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भीतर का हिन्दू बोल रहा है। दरअसल गौरैया कह रही है – अल्लाह–ओ–अकबर, नारा–ए–तकबीर...। अल्लाह अल्लाह की रट लगाए हुए है गौरैया। नहीं, चिड़िया कह रही है – वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतेह। खालिस्तान की माँग कर रही हैं यह गौरैया। ये सब गुमराह करने वाली बातें हैं।

वास्तव में वह अपने प्रेमी को पुकार रही है। थक गई है, उसे बूटे–बूटे और पत्ते पत्ते पर खोज कर। अब निराश होकर इसी पेड़ की किसी शाख पर बैठी है और उसे पुकार रही है। मालूम नहीं, कुछ खाया है कि नहीं। कहीं भूखी तो नहीं है यह गौरैया? कहीं आरक्षण के प्रश्न पर अनशन पर तो नहीं बैठ गई? जानना जरूरी है कि कहीं आत्महत्या का निश्चय तो नहीं कर बैठी? उड़ते उड़ते कहीं से घल्लूघारा का नाम तो नहीं सुन आई? जब इन्सानों के दिल में तरह तरह की खुराफातें जन्म ले रही हों तो ये पेड़ पौधे, जीव–जन्तु उससे कैसे निरपेक्ष रह सकते हैं। ये भी तो उसी वातावरण के अंग हैं, जहाँ लू से भी तेज चिलचिला रही है साम्प्रदायिकता, दुकानों–मकानों की छतों पर छोटी छोटी पताकाओं के रूप में फहरा रही है साम्प्रदायिकता, इश्तिहारों की शक्ल में दीवारों पर चस्पां कर दी गई है साम्प्रदायिकता। इस जहरीले माहौल में यह नन्हीं सी गौरैया कैसे बेदाग रह सकती है। मगर इसकी आवाज़ सुनकर आभास होता है कि वह अभी इस संक्रमण से मुक्त है।

थोड़ी देर तक गौरैया की आवाज़ सुनाई नहीं दी। अचानक मेरी नज़र खपरैल पर गई तो मैंने देखा, गौरैया खपरैल के नीचे बल्ली पर बैठी है। न जाने कब से वह एक नन्हा–सा घोंसला बनाने में व्यस्त थी। इस वक्त भी उसकी चोंच में सूखी घास का एक तिनका था।

घास नहीं, यह रामशिला है। यह घोंसला नहीं, राममन्दिर के निर्माण में संलग्न है, सियाराममय सब जग जानी। अचानक मस्जिद से अज़ान के स्वर उठे तो मेरा ध्यान भंग हुआ। मैं भी जूनून में क्या क्या सोचता चला जा रहा था। मुझे याद आया, इस इमारत के ठीक पीछे मस्जिद है और सामने पीपल के पेड़ के नीचे हनुमानजी का मन्दिर। इस समय जहाँ मैं बैठा था, वहाँ से सामने देखने पर मंदिर का कलश और पीछे देखने पर मस्जिद का गुम्बद दिखाई देता है। अगर मैं पूरब की तरफ मुँह करके बैठ जाऊँ तो कह सकता हूँ, बाएँ मंदिर है और दाएँ मस्जिद। बीच में मेरा घर है। गौरैया ने भी बहुत समझदारी का परिचय देते हुए ठीक मंदिर और मस्जिद के बीच अपने नीड़ के लिए स्थान चुना था। वरना कौन रोक सकता था इसे मंदिर के किसी झरोखे अथवा मस्जिद के किसी वातायन में अपने लिए छह इंच जगह का जुगाड़ करने से। मगर नहीं, गौरैया धर्म के पचड़े में नहीं पड़ना चाहती। मैं देर तक उसे नीड़–निर्माण के कार्य में संलग्न देखता रहा। वह तिनके खोज कर लौटती, कुछ देर सुस्ताती, दो एक बार अपनी कोयल जैसी सुरीली कूक से सन्नाटा तोड़कर ईंट गारा की तलाश में फिर गायब हो जाती। क्यों बना रही है वह अपने लिए एक सुंदर नीड़? अभी तक कहाँ रह रही थी? अपनी सुहाग की सेज तैयार कर रही है अथवा प्रसूति गृह का निर्माण, अनेक प्रश्न मन में उठ रहे थे।

अगले दिन सुबह देखा, उसका घोंसला बनकर तैयार था। अब वह बाकायदा इस घर की सदस्या हो गई थी। अब उसका पता भी वही था, जो मेरा पता था। वह बेखटके अपने प्रेमी से पत्राचार कर सकती थी। अपना राशनकार्ड बनवा सकती थी। अपना वोट बनवा सकती थी अथवा पहचान पत्र। कुछ ही दिनों में मेरी उससे अच्छी खासी दोस्ती हो गई। एक दिन तो रोशनदान पर आ बैठी और मुझे जवाब तलब कर लिया, आज बाहर क्यों नहीं आए। मेरे सामने बैठ कर सिगरेट क्यों नहीं फूंके।

