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उन बेज़बान गुड्डों के अलावा उसका कोई नहीं था, जिन्हें बेच कर वह अपना गुज़ारा करती थी। हर बार गुड्डा बेचने पर, जहाँ अपने काल्पनिक लोक में उससे किसी बच्चे को खेलते देख उसे खुशी होती, वहीं उस रात, उसका अकेलापन पहले से ज़्यादा दुखद और असहनीय हो जाता। हर गुड्डे को बनाते हुए वह उससे इतना जुड़ जाती कि उसे अपने अकेलेपन का साथी समझने लगती। उससे प्यार करने लगती। हर बार गुड्डा बेचने के बाद वह बेहद बेचैन हो जाती। उस दिन काफी देर टहलने के बाद वह अपने घर लौटती तब रात हो चुकी होती। अपने अन्दर की बेचैनी से निजात पाने के लिए वह फिर से एक नया गुड्डा बनाना शुरू कर देती। वह पूरी तेज़ी से नया गुड्डा बनाने के अपने काम पर लगती और अक्सर भोर होने तक बनाती रहती। इस दौरान वह अपने काम में इतने गहरे तक उतर चुकी होती कि उसे समय का अहसास न होता।

जैसे ही गुड्डे का आधारभूत ढाँचा तैयार हो जाता, वह अपने काम में सुस्त हो जाती। कई बार तो ऐसा होता कि गुड्डा लगभग तैयार होता, लेकिन वह सिर्फ़ इसलिए पाँच या सात मिनट में उसे पूरा न करती कि पूरा होने के बाद उस गुड्डे को बेचने दुकानदार के पास जाना होगा और उसे बेचने के बाद फिर से अकेलेपन की गहरी बेचैनी से गुज़रना होगा। लेकिन चूँकि उस बूढ़ी औरत का गुज़ारा ही गुड्डों को बनाने और बेचने से मिलने वाले पैसों से होता था, इसलिए अंतत: उसे गुड्डा बेचना ही पड़ता था। सालों गुज़र गए। बूढ़ी और अधिक बूढ़ी हो गई। पहले से कमज़ोर होने की वजह से वह अब उसे अकेलेपन का अहसास ज़्यादा होता था। उसकी आँखें पहले से ज़्यादा गहरी और उदास हो गई थीं और नज़रें पता नहीं किस को हर दम तलाशती रहतीं। हालाँकि जब वह गुड्डा बनाती तो पहले की तरह ही उसे बनाने में इस कदर खो जाती, कि न तो उसे समय का ध्यान रहता और न ही खाने पीने का। अब तो उसे गुड्डों से लगाव पहले से भी ज़्यादा हो गया था और जिस दिन कुछ पैसों के लिए गुड्डे को बेच कर आती, उस दिन आधी रात तक मैदान में टहलती रहती और भूखी-प्यासी ही सो जाती।

इधर एक गुड्डा जो दुकान में था और थोड़ी-सी उधड़ी हुई सीवन की वजह से बिक नहीं पाया था, रोज़ दुकान खोलते हुए इस उम्मीद में सुबह से रात तक इंतज़ार करता कि किसी बच्ची का पिता उसे ख़रीद ले जाएगा। लेकिन चूँकि वह थोड़ा भद्दा और फटा हुआ नज़र आता था, इसलिए हर बार बिकने से रह जाता। दुकानदार को भी शायद इतनी फुर्सत नहीं थी कि वह उसकी थोड़ी-सी उधड़ी सीवन को ठीक कर सकता। धीरे-धीरे उसका कपड़ा मैला होने लगा और उसके पाँवों में बड़ी कुशलता से बनाए गए सुन्दर जूते भी ढीले पड़ने लगे। अब दुकानदार भी सोचता था कि इस गुड्डे के बिकने की संभावना काफी कम है, सो वह दुकान खोलने के बाद उसे लापरवाही से कहीं भी रख देता। एकाध बार तो वह गुड्डा दुकानदार के जूतों तले भी आ गया। दुकान में मौजूद एक भारी-भरकम चूहे ने रात भर उस पर कई बार छलांग लगाई और एकाध जगह से काट भी खाया। अब जैसे ही रात होती, चूहे के डर के मारे गुड्डे के रोंगटे खड़े हो जाते।

दुकान में बहुत-सा सामान यों ही अस्त-व्यस्त-सा पड़ा रहता। दुकानदार रात होने पर दुकान के दरवाज़े बन्द करके चला जाता। अंधेरे में बहुत से चाबी के छल्ले, जो रेडियम के बने थे, वे अपनी हरी आभा से चमकते रहते। दुकान के कोनों में छुपे चूहे बाहर निकल आते। चूहे दुकान में इधर से उधर उछलकूद मचाते और छोटा-मोटा सामान भी गिरा देते। कुछ चूहे दरवाज़े के नीचे की पतली-सी झिर्री से बाहर निकल जाते और कुछ चूहे उसी झिर्री से दुकान के अन्दर प्रवेश कर जाते। यह ऐसा ही था जैसे हम किसी के घर मिलने जाएँ या कोई हमारे घर मिलने आए। बाहर से आए चूहे जब दुकान में प्रवेश करते, तो दुकान के अन्दर के चूहे उनके साथ मिल कर खूब उछलते और और एक दूसरे पर झपटते, एक दूसरे के पीछे भागते। चूहों की इन गतिविधियों से हालाँकि गुड्डे का थोड़ा मन बहल जाता, लेकिन किसी चूहे के काटने की आशंका से डरा भी रहता। इस समय गुड्डा भी भूल जाता कि जगह-जगह से उधड़ी सीवन, टूटे जूते और चूहों से बदरंग हो चुकने के बाद वह ख़ास महत्व का नहीं रह गया है।

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