मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2
''तो ज्यादा क्यों नहीं मांगा तुमने? और क्या-क्या मिलेगा?'' छोटे की बीवी फोन पर ही पूरी रिपोर्ट चाहती है।
''अभी बड़े के घर आ ही रही हो। सब बता दूँगा।'' और छोटे ने फोन रख दिया।
उधर बड़े की बीवी उसकी तेल मालिश कर रही है फोन पर ही, ''आपकी तो, पता नहीं अक्ल मारी गई है। हां कर दी है बाउजी के लिए। आपका क्या है, संभालना तो मुझे पड़ता है। एक मिनट चैन नहीं लेने देते। अब आप ही दुकान पर बिठाया करना सारा दिन।''

''समझा करो भई। बिज्जी को रखने की शर्त पर ही छोटा इतने कम पर माना है।'' बड़े ने तर्क दिया, ''वरना वह तो...''
''और क्या-क्या दे दिया है उसे? कहीं पालम वाला फार्म हाउस तो नहीं दे दिया? आपका कोई भरोसा नहीं।''
''नहीं दिया बाबा वह फार्म हाउस। अभी आ ही रहे हैं। सब बता दूँगा।'' कहकर बड़े ने फोन रख दिया और पसीना पोंछा।
दोनों ने घर पहुँचते ही अपनी-अपनी बीवी को फ़ैसले की संक्षिप्त रिपोर्ट दे दी है। दोनों औरतें कुछ और पूछना चाहती हैं, लेकिन उनके हाथ और अपनी आंख दबाकर दोनों ने इशारा कर दिया है-''अभी नहीं।''

दोनों समझदार हैं। मान गई हैं, लेकिन जितनी खबर मिल चुकी है, उसे भी अपने भीतर रखना उन्हें मुश्किल लग रहा है। किसी को बतानी ही पड़ेगी। उन्होंने बच्चों के कान खाली देखकर बात वहां उड़ेल दी है। बच्चे तो बच्चे ठहरे। सीधे दादा-दादी के कमरे की तरफ लपके। खबर प्रसारित कर आये।

बड़े ने इंपोर्टेड व्हिस्की निकाल ली है - चलो पिंड छूटा। जब से इसे पार्टनर बनाया था, तब से चख-चख से दुखी कर रखा था। तब पार्टनर बनने की जल्दी थी और अब चार साल में ही अलग होने के लिए कूद-फांद रहा था। पिछले कितने दिनों से तो रोज़ फ़ैसले हो रहे थे, लेकिन दोनों ही रोज़ अपनी बीवियों के कहने में आकर रात के फ़ैसले से मुकर जाते थे। फिर वहीं पंजे लड़ाना, फूँ-फाँ करना...। आज निपटा ही दिया आखिर। बड़ा मन-ही-मन खुश है।

बड़े ने बाउजी को भी बुलवा लिया है। उन्हें यह सौभाग्य कभी-कभी ही नसीब होता है। सिर्फ एक या दो पैग। आज वे समझ नहीं पा रहे - यह दावत खुशियाँ मनाने के लिए है या ग़म गलत करने के लिए। अलबत्ता, वे अपने हिसाब से उदास हो गए हैं। ''प्रॉपर्टी के साथ-साथ मां-बाप का भी बंटवारा। अब तक तो दोनों घर अपने थे। कभी यहां तो कभी वहां। कभी वे इधर तो कभी बिज्जी उधर। कोई रोक-टोक नहीं थे। उठाई साइकिल और चल दिए। कहीं कोई तकलीफ नहीं, लेकिन... लेकिन... अब मुझे यहीं रहना होगा। अकेले। बिज्जी उधर अलग। सारे दिन इस बड़े की बीवी के ज़हर बुझे तीर झेलने होंगे। कैसे रहेंगी बिज्जी अकेली! बेशक ऑपरेशन के बाद कोई खतरा नहीं रहा। फिर भी कैंसर है। कोई छोटी-मोटी बीमारी नहीं। कौन बचता है इससे! दोनों कहीं भी रह लेते। आखिर हम दोनों का खर्चा ही कितना होगा। कुकी के ट्यूटर से भी कम। उदिता की पॉकेट मनी भी ज्यादा होगी हम दोनों के खर्चे से!''

बाउजी बिना घूंट भरे, गिलास हाथ में लिये ऊभ-चूभ हो रहे हैं - कहें भी तो किससे! इस घर में मेरी सुनता ही कौन है! कहते-सुनाते सब हैं। ब‌ड़ों की देखा-देखी छोटे भी। बस, फैसला कर दिया और कहलवाया भी किसके हाथ? बच्चों के। मैं तो एकदम फालतू हूं। घर के पुराने सामान से भी गया-बीता? पड़े रहो एक कोने में। क्या मतलब है इस ज़िंदगी का!
बाउजी ने अपने हाथ में पकड़ा व्हिस्की का गिलास देखा - ग्यारह सौ की आई थी यह बोतल और इस बुड्ढे-बुढ़िया का महीने भर का खर्च!

