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वह अब भी अख़बार पढ़ने में मग्न था पर माँओं के आँसू, बच्चों की चीखें, बूढ़ों की पथरा गई आँखें, जवानों की निराश खुली मुठ्ठियाँ और धू-धू करके जलते लाशों के ढेर- अब उसके मन मस्तिष्क में नहीं थे। सुनामी लहरों के दर्दनाक थपेड़ों की सुगबुगाहट भी धीमी हो चली थी। किचन से अणिमा के गुनगुनाने की आवाज़ आ रही थी।

देवेश के घर में तीन ही प्राणी हैं। वह, अणिमा और उनका चार साल का बेटा अपूर्व।
ड्राइंगरूम में बैठा नन्हा अपूर्व अपनी कॉपी पर औंधा हुआ ना जाने क्या लिख रहा था?
तभी अणिमा ने हाँक लगाई, "अप्पू बेटा, नाश्ता ख़त्म करो जल्दी से और दूध पीकर गिलास दे जाओ।"
"एक मिनट रुक जाओ ममा।" चार बरस के नन्हे अपूर्व ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया और फिर से अपनी कापी पेंसिल में लग गया।

अणिमा फिर से गुनगुनाने लगी। अचानक दरवाज़े की घंटी बजी। देवेश ने पलट के देखा पक्के रंग वाली मैली कुचैली किंतु गठीले और सुडौल बदन वाली एक जवान औरत नंग-धड़ंग दुधमुँहे बच्चे को गोद में लिए बड़ी ही दयनीय स्थिति में खड़ी याचना भरी दृष्टि से एक हाथ आगे फैलाए एकटक देवेश की ओर देखे जा रही थी। उसकी चुनरी सिर से सरक कर कंधे पर झूल रही थी और रूखे बालों की दो-चार लटें इधर-उधर उड़ रही थी। उसने फटा पुराना ऊँचा-सा घाघरा पहन रखा था और उसके कंधे पर एक गठरी लटकी थी। आगे फैला हुआ हाथ बार-बार वो अपने मुँह तक ले जाकर पेट पर लगा-लगा कर दिखा रही थी "भूखी हूँ खाने को दे दो" कहने की तरह।

"चल आगे चल।" उपेक्षा भरी एक दृष्टि उस पर डालते हुए देवेश ने कहा।
वो टस से मस नहीं हुई।
"सुना नहीं क्या? चल आगे।" इस बार वो ज़रा कडक कर बोला।
औरत सहम गई। कलेजे का डर आँखों में आकर चेहरे पर फैल गया। वो दो कदम पीछे को हट गई। किंतु बेचारगी भरा चेहरा लिए वहीं खड़ी रही। माँगकर खाना अपने आप में बुरा होता है और भीख माँगकर खाना तो अभिशाप ही है, मानव योनि के लिए। ऐसे में कोई स्त्री अगर हाथ पसार रही है तो निस्संदेह उसके पास कोई और चारा नहीं होगा या ज़रूर उस पर कोई आपदा आन पड़ी होगी। वरना कौन अपनी खुशी से भीख माँगता है? पर कितने लोग सोच पाते हैं इस तरह से?

"क्यों तुम लोग चले आते हो रोज़-रोज़ मुँह उठाए?"
"बाबूजी मैं तो पहली बार आई हूँ।" पहली बार उसके मुँह से बोल फूटा था।
"तो क्या हुआ? रोज़ ही आते हैं तुम जैसे। हर किसी का चेहरा याद रहता है क्या? चल आगे का रास्ता ले। वरना अभी धक्के मार कर भगाता हूँ।" गरज के बोला देवेश।
"बाबूजी समय ने क्या कम धक्के मारे हैं हमें? जो आप भी मारोगे। हम तो वैसे ही लुटे पिटे हुए हैं, हमें मार कर क्या पाओगे बाबू जी?"
उसकी आवाज़ में गहरी वेदना थी। पीड़ा की लकीरें उसके चेहरे पर साफ़ पढ़ी जा सकती थी उस वक्त। आँखों में एकाएक कुछ कतरे झूलने लगे और होंठ पलभर को फड़फड़ा कर रह गए।

