मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2

वे उसके हुलिये का एकटक मुआयना करते हुए बोलीं, "देख, ये क्लिप उतार दे बालों से। इन्हें भी दे दीयो काकी को, उसकी बेटी के लिए। तुझे पिंकी की मम्मी अच्छे वाले ला देगी। इससे बहुत अच्छे, जैसा तेरा फ्रॉक है न, उसी रंग के, और सुन, पिंकी की मम्मी को 'आँटी जी' बोला कर, समझी! और मुझे 'दादी जी', जैसे पिंकी कहती है।"

उन्होंने बच्ची को उत्साह में भरकर देखा था कि नए फ्रॉक के बाद, साबुन की नई टिकिया, दूसरे नए कपड़ों और बालों के लिए नए बढ़िया क्लिपों के मिलने का सुनकर लड़की की क्या प्रतिक्रिया होती है। लेकिन बच्ची के निर्विकार, निरपेक्ष चेहरे पर वे कुछ भी मनचाहा नहीं पढ़ पाई थीं और मन ही मन कुढ़ी थीं, 'ये गरीब लोग भी कितने घुन्ने हो गए हैं आजकल! अभी ज़रा-सी है और चालाकी का आलम यह कि भनक भी नहीं लगने दे रही कि इतना सब जो मिल रहा है उसे यहाँ, उसकी कब सोची थी उसने या उसकी काकी ने! ख़ासी पगार के अलावा बढ़िया खाना-पीना, जैसा वे खुद खाते हैं। साबुन-तेल, कपड़ा-लत्ता, कंघा-आइना - सब। अपना अलग बाथरूम। छोटा-सा ही सही - अलग कमरा। ऐश है उसकी तो। कहाँ उन झुग्गियों में काकी के ढेरों बच्चों के साथ कोने में दुबककर सोना! न रोज़ नहाने-धोने को मिलना, न भर पेट खाना नसीब होना। यहाँ तो सब कुछ है!' देखा था उन्होंने कि झाड़-पोंछ की आड़ में कैसे वह पिंकी के ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने-आपको निहारती रहती थी।

उनके बेटा-बहू चाहते थे कि घर के सदस्य की तरह ही दिखे वह। अड़ोसियों-पड़ोसियों को कहने-सोचने का मौका न मिले कि बच्ची को काम पर लगा रखा है। समझते रहें कि किसी ग़रीब लड़की की परवरिश कर रहे हैं अपने यहाँ रखकर, अपनी ही बच्ची की तरह।

शनिवार-इतवार को बगल वाले ब्लॉक के शॉपिंग सेंटर के सामने जो एक्सपोर्ट सरप्लस का हाट लगता है, बहू वहाँ से उसके लिए कुछ जोड़े अच्छे कपड़े भी ख़रीद लाई थी, सस्ते में। साफ़-सुथरी रहेगी, ढंग के कपड़े पहनेगी, तो घर में हर वक्त इसकी उपस्थिति भी नहीं खलेगी। और बच्ची काम भी करेगी खुशी-खुशी।
बच्ची!
वे अपने-आप में ही सकपकायी थीं। बच्ची ही तो थी वह। रखवाते वक्त उसकी काकी ने पैसे बढ़वाने के चक्कर में भले ही बताया था कि तेरह-चौदह साल की थी, पर वे खूब समझ सकती थीं कि लड़की की उम्र दस-ग्यारह से ऊपर नहीं थी।

