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बच्चे अलग कुढ़ रहे हैं। आज पहली बार गाड़ी लाए हैं और रौब मार रहे हैं दुनिया भर का। अब कभी नहीं बैठेंगे पापा की गाड़ी में। तीनों रुआँसे-से बैठे हुए हैं। अबकी बार संजय को चपत लगी है, अपनी चप्पलों से सीट ख़राब करने के चक्कर में। वही सबसे ज़्यादा उत्साहित था सुबह और इस समय वहीं सबसे अधिक उखड़ा हुआ बैठा है।

सबको बहुत हैरानी हुई जब कुंदन ने एक एयरकंडीशंड और अच्छे रेस्तराँ के आगे गाड़ी रोकी। शायद वह दिन भर की कसर यहीं पूरी करना चाहता है। बच्चे, चमत्कृत होकर भीतर की सज्जा देखने लगे। कुंती भरसक प्रयास करने लगी, सहज दिखने की, जैसे यहाँ आना उनके लिए कत्तई नई बात न हो। कुंदन खुद ऐसा ही दिखाने की कोशिश कर रहा है जैसे इस तरह की जगहों में उसका रोज़ का आना-जाना हो, लेकिन साफ़ लग रहा है, वह खुद पहली बार आया है यहाँ। आस-पास की मेज़ों पर खूब शोर है। लोग खुल कर ठहाके लगा रहे हैं, लेकिन ये सब बिल्कुल काना-फूसी के स्वर में बातें कर रहे हैं। गप्पू, पिंकी और संजय आपस में खुसुर-पुसुर करके माहौल से परिचय पा रहे हैं।

मीनू देखते ही कुंदन चकरा गया है। चीज़ों के दाम उसकी उम्मीद से बहुत अधिक हैं। दूसरी परेशानी यह है कि उसे पता नहीं चल पा रहा कि ये चीज़ें हैं क्या? कभी नाम भी नहीं सुने थे, ऐसे व्यंजनों से भरा पड़ा है मीनू। टाईधारी स्टुअर्ट ऑर्डर लेने के लिए सिर पर आ खड़ा हुआ। कुंदन ने थोड़ा समय माँगने की गरज से उसे टरकाया और कुंती से फुसफुसा कर कहा, "यहाँ तो चीज़ें बहुत महँगी हैं, क्या करें?" कुंती ने उसे सलाह दी, "दो-तीन दाल-सब्जियाँ मँगा लो किसी तरह मिल-बाँट कर खा लेंगे।" कुंदन ने किसी तरह हकलाते हुए सबसे कम कीमत वाली दाल-सब्ज़ियों का ऑर्डर दिया और राहत की साँस ली। ए.सी. रेस्तराँ में भी उसे पसीना आ रहा है। वेटर छुरी-काँटे सजा गया है। बच्चे उन्हें उलट-पुलट कर देख रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा, इनसे कैसे खाना खाएँगे।

सुबह से यह पहली बार है कि कुंदन बीवी-बच्चों से आँखें चुरा रहा है। वह खुद को इस माहौल में व्यवस्थित नहीं कर पा रहा। बार-बार पसीना पोंछता, यही कहता रहा है, बहुत गर्मी है। सबने मुश्किल से खाना खाया है। हौले-हौले। चुपचाप। अभी भी वे अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। खाने के बाद जब वेटर फिंगर बाउल लाया, तो किसी को समझ नहीं आया, इनका क्या करना है। गुनगुना पानी और उसमें तैरते नीबू के कतरे। सबने कुंदन की तरफ़ देखा। वह खुद सकपका रहा है, क्या करे इसका। संजय ने कुछ सोचा, झट से नीबू निचोड़ा और गटक कर पानी पी गया। गप्पू और पिंकी भी यही करने वाले थे, तभी पास खड़े वेटर ने उन्हें बताया, यह पानी पीने के लिए नहीं, उँगलियों पर लगा तेल, घी, हटाने और धोने के लिए हैं। कुंदन का चेहरा विद्रूपता से एकदम काला होने लगा। उसे लगा, भरे बाज़ार में उसे नंगा कर दिया गया है। उससे भी अदने आदमी द्वारा आज उसे उसकी औक़ात दिखा दी गई है। उसने सिर ऊपर उठाए बिना हाथ धोए और बिल लाने के लिए कहा।

खाना खाकर बाहर निकलते समय सबके मूड उखड़े हुए हैं। गप्पू चिंहुक रहा है, क्यों कि आइसक्रीम न दिलवाए जाने के कारण वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और कुंदन ने बिना देर किए उसे एक चाँटा रसीद कर दिया। कुंती की शिकायत है, ऐसे होटल में क्यों लाए जहाँ पैसे तो ढेर सारे लगे, खाने में ज़रा भी मज़ा नहीं आया। इसी बात पर कुंदन फिर भड़क गया है, "जैसे मैं यह सब अपने लिए कर रहा हूँ। तुम्हीं लोगों को घुमाने-फिराने के लिए सेठ का अहसान लिया और यहाँ यह हाल है।"
"हमें पता होता कि इस तरह गाड़ी का रौब मार कर हमारी पत उतारोगे तो आते ही नहीं। देखो तो ज़रा, कितने ज़रा-ज़रा से मुँह निकल आए हैं बेचारों के।" गप्पू अब आगे आया है, माँ की गोद में, "अगर एक आइसक्रीम दिलवा देते उसे तो क्या घट जाता?" कुंती गप्पू को चुप कर रही है।

