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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से विनीता अग्रवाल की कहानी- ' खाल'


मैं सुधाकर हूँ। लोगों के हिसाब से बाँका और बेहद खूबसूरत नौजवान। देह आम आदमियों की तरह खुरदुरी या सिंकी हुई नहीं वरन भरपूर गठन पर नर्म और चिकनी खाल का बेजोड़ कुदरती शिल्प। नाक के दोनों सिरों से टकराते शंख रूपी कपोल, चौड़ी ललाट पर रखे दो कमान से झुके मारक नेत्र और लबालब भरे माँसल ओंठ। किसी रसिक मादक मनुष्य की कोरी व्याख्या समझ लें। किंतु कुछ दिनों से पकी वयस के कारण पेट के सामने वाला हिस्सा फूल कर पुलपुला हो लटक गया है और खोपड़ी के भीतर अंगुली फिराने पर पके केशों के अवशेष यदा कदा गिर पड़ते हैं।

परिवार में मेरे साथ माँ रहती है। वह मुझे बेहद चाहती है प्राण समान हृदय से लगाकर रखती है। चार दिन पहले की दोपहर मैंने उस मकान को छोड़ दिया जिसके भीतर उम्र के पैंतीस वर्ष बिताने के पश्चात मैं अब बेहद हताश हो चुका था किसी हद तक 'सैल्फ डिस्ट्रक्शन' का निर्णय लेने के लिए।

मैं जूठी थाली बिस्तर पर छोड़ कर चला आया था। भोजन के वक्त मेरा जाहिलों-सा आचरण प्रदर्शित करते साग-भात के अधखाए कण बिस्तर की चादर पर बिखरे होंगे। उस वक्त माँ ने मुझको रोका नहीं था पर अब भीगी आँखों से वह उन्हें समेट रही होगी।

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