तभी उन्हें कहीं दूर से आती बड़े की आवाज सुनाई दी। सिर उठाया - सामने ही तो खड़ा है वह। छोटे का कंधा थामे। कह रहा है, ''छोटे, हम दोनों ने अपना बिजनेस अलग कर लिया है, रिश्ते नहीं। हम आगे भी एक-दूसरे को मान देते रहेंगे। हमारे घरों का, दिलों का बंटवारा नहीं हुआ है छोटे।''
छोटा भावुक हो गया है, ''हां बड़े। यह घर मेरा ही है और वह घर तुम्हारा है। हम पहले की तरह एक - दूसरे के सुख-दुख में खड़े होंगे।''
''देख छोटे, तू मां को ले जा तो रहा है, लेकिन याद रखना, वह पहले मेरी मां है। तू उसे कोई तकलीफ नहीं देगा।''
''नहीं दूँगा बड़े। वह मेरी भी तो मां है।''
''छोटे, तू उससे कोई काम नहीं करवाएगा। उसकी सेवा करेगा। उसके इलाज पर पूरा ध्यान देगा।'' बड़े ने अपना गिलास दोबारा भरा।
''हां बड़े, उसकी पूरी सेवा करुंगा।'' छोटे ने भी अपना गिलास खाली किया।
''बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए छोटे। उसे ज़रा-सा भी कुछ हो तो तू सबसे पहले मुझे खबर करेगा।'' बड़े ने फिश कटलेट का टुकड़ा मुंह में डाला।
''वादा करता हूं बड़े।'' छोटे ने सलाद चखी।

अब बड़ा भी भावुक हो गया है। उसने एक लंबा घूंट भरा, ''छोटे, मुझे गलत मत समझना। हम लोगों ने दूसरों के कहने में आकर यह बंटवारा तो कर लिया है, लेकिन हम दोनों सगे भाई हैं। आगे भी बने रहेंगे।''
बाउजी से और नहीं बैठा जाता। अपना बिन पिया गिलास वहीं छोड़कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे में चले आए। आज की रात तो थोड़ी देर बिज्जी के पास बैठ लें। कुछ कह-सुन लें। कल तो उसे छोटा ले जाएगा। इतनी देर से रोकी गई भड़ास और नहीं रोकी जाती। फट पड़ते हैं, ''लानत है ऐसी औलाद पर, ऐसी ज़िंदगी पर। कभी अपनी मां के कमरे में झाँककर नहीं देखते। जीती है या मरती है। खुद मुझे कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता, नौकर से भी बदतर। और ये दोनों लाल घोड़ी पर चढ़े बड़ी-बड़ी बातें बना रहे हैं।''
पछता रहे हैं बाउजी, ''बहुत बड़ी गलती की थी यहां आकर। वहीं अच्छे थे। अपना घर-बार तो था। इन लोगों के झाँसे में आकर सब कुछ बेच-बाच डाला। तब बड़े सगे बनते थे हमारे! अब सब कुछ इन्हें देकर इन्हीं के दर पर भिखारी हो गए हैं। जब अपनी ही औलाद के हाथों दुर्गत लिखी थी तो दोष भी किसे दें। इससे तो गरीब ही अच्छे थे हम। न मोह, न शिकायत! जैसे थे, सुखी थे।''

उनकी बड़बड़ाहट सुनकर बिज्जी की आंख खुल गई। पूछती हैं, ''कहां गए थे? अब किसे कोस रहे हो?''
''कोस कहां रहा हूं। मैं तो...'' गुस्से की मक्खी अभी भी बाउजी की नाक पर बैठी है, ''वो अंदर पार्टी चल रही है। जश्न मना रहे हैं दोनों। प्रॉपर्टी के साथ हमारा भी बंटवारा हो गया है। उसी खुशी में...''
''छोटा आया है क्या? इधर तो झाँकने नहीं आया?'' बिज्जी उदास हो गई है।
''फ़िकर मत कर। कल से रोज आएगा झाँकने तेरे कमरे में। तू उसी के हिस्से में गई है।'' बाउजी की आवाज में अभी भी तिलमिलाहट है।