'अच्छा बाबा आता हूँ, तुम राग शुरू करो। मैं आता हूँ।' मैंने कहा।
दरअसल उससे दोस्ती होने के बाद मेरा समय अच्छा बीत रहा था। अपनी एक सप्ताह की मित्रता में ही उसने मुझे राग–भैरवी से लेकर राग जै जैवन्ती तक सुना डाले।

मैंने महसूस किया, इसकी आवारागर्दी कुछ कम हो गई है। हमेशा अपने नीड़ में नज़र आती। एक दिन सुबह तो मैं खुशी से पागल हो गया, जब मैंने देखा, उसके अगल–बगल दो नन्हीं गौरैया और बैठी थीं। घर में उत्सव हो गया। नए सदस्यों का गर्मजोशी से स्वागत हुआ। घर जैसे सोहर गाने लगा : भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी... बारो घी के दिये... सतगुरू नानक परगटिया... गौरैया के बच्चे पूरे परिवार के सदस्यों के संरक्षण में पलने लगे। उनकी छोटी से छोटी हरकत पर चर्चा होती। एक दिन पता चला, गौरैया सुबह से गायब है और बच्चे अकेले पड़े हैं। दोपहर को बाहर गया तो दे
खा, गौरैया अभी तक नहीं लौटी थी।

दोनों बच्चे टुकुर–टुकुर मेरी ओर निहार रहे थे, जैसे माँ की शिकायत कर रहे हों। मैं उनकी मदद करना चाहता था, मगर समझ नहीं पा रहा था, इस वक्त इन्हें किस चीज की जरूरत है। शाम हो गई, गौरैया नहीं लौटी। मैं चिन्तित हो उठा, क्या होगा इन बच्चों का? कौन कराएगा इन्हें भोजन? ये तो अभी उड़ान भी नहीं भर सकते। यह गनीमत थी कि गौरैया ने काफी ऊँचे स्थान पर अपना नीड़ बनाया था, वरना बिल्ली अब तक इन्हें डकार चुकी होती। मैंने कई बार बिल्ली को इन बच्चों की ओर हसरत भरी निगाहों से ताकते देखा था। बिल्ली थोड़ी देर उछल कूद भी मचाती थी, मगर ये बच्चे उसकी पहुँच के बाहर थे, थक हारकर वह लौट जाती।

गौरैया को नहीं आना था, नहीं आई। मैंने रात को भी कई बार टॉर्च जलाकर देखा, दोनों बच्चे चुपचाप अकेले बैठे थे। शायद सोच रहे थे, कहाँ रह गई उनकी माँ, कहीं रास्ता तो नहीं भटक गई? वे कब तक भूखे प्यासे पड़े रहेंगे?

कल तक जिस गौरैया पर मुझे लाड़ आ रहा था, आज मैं उससे बेहद नाराज़ था। मैंने उसकी छवि एक ममतामयी माँ के रूप में देखी थी। मेरी कल्पना में भी नहीं था कि वह अपने नन्हें मुन्नों के प्रति इस कदर निर्दयता और क्रूरता दिखाएगी। इस समय मैं इतने क्रोध में था कि वह सामने पड़ जाती तो एक दो झापड़ रसीद कर देता। ढाढ़स बँधाने के लिए मैंने बच्चों को पुकारा। अँधेरे में पुचकार सुनकर बच्चों ने पंख फड़फड़ाए। मैंने घोंसले में लाई चने के कुछ दाने फेंक
दिए और आकर खिन्न मन से लेट गया।

'अब सो जाओ चुपचाप। एक चिड़िया के पीछे पागल हो रहे हो।' पत्नी ने कहा, 'हो सकता है, वह बीच में किसी समय बच्चों को खिला पिला गई हो।'

'नहीं, वह आई ही नहीं। बच्चे भूख से निढ़ाल पड़े हैं।' मैंने पत्नी को बताया, 'घोंसले में लाई–चने डाल आया हूँ। शायद चुग लें।'
'जाओ, बोतल से दूध भी पिला आओ।' पत्नी ने व्यंग्य से कहा और करवट बदल ली।
'सब औरतें स्वार्थी होती हैं, गौरैया की तरह।' मैंने जलभुनकर जवाब दिया और आँखें मूंद लीं।