मजबूरी थी उनकी भी, सो रख लिया था। दिल्ली से लगे इस उपनगर में गगनचुंबी इमारतें तो बनती जा रही थीं, एक के बाद एक। और खुले वातावरण तथा सस्ते के आकर्षण में लोग बसते भी जा रहे थे यहाँ। लेकिन बिजली-पानी की मूलभूत ज़रूरतों के अलावा घरेलू कामवालियों की भी ख़ासी किल्लत थी। दूर-दूर तक छिटके-छितरे बहुमंज़िली इमारतों के झुंड के झुंड। लेकिन परिवहन व्यवस्था एकदम अव्यवस्थित, असंतुलित। बसों की आवाजाही दिल्ली की तरह थोड़े ही थी कि दूर-दूर से काम करने आ जातीं महरियाँ। न ही यहाँ दिल्ली की तरह पॉश कॉलोनियों के साथ लगते गाँव थे, जैसे वसंत विहार के साथ वसंत गाँव, मुनीरका के साथ मुनीरका गाँव, सिरी फोर्ट के साथ शाहपुर जाट या साकेत के साथ खिड़की गाँव। दिल्ली की तरह यहाँ अभी मलिन बस्तियों के जमघट भी नहीं जमे थे कि पैसे वालों और जीविका के लिए उनके यहाँ काम करने वाले निर्धनों की परस्पर निर्भरता का लाभ यहाँ के बाशिंदों को मिल जाता। यहाँ तो रियल एस्टेट के मालिकों ने चप्पा-चप्पा ज़मीन कब्ज़ा रखी थी, भविष्य में अपनी रियासतें विकसित करने के लिए।

बहरहाल, इस 'हैप्पी हैवेन' सोसायटी में काम करने आनेवाली कुछ गिनी-चुनी कामवालियों के नखरों से तो वे नहीं ही निभा सकती थीं। हर काम के चार-चार सौ रुपए। यानी झाडू-पोंछा, बर्तन, कपड़ों के कुल मिलाकर बारह सौ रुपए। तिस पर हर दूसरे दिन नागा! और जो एक काम भी ऊपर से कह दो तो मजाल है कि कर दें! खुशी-खुशी! कहेंगी, "आँटी जी, और भी चार घरों में काम करना है। मेरे पास टैम कहाँ है!" इधर आजकल एक नया ट्रेंड निकला है महरियों-कामवालियों में, बीबी जी के बदले 'आँटी जी' या 'दीदी' कहने का। उम्र के हिसाब से या व्यक्तिगत रख-रखाव के हिसाब से। अर्थात अगर बाल-वाल रंगे हुए रहती हों, सलवार-सूट या जींस पहनती हों, तो बुढ़ापे में भी 'दीदी' कहला सकती हैं! लेकिन अगर जो देह थुलथुल हुई, केशराशि नैसर्गिक श्वेत-धवल, तो वे भी बेचारी क्या कहें 'आँटी जी' के सिवा!

तो ऐसी पार्टटाइम कामवालियों से भला काम चल सकता था उनका! वह भी तब, जबकि सारे घर के कामों का दायित्व अकेले उन्हीं के कंधों पर था। बेटा-बहू तो सवेरे ही अपने-अपने दफ़्तरों को निकल जाते थे।

यद्यपि वे फ़ुलटाइम अर्थात घर पर ही रहने वाले नौकर या नौकरानी को रखने के लिए बाध्य थीं, लेकिन जवान लड़का या लड़की वे हरगिज़ नहीं रखना चाह रही थीं। लड़का रखतीं, तो हर वक्त डर कि पता नहीं कब टेंटुआ दबा दे या चोरी करवा दे। जवान लड़की की अलहदा परेशानियाँ। आस-पड़ोस के नौकरों-चौकीदारों से आँख-मटक्के करेगी और कुछ ऊँच-नीच हो जाए, तो फँसेगा घर का मालिक ही। जवान लड़की रखकर तो उनकी बहू भी राज़ी नहीं थी। कहाँ तक करेगी अपने पति की निगरानी। सो दिल्ली में किसी रिश्तेदार के यहाँ काम करने वाली महरी को कहकर इस बच्ची यानी मीनू को मँगवाया था, अपने यहाँ काम करने के लिए।

