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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ रजनी गुप्त की कहानी—'सुबह होती है, शाम होती है'


एक लम्बा अर्सा हो गया सुबह उठने के पूर्व चिड़ियों का कलरव सुने और आँखें बन्द किए–किए ही करवटें बदलते हुए। नींद की दुनिया से जब असली दुनिया में शिवली आई तो सारे शरीर में फुरहुरी सी छू गई...

ऊपर से नीचे तक शरीर के अनछुए हिस्सों में भी नमी भरी ठंडक घुसती जा रही थी। अधखुली आँखों से ही उसने चारों तरफ देखा...घुप्प अंधेरा चारों तरफ छाया हुआ था...पलंग के पास रखे स्टूल को धीमे से हाथ से छूकर घड़ी उठाई...अरे! चार बज चुके हैं यानि उठना ही होगा। तभी तो सात बजे वाली ट्रेन पकड़ी जा सकती है...।

उफ! क्या जिन्दगी है? एक क्षण को खुमारी भरी आँखों के सामने रोजमर्रा की जिन्दगी का पहिया घूम गया। तीन साल दिल्ली के वर्किंग वूमैन्स हॉस्टल में ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उसकी पोस्टिंग हुई थी लखनऊ में। लेकिन माँ और छोटी बहन के कानपुर में रहने के कारण उसने कानपुर से लखनऊ अप–डाउन करने का निर्णय लिया।

वाश बेसिन के सामने ब्रश करते हुए उसने शीशे में खुद को ध्यान से निहारा – पाँच फिट एक इंच की लम्बाई, गोरे चेहरे पर पड़ रही झुर्रियाँ और इकहरे बदन में फैल रही आलस्य की घनीभूत परतें... उम्र लगभग चालीस वर्ष...।

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