बिज्जी ने सुनकर भी नहीं सुना। जब से बिस्तर पर पड़ी हैं, किसी भी बात की भलाई-बुराई से परे चली गई हैं। बाउजी की तरफ देखती हैं। उन्हें समझाती हैं, ''अपना ख्याल रखना। बहुत लापरवाह हो। ज्यादा टोका-टोकी मत करना। बड़ा और उसकी वो तो तुमसे वैसे ही ज्यादा चिढ़ते हैं।''
''हां, चिढ़ते हैं। सब चिढ़ते हैं मुझसे। हरामखोर हूं मैं तो। घर पर रहूँ तो पिसता रहूँ। दुकान पर बैठूँ तो बेगार करुँ। मुझसे तो दुकान का नौकर बंसी अच्छा है। महीने की दस तारीख को गिनकर पूरी तनख्वाह तो ले जाता है, जबकि काम मैं भी उतना ही करता हूं। ग्राहकों को चाय पिलाता हूं। उनके जूठे गिलास धोता हूं। दुकान की सफाई करता हूं। साइकिल पर कितनी-कितनी दूर जाता हूं और क्या उम्मीद करते हैं मुझसे! अब इन सत्तर साल की बूढ़ी हड्डियों से जितना बन पड़ता है, खटता तो हूं।'' बाउजी की दुखती रग दब गई है। वे फिर शुरू हो गए हैं, ''इन साहबज़ादों के लिए जमा-जमाया घर छोड़कर आए थे। सब कुछ इन्हें दे दिया। हमारी क्या है, कट जाएगी। अब इन दोनों ने महल खड़े कर लिये हैं, लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं और यहां...''
''अब बस भी करो। तुम्हारा तो बस रिकाड हर समय बजता ही रहता है। कोई सुने, न सुने। जब तुम्हारा टाइम था तो तुम्हारी चलती थी। गलत बातें भी सही मानी जाती थीं। हैं कि नहीं। अब वक्त से समझौता कर लो। सही-गलत...''
''तू सही-गलत की बात कर रही है, यहां तो कोई बात करने को तैयार नहीं...''
बिज्जी ने नहीं सुना। वे अपनी रौ में बोल रही हैं, ''मुझे यहां से भेजकर भूल मत जाना। कभी-कभी आ जाया करना। फोन कर लिया करना। मैं तो क्या ही आऊँगी वापस अब...बची ही कितनी है...।''

बाउजी एकदम सकते में आ गए। सहमे से बिज्जी को देखते रह गए - क्या सचमुच हमेशा के लिए जा रही है बिज्जी यहां से? यह बीमार, कमज़ोर औरत, जिसके चेहरे पर हर वक्त मौत की परछाईं नज़र आती है, अब कितने दिन और जिएगी इस तरह? दवा-दारू से तो वह पहले ही दूर जा चुकी है। अब इन आखिरी दिनों में तो दोनों बच्चों के कुटुंब को एक साथ हँसता-खेलता देख लेती। आराम से मर सकती। न सही औलाद का सुख, हम दोनों को तो एक साथ रह लेने देते। उनसे और कुछ तो नहीं माँगते। जीते-जी तो मत मारो हमें...लेकिन सुनेगा कौन! यहां जितना हो सकता था, इसकी देखभाल कर ही रहा था। वहां तो कोई पानी को भी नहीं पूछेगा। कैसे जिएगी ये... और कैसे जिऊँगा मैं...''
''कहां खो गए?'' बिज्जी इतनी देर से जवाब का इंतजार कर रही हैं। बाउजी उठकर बिज्जी की चारपाई के पास आए। वहीं बैठ गए। उनका हाथ थामा, ''भागवंती, हमारी औलाद तो ऊपर वाले से भी जालिम निकली। वह भी इतना निर्दयी नहीं होगा। जब भी बुलावा भेजेगा, आगे-पीछे चले जाएँगे। वहाँ तो अलग-अलग ही जाना होता है ना! यहां तो जीते-जी अलग कर रही है हमारी अपनी कोखजायी औलाद।'' बाउजी का गला रुँध गया है। बिज्जी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। कितनी-कितनी बार तो सुन चुकी है उनके ये दुखड़े। बिज्जी ने हाथ बढ़ाकर बाउजी की आंखों में चमक आए मोती अपनी उंगलियों पर उतार लिये।

उधर बड़े-छोटे के संवाद जारी हैं। अब दोनों नहीं बोल रहे, दोनों के भीतर एक ही बोतल की इंपोर्टेड व्हिस्की बोल रही है, जिसे कभी छोटा खोलता है तो कभी बड़ा।
इस बार पैग छोटे ने बनाए, ''बड़े, मुझे माफ करना, बड़े। मैंने अपनी वाइफ के बहकावे में आकर अपने देवता जैसे भाई का दिल दुखाया। उससे अपना हिस्सा... मांगा।'' वह रोने को है।
''छोटे, तू चाहे अलग रहे, अलग काम करे, तू इस घर का सबसे बड़ा मेंबर है।'' बड़ा फिर भावुक हो गया है, ''मार्च में उदिता की शादी है, सब काम तुझे ही करने हैं।''
''फ़िकर मत कर बड़े। मैं इस घर के सारे फर्ज अदा करूँगा। उदिता की शादी का सारा इंतज़ाम मैं देखूँगा।'' छोटे के भीतर बड़े के बराबर ही शराब गयी है।