"हाँ, दिलवा देता आइसक्रीम, देखा नहीं कितनी महँगी थी आइसक्रीम और बाकी चीज़ें। बाहर आकर माँग लेता, दिलवा भी देता, वह तो वहीं चिल्लाने लगा, नदीदों की तरह। अरे कोई देखे तो कया समझे?"
"हाँ कोई देखे तो यही समझे कि कोई बड़े लाट साहब अपने ड्राइवर के गलीज बच्चों को घुमा रहे हैं शहर में। अरे इतना ही शौक था किसी बालकटी बीवी का और टीम टाम वाले बच्चों का, तो क्यों नहीं कह दिया सेठ को अपने, लौंडिया ब्याह दी होती अपनी। हमारी जान के पीछे क्यों पड़े हो। जाहिल हैं, गँवार हैं हम तो। हमें तो गाड़ियों में घूमने का न तो शऊर है और न ही शौक। कहीं नहीं जाना अब हमें। छोड़ दो घर पर। बहुत हो गया।" कुंती का पारा भी चढ़ गया है।
बात तू-तू मैं-मैं से हाथापाई तक पहुँचती, इससे पहले कुंदन ने इसी में ख़ैरियत समझी कि उन्हें घर पर छोड़े। गाड़ी सेठ के हवाले करे और कहीं बैठ दारू पिए। अभी सिर्फ़ तीन ही बजे हैं और गाड़ी उसने सात-आठ बजे तक लौटाने के लिए कह रखा है।

सेठजी कुंदन को देखते ही चौंके, "क्या बात है, इतनी जल्दी लौट आए। अच्छी तरह घूमा-फिरा दिया न बच्चों को?" इससे पहले कि कुंदन कुछ कह पाता, अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया, बोले, "ऐसा करो, घर चले जाओ। मेम साहब की बहनें आई हुई हैं, बच्चों के साथ। सब लोग उनकी कार में नहीं आ पाएँगे। तुम वैन ले जाओ और वे जहाँ कहें, घुमा लाओ सबको। मैं फ़ोन कर देता हूँ, ठीक।"

कुंदन अब फिर ड्राइवर बन चुका है। "यस सर" कहकर बाहर आ गया। मूड अब भी सँवरा नहीं है। कहाँ तो सोच रहा था, दारू पिएगा कहीं आराम से बैठ कर, और यहाँ फिर डयूटी लग गई, शहर भर के चक्कर काटने की। बेकार ही यहाँ आया, सोचा उसने, "गाड़ी लौटाने शाम को ही आना चाहिए था।"
सेठजी के घर पहुँचा तो कोई तैयार नहीं था वहाँ। अपने आने की ख़बर दे कर वापस वैन में आ गया। वहीं बैठा लगातार सिगरेट फूँकता रहा। कोई घंटे भर बाद सब लोग नीचे आए। तीन महिलाएँ, एक पुरुष, ढेर सारे बच्चे। शायद सात-आठ। एक बड़ी लड़की। कुंदन ने सबको नमस्कार किया, जिसका उसे कोई जवाब नहीं मिला। एस्टीम मेम साहब ने खुद निकाली। उनकी बहनें, जवान लड़की, दो बड़े लड़के उसी में बैठे। वैन की तरफ़ सभी बच्चे लपके। तीनों दरवाज़े भड़भड़ा कर खोले गए और सारे बच्चे पीछे हुड खोलकर वहाँ बैठने के लिए झगड़ने लगे। कुंदन अपनी सीट छो़ड़ कर नीचे आया। उसने देखा, सभी बच्चों ने रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए हैं। किसी की नेकर कहीं जा रही है, तो किसी की टी शर्ट झूल रही है। सभी बच्चे पीछे बैठने के लिए उतावले हैं। आख़िर उन सज्जन ने किसी तरह समझौता करवाया उनमें कि जो बच्चे जाते समय पीछे बैठेंगे, वापसी में वे आगे बैठेंगे।

