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रात में उठ-उठकर वह पत्नी की पीठ मलता रहा था। विक्स भी मला। सुखवंती को कुछ होता है तो वह खुद परेशान हो उठता है।

बाहर आँगन में चिड़ियों का शोर बता रहा था कि सवेरा हो चुका था। बिशन सिंह ने रजाई की बुक्कल में बैठे-बैठे वक्त का अंदाज़ा लगाया- छह बज चुके होंगे। बिशन सिंह का मन किया कि उठकर खिड़की खोले या आँगन वाला दरवाज़ा खोलकर बाहर देखे। पर तभी, इस विचार मात्र से ही उसके बूढ़े शरीर में शीत की एक लहर दौड़ गई। उसे लगा, ओढ़ी-लपेटी रजाई कहीं से उघड़ गई है। उसने फिर से अपने ईद-गिर्द रजाई को अच्छी तरह लपेटा और सोचने लगा- इन चिड़ियों को ठंड क्यों नहीं लगती? इस कड़कड़ाती ठंड में भी कैसे मस्ती में चहचहा रहीं हैं बाहर!

तभी सुखवंती ने करवट बदली थी। करवट बदलने से रजाई एक ओर लटक गई थी जिससे उसकी पीठ नंगी हो गई। बिशन सिंह का मन हुआ कि वह सुखवंती को आवाज़ लगाकर जगाये और रजाई ठीक कर लेने को कहे। पर कुछ सोचकर उसने ऐसा नहीं किया। इससे उसकी नींद में खलल पड़ता। बिशन सिंह ने खुद उठकर सुखवंती की रजाई को ठीक किया, इतनी आहिस्ता से कि सुखवंती जाग न जाए। जाग गई तो दुबारा सोने वाली नहीं। वैसे भी सुखवंती ठीक हो तो इतनी देर तक कभी नहीं सोती। चिड़ियों के चहकने पर ही बिस्तर छोड़ देती है। पर सारी रात जागकर काटी है बेचारी ने। खाँसी ने सोने ही नहीं दिया। आज इसे डॉक्टर के पास ज़रूर लेकर जाऊँगा, चाहे कुछ हो जाए। अपने आप तो जाने से रही। छोटा-मोटा ताप, खाँसी-जुकाम तो इसके लिए कोई माने नहीं रखता। कहती है- यह भी कोई बीमारी है? खुद ठीक हो जाएगी। पैसे फालतू आ रहे हैं जो डॉक्टरों की जेबें भरें...।
अब फिर वह अपने बिस्तर पर दीवार से पीठ टिका कर बैठ गया, रजाई को अच्छी तरह ओढ़कर।

स्मृतियाँ अकेले आदमी का पीछा नहीं छोड़तीं। बूढ़े अकेले लोगों का तो ये स्मृतियाँ ही सहारा होती हैं, जिनमें खोकर या जिनकी जुगाली करके वे अपने जीवन के बचे-खुचे दिन काट लेते हैं। बिशन सिंह भी अपनी यादों के समंदर में दिन भर उतरता-डुबता रहता है। कभी जीवन के कड़वे दिन याद आते हैं तो कभी सुखभरे दिन।