गर्दन पकड़ कर लटक रहा गोद का बच्चा उसके कूल्हे की हड्डी पर टिका था, आँखें मिचमिचाता हुआ। बच्चा क्या था? मानो कुछ किलो हड्‍डियों की एक छोटी-सी पोटली थी।
"क्यों बहस कर रहे हो आप? इनके मुँह लगने का कोई फ़ायदा है क्या? आप अपना काम करो ना। अपने आप चली जाएगी।" दोनों का वार्तालाप सुनकर बाहर आ गई अणिमा ने फ़ौरन फ़ैसला सुनाया और कंधे पर झूल आए पल्ले को खींचकर कमर में खोंसते हुए कुर्सी खींचकर वहीं पास में बैठ गई।
"जा भई जा, आगे जा। यहाँ क्यों खड़ी है? मना कर दिया ना एक बार।" अणिमा ने समझाइश के लहज़े में दुत्कारा।
"भैन जी, तूफ़ान में मेरा घरबार सब उजड़ गया। झोंपड़ी बह गई, मेरे आदमी और बच्चों का भी कोई पता नहीं चला। मरखिर गए होंगे कहीं। मैं निगोड़ी ना जाने कैसे बच गई? ये हाडमाँस का जीव और बच गया साथ में। ये ना होता तो मैं भी कहीं डूब मरती। लहरें हमको भी निगल गई होती तो अच्छा होता। मेरा ये बच्चा तीन दिन से भूखा है भैन जी। कुछ ठंडा बासा दे दो खाने को।" कहते-कहते वो सुबकने लगी।
बच्चा मिमियायी आँखों से अपनी माँ का वीभत्स चेहरा ग़ौर से देखने लगा और डर के मारे घिघियाकर रो पड़ा। आवाज़ें सुनकर अपूर्व भी अपना खेल छोड़ कर बाहर की तरफ़ दौड़ा। लेकिन मम्मी पापा के डर के कारण ठिठक कर रह गया और जाली के दरवाज़े के अंदर से खड़ा-खड़ा सबकुछ देखने लगा।

"अरे तुम जाओ भई। नहीं सुननी तुम्हारी रामकथा। जाओ कहीं और का रास्ता लो। ये सुनामी लहरें क्या हुई? जान की आफ़त हो गई। रोज़ कोई ना कोई मुँह उठाए चला आता है। लोगों ने इसको अच्छा कमाई का धंधा बना लिया है। जिसको देखो वो सुनामी का झंडा लेकर घूम रहा है। कोई चंदा माँग रहा है कोई कपड़े। भिखमंगों को भी माँगने खाने का नया बहाना मिल गया बस। मक्कार कहीं के सब के सब।"
"बाबूजी कमाने वाले कमाते होंगे। मेरा तो बस ये एक लडका ही बचा है, इसके सिर पर हाथ रखकर कसम उठवा लो। मैं तो बस दो रोटी की गरजमंद हूँ। खुद तो जैसे तैसे अंतडियाँ भींच कर रह जाऊँगी पर बच्चा तो आख़िर बच्चा है। कब तक पानी पी कर रह पाएगा? दया करो बाबूजी, दो टूक दे दो।"
बच्चा रोए जा रहा था। वो उसे चुप कराने के लिए हिलाए जा रही थी। कंधे की गठरी सरक कर सामने झूल आई थी। उसने गठरी उतार कर नीचे रख दी और वहीं बैठ गई।

अणिमा उसे बैठते देख घबरा गई,
"पर भई रोज़ कोई ना कोई सुनामी पीडित अगर माँगने आने लगेगा तो कैसे काम चलेगा? यहाँ कोई लंगर खुला है क्या? धर्मशाला थोड़े ही है। जाओ, जाकर सरकार से माँगो रोटी। इतना पैसा आ रहा है। वो आख़िर जा कहाँ रहा है?"
अणिमा ने अपने मन की भड़ास निकाल ली।
"भैन जी, सरकार किसको निहाल करती है? बाबू जी ठीक कह रहे हैं। लोगों ने कमाई का धंधा बना लिया है, हमारी मजबूरी को। तूफ़ान में मरने वालों और बेघर हुए लोगों से किसी को कुछ नहीं लेना देना। सब अपनी जेबें भरने की जुगत में लगे हैं। रही बात सरकार की, तो उनकी तरफ़ से तो इस तरह के तूफ़ान आते रहने चाहिए। इस बहाने पैसा इकठ्ठा हो जाता है खाने को- दिखाने को और आबादी भी कम हो जाती है एक ही झटके में। हैं ना, एक पंथ दो काज पर हम ग़रीब लोगों का क्या- जो दो रोटियों के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।"
उसके चेहरे को देख कर उसकी समझदारी का अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था। पर बातों से समझा जा सकता था कि देश के गल सड़ चुके 'सिस्टम' को ले कर उसमें गहरा आक्रोश है। ऐसा लग रहा था, मानो पूरा 'लोकतंत्र' सामूहिक रूप से उसकी वाणी के माध्यम से बोल रहा हो।
"चल भई तू। भाग यहाँ से। ज्ञान मत दे।"
इस बार देवेश ने उसको ज़रा सँभल कर दुत्कारा। बच्चा रोए जा रहा था। चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। शायद भूख़ से बिलबिला रहा था। औरत लगातार उसको कंधे से लगाकर हिला-हिला कर चुप कराने का असफल प्रयास किए जा रही थी। किंतु वो था कि चुप हो ही नहीं रहा था। झल्लाकर औरत ने ज़ोर से एक थप्पड़ मार दिया उसे, "चुप तो रह कमबख़्त। क्या मुझे खाएगा?" बच्चा और ज़ोर से घिघिया गया।

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