कुंदन किनारे पर खड़ा सब देख रहा है। अचानक उसकी निगाह वैन के अंदर गई। सभी बच्चों ने गंदे जूते-चप्पलों से सीटें बुरी तरह ख़राब कर दी हैं। उसकी मुटि्ठयाँ तनने लगीं, लेकिन जब उसके कानों ने "चलो ड्राइवर" का आदेश सुना तो चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और एस्टीम के आगे निकलने का इंतज़ार करने लगा। आदेश हुआ, "पहले हैगिंग गार्डन चलो।" वे सज्जन उसकी बगल वाली सीट पर बैठ गए। बच्चे अभी गुलगपाड़ा मचाए हुए हैं। वैन के चलते ही किसी बच्चे ने उसे एकदम रुखी आवाज़ में आदेश दिया, "ड्राइवर, स्टीरियो ऑन करो" उसने पीछे मुड़ कर देखा, आदेश देने वाला लड़का गप्पू की उम्र का ही रहा होगा सींकिया-सा। अचानक उसे सुबह गप्पू का कहा वाक्य याद आया, कैसे मिमिया कर कह रहा था, "पापा स्टीरियो बजाओ ना, "लड़के की आवाज़ फिर गूँजी, "सुना नहीं ड्राइवर, स्टीरियो चलाओ।" वह तिलमिलाया। चुपचाप स्टीरियो चला दिया। सभी बच्चे चिल्लाने लगे। उसने कनखियों से साथ वाली सीट पर बैठे साहब को देखा। उन पर बच्चे की टोन का कोई असर नहीं हुआ है। हैंगिग गार्डन तक पहुँचते-पहुँचते बच्चों ने शोर मचा-मचा कर, गंदी ज़ुबान में बातें करते हुए उसकी नाक में दम कर दिया। वह किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे हुए है। बार-बार उसका जी चाह रहा है, गले पकड़ कर धुनाई- कर दे सब बच्चों की अभी। ज़रा भी तमीज़ नहीं है। माँ-बाप कुछ भी नहीं सिखाते इन्हें। देखो तो, कैसे शह दे रहे हैं अपने बच्चों को।

हैंगिंग गार्डन पहुँचते ही सब बच्चे कूदते-फाँदते भाग निकले, सेठानी और उनके मेहमान टहलते हुए उनके पीछे चले। उसका मूड़ फिर उखड़ गया है। अचानक उसे ख़याल आया, पिछली सीट बहुत गंदी कर दी है बच्चों ने। वह एक कपड़ा गीला करके लाया और रगड़ -रगड़ कर सीटें पोंछने लगा। उसे याद आया, उसके अपने बच्चे भी तो तीन-चार घंटे बैठे रहे हैं इसी गाड़ी में तब तो एक दाग़ भी नहीं लगा था सीटों पर। संजय को सीट पर सिर्फ़ चप्पल रखने पर भी डाँटा था उसने। सीटें साफ़ करते समय उसने सोचा, नाहक ही इतनी मेहनत कर रहा है। थोड़ी देर बाद बच्चों ने इनका फिर यही हाल कर देना है।

जब सब लोग हैंगिंग गार्डेन से निकले तो एक बच्चे के कपड़े बुरी तरह गंदे हैं और घुटने छिले हुए हैं। कहीं गिर-गिरा गया होगा, कुंदन ने सोचा। उसे उस सज्जन ने गोद में उठा रखा है और बार-बार पुचकार रहे हैं। गाड़ियों में सवार होने से पहले सारा काफ़िला रेस्तराँ की तरफ़ बढ़ गया।

हैंगिंग गार्डेन से सब लोग चौपाटी की तरफ़ चले। इस बार वह लड़की वैन में आ गई है। बड़े अजीब-से कपड़े हैं उसके। घुटनों तक टी शर्ट। बहुत ही मैली चीकट जींस और बाथरूम स्लीपर्स। वह बार-बार आँखें मिचमिचा रही है और बबलगम चुभला रही है। कुंदन को बबलगम से बहुत चिढ़ है। ख़ास कर ये बच्चे जब बबलगम मुँह में फुलाकर पच्च की आवाज़ करते हुए फोड़ देते हैं। उसे बराबर यह डर बना रहा कि यह लड़की बबलगम कहीं गाड़ी में न चिपका दे।
कुंदन का डर सही निकला। चौपाटी पर उतरते समय लड़की के मुँह में चुइंगम नहीं हैं। सबके दूर जाते ही उसने तुरंत गाड़ी की पिछली सीटों वाली जगह पर देखा। चुइंगम दरवाज़े की फोम पर टिकुली-सा चिपका हुआ है। कुंदन की आँखों में अजीब रंग आने-जाने लगे। जी में आया, इंर्ट का टुकड़ा उठा कर सिर पर दे मारे उसके। "ये बच्चे तो सचमुच ही मेरे बच्चों से भी गए-गुज़रे हैं। मैं फ़ालतू में ही सारा दिन अपने बच्चों के पीछे पड़ा रहा कि उन्हें मैनर्स नहीं है।"
 

से अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी होने लगी। चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और शीशा चढ़ा दिया। एकदम उदास हो गया। कितने बड़े भ्रम में था वह अब तक। उस तरफ़ की दुनिया। ऊँह!!
उसने तय किया कि रात को घर जाते समय बच्चों के लिए खाने की ढ़ेर सारी चीज़ें और खिलौने ले जाएगा।

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१ जुलाई २००५

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