सुखवंती ब्याह कर आई थी तो उसके घर की हालत अच्छी नहीं थी। बस, दो वक्त की रोटी बमुश्किल चलती थी। ज़मीन-जायदाद थी नहीं। गाँव में छोटा-मोटा बढ़ई का काम करता था वह, जो उसका पुश्तैनी धंधा था। पर सुखवंती का पैर उसके घर में क्या पड़ा कि उसके दिन फिरने लगे। उन्हीं दिनों गाँव के साथ वाले शहर में एक नया कारखाना खुला था। बिशन सिंह को वहाँ काम मिल गया। साइकिल पर सवेरे काम पर जाना और दिन ढले लौट आना गाँव में। हर महीने बँधी पगार आने से धीरे-धीरे उसके घर की हालत सुधरने लगी। कच्चा घर पक्का हो गया। भांय-भांय कर्ता घर हर तरह की छोटी-मोटी वस्तुओं से भरने लगा। बिशन सिंह ने गाँव में ही ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा ख़रीद लिया। चार दुकानें निकाल लीं। एक अपने पास रखकर बाकी तीन किराये पर चढ़ा दीं। हर महीने बँधा किराया आने लगा। कारखाने की पगार और दुकानों का किराया, और दो जीवों का छोटा-सा परिवार! पैसे की टोर हो गई। ख़याल तो बिशन सिंह सुखवंती का पहले भी रखता था, पर अब कुछ अधिक ही रखने लगा था। वह उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने लगा। लोग गाँव में बातें किया करते- सुखवंती क्या आई, बिशने के घर सुख ही सुख हो गया।

सुखवंती ने फिर करवट बदली। अब उसने मुँह पर से रजाई हटा ली थी। बिशन सिंह उसके चेहरे की ओर टकटकी लगाए देखता रहा।
ईश्वर ने हर चीज़ का सुख उनकी झोली में डाला था। बस, एक औलाद का सुख ही नहीं दिया। बहुत इलाज करवाया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। सुखवंती चाहकर भी यह सुख बिशन सिंह को न दे पाई। लोग बिशन सिंह को दूसरा विवाह करवा लेने के लिए यह कहकर समझाते-उकसाते कि औलाद तो बहुत ज़रूरी है, जब बुढ़ापे में हाथ-पैर नहीं चलते तब औलाद ही काम आती है। पर बिशन सिंह ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कभी। बस, उसकी यही चाहत रही कि सुखवंती सुखी रहे।

इस बार सुखवंती ने करवट बदली तो उसकी आँख खुल गई। मिचमिचाती आँखों से घरवाले को बिस्तर पर बैठा देखा तो वह उठ बैठी। पूछा, ''क्या बात है?...तबीयत तो ठीक है?''
''हाँ, तू अपनी बता। सारी रात तू सो नहीं पाई। खाँस-खाँसकर बुरा हाल रहा तेरा...आज डॉक्टर के पास चलना मेरे साथ।''
''कुछ नहीं हुआ मुझे...'' सुखवंती ने अपना वही पुराना राग अलापा, ''मामूली-सी खाँसी है, ठंड के कारण... मौसम ठीक होगा तो अपने आप ठीक हो जाएगी। पर मुझे तो लगता है, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। काँपे जा रहे हो।''
''बस, ठंड के कारण काँप रहा हूँ। इस बार तो ठंड ने रिकार्ड तोड़ डाला।'' बिशन सिंह ने रजाई को अपने चारों ओर खोंसते हुए कहा।
''बैठे क्यों हो?...लेट जाओ बिस्तर में। मैं चाय बनाकर लाती हूँ।''
''लेटे-लेटे भी जी ऊब जाता है। धूप निकले तो बाहर धूप में बैठें। तीन दिन हो गए धूप को तरसते। पता नहीं, आज भी निकलेगी कि नहीं।''
''नहीं, अभी पड़े रहो बिस्तर में...बाहर हवा चल रही होगी। जब धूप निकलेगी तो चारपाई बिछा दूँगी बाहर।'' घुटनों पर हाथ रखकर सुखवंती उठी और 'वाहेगुरु-वाहेगुरु' करती हुई रसोई में घुस गई। कुछ देर बाद वह चाय का गिलास लेकर आ गई। बिशन सिंह ने गरम-गरम चाय के घूँट भरे तो ठिठुरते जिस्म में थोड़ी गरमी आई। उसने सुखवंती को हिदायत दी, ''अब पानी में हाथ न डालना। अभी आ जाएगी माई, खुद कर लेगी सारा काम। तू भी आ जा मेरे पास, चाय का गिलास लेकर।''

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