सुबह जब नींद खुली तो मैं आँख मलते हुए घोंसले की तरफ लपका। यह देखकर संतोष हुआ कि गौरैया दोनों बच्चों के बीच एक गर्वीली और समझदार माँ की तरह बैठी थी और बारी–बारी से दोनों बच्चों की चोंच में अपनी चोंच से कुछ खिला रही थी। मैं भी कुर्सी डालकर बैठ गया और देर तक माँ बच्चों का लाड़–प्यार देखता रहा। बच्चों के प्रति आश्वस्त होकर मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया। दोपहर होते होते गौरैया ने चहचहाना शुरू कर दिया और उसने पूरी बगिया
जैसे सिर पर उठा ली। मगर मुझे मालूम नहीं था, दोपहर बाद मुझे एक और आघार मिलने वाला है।
 
शाम को जब बाहर निकला तो पाया, घोंसले से न केवल गौरैया गायब थी, बल्कि एक बच्चा भी लापता था। सहमी हुई छोटी गौरैया अकेली बैठी थी। मुझे आशंका हुई, कोई चील तो झपट्टा मार कर बच्चे को उठा कर नहीं ले गई? मगर यह संभव नहीं लग रहा था। घोंसले के ऊपर खपरैल का रक्षा कवच था। चील की नज़र ही नहीं पड़ सकती इस नीड़ पर। फिर कहाँ गईं दोनों गौरैया? मुझे ज्यादा देर परेशान नहीं रहना पड़ा। छोटी गौरैया रबर प्लांट के नीचे बैठी थी। मैं उसकी ओर बढ़ा तो वह उड़कर मुँडेर पर जा बैठी। वहाँ से उड़ान भर कर अनार के पेड़ पर उतर आई। वह रह–रह कर छोटी–छोटी उड़ाने भर रही थी। साफ लग रहा था, वह उड़ने का आनंद ले रही है, अपनी क्षमता से खुद ही रोमांचित हो रही है। प्रत्येक उड़ान में वह छोटा–सा सफर तय करती। फिर वह चिड़ियों के झुण्ड में शामिल हो गई। उनके बीच वह राजकुमारी लग रही थी। चिड़िया चुग रही थीं और उनके बीच वह गर्दन उठाए बड़ी शान से बैठी थी, जैसे प्रत्येक चिड़िया को उसका संरक्षण प्राप्त हो।

'
तुम भी कुछ चुग लो। तुम्हें क्या चुगना नहीं आता?' मैंने कहा, 'खुद खाओ और अपनी बहन को भी खिलाओ।'

गौरैया ने मेरी बात की ओर ध्यान नहीं दिया और जाकर घोंसले में स्थापित हो गई। अब दोनों गौरैया सटकर बैठी थीं और एक दूसरे की ओर टकटकी लगाकर देख रही थीं। बड़ी गौरैया जैसे किसी मूक भाषा में अपनी प्रथम उड़ान का अनुभव बयान कर रही थी। अब वह भला घोंसले में क्यों बैठती, थोड़ी ही देर में वह वहाँ से फिर गायब हो गई। अब माँ बेटी दोनों गायब थी। मैंने बहुत देर तक उनकी प्रतीक्षा की मगर दोनों का कुछ अता पता नहीं था।

'आवारा निकल गई।' मैंने घोंसले में बैठी गौरैया की तरफ देखते हुए कहा, 'तुम्हारी माँ और बहन दोनों आवारा निकल गईं। किसी का डर नहीं रहा उन्हें। दोनों आवारागर्दी पर निकली हुई हैं। अब लौट के आएँ तो बात मत करना उनसे। कुट्टी कर लेना। उन्हें देखते ही मुँह फेर लेना।'

देर रात तक दोनों गायब रहीं। मैं कुछ ऐसे परेशान हो रहा था जैसे पत्नी और बेटी घर से गायब हों। गौरैया की आवारागर्दी का तो मुझे एक रोज़ पहले ही आभास हो चुका था, उस नन्हीं गौरैया के व्यवहार से मैं बहुत क्षुब्ध था, जिसे
पैदा हुए अभी जुम्मा–जुम्मा चार दिन भी न हुए थे।

'इसी को कहते हैं, पर निकलना। नए–नए पर निकले हैं न, इसी का गुमान है।' मैंने मन ही मन कहा। बाहर जाकर फिसड्डी गौरैया की भी खबर नहीं ली। गौरैया के पूरे खानदान से मेरी अनबन हो गई थी।

सुबह तक फिसड्डी गौरैया के भी पंख निकल आए थे। वह अपने अकेलेपन से एकदम अनभिज्ञ थी, बल्कि लग रहा था अपने अकेलेपन से प्रसन्न है। वह बार–बार घोंसले से उतरती और रबर के चौड़े पत्ते पर बैठने की कोशिश करती, मगर ज्योंही पत्ते पर बैठती, पत्ता झुक जाता और वह फिसल जाती। हर बार वह गिरते–गिरते रह जाती। कुछ देर घोंसले में विश्राम करती और दुबारा इसी खेल में लग जाती।

