग होने की नहीं सोचते। फिर तब तक राजे हमारे जीवन में आ चुका था। लेकिन तिल–तिल कर आदमी कब तक जी सकता है। बाँध तो एक दिन टूटना था ही।
लेकिन उनके चले जाने से जीवन बेहतर हो गया हो ये भी नहीं था। जीवन तो उसके बाद और भी कठोर और कड़वा हो गया था। छोटे शहर में पति से अलग रहना‚ सिंगल पेरेंट की ज़िम्मेदारी निभाना बेहद मुश्किल था। इन सब के बावजूद अगर राजे सही निकल जाता तो जीवन की सार्थकता उसी में ढूँढ लेती। लेकिन ये सुख भी मेरे हिस्से नहीं आना था सो नहीं आया।

ऐसे वातावरण में राजे का बड़ा होना उसे किन ग्रंथियों का शिकार बनाएगा ये तय करना आसान न था। शायद बहुत ज़िम्मेदार इंसान बनता पर ये नहीं हुआ। अजीब सा चुप्पा सा लड़का है संगी साथी विहीन। पिता से कोई भावात्मक लगाव नहीं था‚ ये तो कुछ हद तक समझ में आता है पर मां के लिए भी कोई अपनापा उसके मन में नहीं है। उसके मन की थाह लेना मुश्किल था। अपने मन में उसने क्या जाल बुने थे, कौन सही था कौन ग़लत, किसका दोष कम था किसका ज़्यादा ये मैं चाह कर भी नहीं जान पाई। ऐसा नहीं था कि कोशिश नहीं की। मेरे रूखे बचपन की तरह उसका भी बचपन हो ये मैंने कतई नहीं चाहा। पर ये समझती हूँ कि उसका बचपन मेरे बचपन से कहीं ज़्यादा कटु था। मेरे जीवन में लगाव और प्रेम की कमी थी, रसविहीन जीवन था। पर राजे ने तो और भी कड़वे सच का सामना किया था। लोगों के प
ता नही कौन कौन से ताने सुने थे। कैसी नमक–मिर्च लगी कहानियाँ उसके कानों से गुज़री थीं।

उनके चहरे पर दर्द की तीखी लकीर गहरा गई थी।
"उनको तो मुक्ति मिल गई। मेरा क्या होगा, ऐसी निरर्थक ज़िंदगी।"
पलंग के पुश्त से सिर टिकाकर उन्होने आँखे बंद कर ली। सांत्वना के शब्द मेरे होठों पर आकर रुक गए। मैं कहना चाहती थी कि भाभी आपका जीवन सार्थक है। आप एक सफल डाक्टर है। आपके एक बेटा है जिसे आपने अकेले पाल पोस कर बड़ा किया है। एक दिन वो आपको समझेगा।

मेरे शब्द रुक गए थे। उनके चेहरे पर रेगिस्तान सी मरुभूमि फैल गई थी। एक भावनात्मक शून्य ने उन्हे चारों ओर से घेर लिया था। उनका भोगा हुआ एक–एक क्षण मेरे अंदर कहीं गहरे दर्द की लकीर खींच रहा था। शब्दों से कैसी सांत्वना दूँ। मन के ज़ख्म पर कौन से मरहम का लेप लगाऊँ। कैसे उनके दुख का एक कतरा भी कम कर पाऊँ। मेरी छटपटाहट निशब्द ही रह गई थी। मरघट का सन्नाटा छा गया था। उनका चेहरा पीला पड़ गया था। गोद में निश्चल पड़े कलाइयों की नसें किसी अनजाने तनाव से उभर आई थीं।

एक उत्कट इच्छा हुई उनके चेहरे को सहला देने की, बालों को माथे से समेट देने की। मन में एक इच्छा और बलवती हुई। राजे से बात करने की, उसे समझाने की। कुछ तो ऐसा होगा जो उसके मन में पड़े दीवार को भेद पाएगा। कोई तो कोमल तंतु होगा। मुझे ये कोशिश तो करनी होगी भाभी के लिए।

मैं चुपचाप उठ आई थी। धीरे से दरवाज़ा बंद किया। कैक्टस पर फूल तो उगेंगे ही। शायद वक्त लगे पर अंततः ये होगा ही। प्रकृति का नियम जो है।

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२४ नवंबर २००४

 
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