इससे पहले कि इसके जवाब में बड़ा कुछ कहे या आज का फैसला अपनी बीवी की सलाह लिये बिना बदले, उसकी बीवी ने आकर फरमान सुनाया, ''अब बहुत... हो गयी है। चलो, खाना लग गया है।''
बड़े ने अपना गिलास खत्म करके छोटे का हाथ थामा और उसे लिये-लिये डाइनिंग रूम में आ गया।
वहां बाउजी, बिज्जी को न पाकर उसने उदिता से कहा, ''जाओ बेटे, बाउजी, बिज्जी को भी बुला लाओ।''
जवाब बड़े की बीवी ने दिया, ''उन लोगों ने अपने कमरे में ही खा लिया है। आप लोग शुरू करो।''
खाना खाने के बाद बड़ा-छोटा और उनकी बीवियों, चारों लोग बाउजी-बिज्जी के कमरे में गए। बिज्जी सो गई है। बाउजी अधलेटे आंखें बंद किए पड़े हैं।

''चलते हैं बाउजी।'' यह छोटे की बीवी है। उसने बाउजी के आगे सिर झुकाया। वह जब भी बाउजी, बिज्जी से विदा लेती है, ऐसा ही करती है। छोटा भी उसके साथ-साथ ही झुक गया। बाउजी ने रज़ाई से हाथ निकाला, ऊपर किया, कुछ बुदबुदाए और हाथ रज़ाई में वापस चला जाने दिया। छोटा और उसकी बीवी यही दोहराने के लिए बिज्जी की चारपाई के पास गए, लेकिन बाउजी ने इशारे से रोक दिया, ''सो गई है। जगाओ मत।''
जाते-जाते बड़े ने पूछा है, ''बत्ती बंद कर दूं क्या? बाउजी की ''आँ' को उसने ''हां' समझ कर लाइट बुझा दी है।

छोटे के कार स्टार्ट करने तक यह तय हो गया है कि बड़ा कल ही छोटे को उसके हिस्से में आई प्रॉपर्टी के काग़ज़ात वगैरह और पैसे दे देगा। छोटे की बीवी परसों आकर बिज्जी को और उनका सामान लिवा ले जाएगी।

रात में छोटे और बड़े की अपनी-अपनी बीवी के दरबार में पेशी हुई। एक बार फिर लंबी बहसें चलीं और दोनों की ब्रेन वाशिंग कर दी गयी और उन्हें जतला दिया गया-उन्हें फ़ैसले करना नहीं आता। दोनों का नशा सुबह तक बिलकुल उतर चुका था। दोनों ने ही सुबह-सुबह महसूस किया - दूसरे ने ठग लिया है। इधर बड़ा सुबह-सुबह हिसाब लगाने बैठ गया, ''छोटे के हिस्से में कितना निकल जाएगा।'' उधर छोटा कॉपी-पेंसिल लेकर बैठ गया, ''उसे देने के बाद बड़े के पास कितना रह...जायेगा।''
दोनों को हिसाब में भारी गड़बड़ी लगी। बड़े को शक हुआ, ''छोटे ने ज़रूर कुछ प्रॉपर्टीज अलग से खरीदी-बेची होंगी। इतना सीधा तो नहीं है वह। दुकान पर जाते ही सारे काग़ज़ात देखने होंगे। क्या पता छोटे ने पहले ही काग़ज़ात पार कर लिये हों।''
उधर छोटे को पूरा विश्वास है, बड़े के पास कम-से-कम तीस लाख तो नकद होना ही चाहिए। पिछली तीन-चार डील्स में काफी पैसे नकद लिये गये थे। कहां गए वे सारे पैसे! फिर उसने मार्केट रेट से हिसाब लगाया, उसके हिस्से में कुल चौदह-पंद्रह लाख ही आ रहे हैं, जबकि बड़े ने अपने पास जो प्रॉपर्टीज रखी हैं, उनकी कीमत एक करोड़ से ज्यादा है। नकद अलग। तो इसका मतलब हुआ, बड़े ने उसे दसवें हिस्से में ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। छोटे ने खुद को लुटा-पिटा महसूस किया।

पृष्ठ : 1. 2. 3.

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।