बस्ती के श्मशान घाट के पास से बहते नाले के किनारे बनी झुग्गियों में रहती थी मीनू, अपने काका-काकी के चार बच्चों के साथ। उन सब बच्चों में बड़ी वही थी। घर पर रहती तो बच्चों की देखभाल करती और जब काकी काम पर निकलती, तो वह भी साथ जाकर उसका हाथ बँटाती। काकी झाडू देती, तो वह पोंछा लगाती। काकी कपड़े फींचती, तो वह बर्तन मल देती।

पता नहीं कैसे कराते होंगे झुग्गियों से सीधे आने वाली कामवालियों से काम! उन्होंने तो नहाने-वहाने और साफ़-सुथरा रहने की आदत डाल एकदम ही बदल डाला था लड़की को। लेकिन उसके चेहरे की चिरंतन उदासी, उसका वह टुकुर-टुकुर ताकना! क्या करतीं वे उसका भी। जितना ही उससे बात करने की कोशिश करतीं, लड़की उतनी ही अपने-आप में सिमटती जाती। मुँह में जैसे ज़बान ही नहीं। जो काम कह दो, चुपचाप कर दिया। न हाँ, न ना। चेहरा ऐसा सपाट, जैसे साफ़ की गई स्लेट।

मुस्कान कुछ तिरती थी उसके चेहरे पर, तो बस पिंकी को देखकर, जब वह स्कूल से लौटती। और पिंकी भी तो! 'मीनू दीदी, मीनू दीदी' करते उसके आसपास ही बनी रहती, चाहे वह बर्तन मांज रही हो या पोंछा लगा रही हो। बहू ने ही सिखाया था पिंकी को उसे 'मीनू दीदी' कहकर पुकारना। कितनी तो छोटी थी पिंकी उससे। अभी छह की ही तो हुई थी पिछले महीने। और वैसी ही भोली उसकी बातें - 'मीनू दीदी, आप मेरे वाले स्कूल में क्यों नहीं पढ़तीं? आप वहाँ पटरे पर क्यों बैठती हो, नीचे? आओ ना, यहाँ मेरे साथ सोफे पर बैठकर देखो ना, टी.वी.!'

उनको तो, काटो तो खून नहीं! सकपकाकर वे दौड़ी थीं उसके पास। मीनू को किसी काम से रसोई में भेज वे पिंकी को खींचकर अपने कमरे में ले गई थीं, "अरे, बुद्धू, वह हमारी मेड है, काम करने वाली। वह तेरे साथ सोफ़े पर कैसे बैठेगी? उसके माँ-बाप बहुत ग़रीब हैं। गाँव में रहते हैं। इसे खिला-पिला भी नहीं सकते। इसीलिए तो इसको काकी के पास भेज दिया दिल्ली में कि काम करके उनको पैसे भेजे।"

वे अपने-आप पर ही शर्मिंदा-सी हुई थीं कि वे भी क्या समझा रही हैं छह साल की अपनी नासमझ-सी पोती को। खुद अपने-आप को ही भला कहाँ समझा पाई थीं वे! हर बार जब मीनू अपने नन्हें-नन्हें हाथों से बर्तनों पर विम घिसकर नल तक पहुँचने के लिए पटरे पर चढ़कर उचककर पानी बहाती थी, तब आत्मग्लानि की एक अंतर्धारा उनके सीने में भी बहने लगती थी। और तब कुर्सी पर बैठीं वे ऊन में गुँथी अपनी सलाइयाँ नहीं चला पाती थीं। उन्हें वहीं कुर्सी पर छोड़ वे धीरे-धीरे चलती उसके पास पहुँच जातीं। मीनू के धोये बर्तनों को सूखे कपड़ों से पोंछती वे जल्दी-जल्दी उन्हें उनकी जगह पर लगाने लगतीं कि किसी तरह उसका काम जल्दी ख़त्म हो और वह अपनी चटाई पर जाकर आराम को लेटे, ताकि वे भी थोड़ी चैन की साँस लें।

पृष्ठ: 1. 2. 3

आगे—

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।