'
मूर्खा, पत्ते पर नहीं, डाल पर बैठो।' मैंने उससे कहा। उसने मेरा परामर्श नहीं माना और फिसलने का अपना खेल जारी रखा। दोपहर तक वह गमलों के बीच फुदकने लगीं।

'लगता है इसके भी पर निकल आए हैं।' मैंने कहा।

वह जिस प्रकार निश्चिंततापूर्वक नीचे गमलों के बीच चहलकदमी कर रही थी, मुझे लगा, इसे बिल्ली का शिकार बनते देर न लगेगी। मैं देर तक उसकी रखवाली करता रहा। न उसे अपनी चिन्ता थी, न माँ–बहन को उसकी चिन्ता। इन चिड़ियों को मुफ्त का चौकीदार जो मिल गया था। मैं बुदबुदाया। जब तक वह घोंसले में नहीं लौट गई, मैं बगिया में बैठा रहा। मन ही मन मैंने तय कर लिया था, इन चिड़ियों पर और समय नष्ट नहीं करूँगा। नादानी और बेवफाई इनकी रग रग में भरी है। पहले ये अपनी आवाज़ से रिझाती हैं, हरकतों से सम्मोहित करती हैं, उसके बाद पर निकलते ही बेवफाई
पर आमादा हो जाती है। मैंने तय किया आज दोपहर को बाहर नहीं जाऊँगा।

शाम को हस्बेमामूल जब मैं निकला तो देखा, घोंसला खाली पड़ा था। उसमें चिरई का पूत भी नहीं था। मैंने तमाम पेड़–पौधों पर नज़र दौड़ाई, पत्ता, बूटा बूटा छान मारा, गौरैया परिवार का नाम निशान नहीं था। मुझे ज्यादा आघात नहीं लगा, क्योंकि मैं मानसिक रूप से अपने को तैयार कर चुका था कि यह अन्तिम गौरैया भी मुझे धता बताकर गायब होने वाली है। मैंने राहत की सांस ली और फूलों पर मंडराती तितलियों का नृत्य देखने लगा। बीच–बीच में मैं गमलों के बीच भी निगाह दौड़ा लेता कि कहीं कोई गौरैया मुझसे लुकाछिपी न खेल रही हो। थोड़ी देर बाद मेरी दृष्टि मंदिर के कलश पर पड़ी तो मैं देखता रह गया। गौरैया का पूरा परिवार वहाँ बैठा था – निर्द्वंद्व! निश्चिन्त! प्रसन्न। थोड़ी थोड़ी देर में उनकी चोंच–से–चोंच मिलती और अलग हो जाती। उनकी आजादी से मुझे ईर्ष्या हो रही थी। तीनों अत्यंत मौज मस्ती
में वहाँ बैठी पिकनिक मनाती रहीं।

पत्नी पास से गुजरी तो मैंने उसे रोक लिया, 'वह देखो, छोटा परिवार सुखी परिवार। तीनों आजाद पंछी की तरह इत्मीनान से मंदिर के कलश पर बैठी हैं।'

'कितना अच्छा लग रहा है, तीनों को एक साथ देखकर।'
'जानती हो, मंदिर के कलश पर क्यों बैठी हैं?'
क्यों बैठी हैं?'

'
क्योंकि इन्होंने एक हिन्दू के घर जन्म लिया है। कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं। यह अकारण नहीं है कि विश्राम के लिए इन्होंने मन्दिर को चुना है।'

'फितूर भर लिया है तुम्हारे दिमाग में।' पत्नी बिफर गई, 'अभी थोड़ी देर पहले मैंने देखा था, तीनों मस्जिद के गुम्बद पर बैठी थीं। अज़ान के स्वर उठे तो मन्दिर पर जा बैठीं। लाउड–स्पीकर का कमाल है यह।'

मैं निरूत्तर हो गया। मन्दिर में आरती शुरू हुई तो तीनों अलग अलग दिशा में उड़ गईं। थोड़ी देर बाद तीनों बगिया में उतर आईं। उस दिन से आज दिन तक उन्होंने घोंसले की तरफ मुड़कर भी न देखा था।

बहरहाल, गौरैया मुझे भूली नहीं। दिन में एक–दो बार बगिया में दिखाई दे जातीं, कभी एक और कभी तीनों। मैं अक्सर सोचता हूँ, क्या जन्मभूमि का आकर्षण खींच लाता है इन्हें यहाँ? जन्मभूमि नाम से ही मुझे दहशत होने लगी। मगर मुझे विश्वास है, यहाँ फसाद की कोई आशंका नहीं हैं, क्योंकि यहाँ एक चिड़िया ने जन्म लिया था, भगवान ने नहीं।

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१ मई २००४

 
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