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अकेले बैठे-बैठे मुझे विभु की बात याद आई-स्वामी जी आएँगे।...कोई ऐसे कैसे जा सकता है कि फिर ना लौटे...।...उस दिन सेमल के उन पेड़ों के नीचे मैंने सोचा था कि विभु छोटा है। उसे कुछ नहीं पता। मरने के बाद भी भला कोई लौटता है। स्वामी जी अब कभी नहीं आएँगे। मैं आश्वस्त था, कि वे अब नही लौटेंगे। उस दिन मैं मानता रहा कि विभु नादान है, नासमझ है, गलत है...। उसे कुछ नहीं मालूम।...पर आज। उस घटना के पच्चीस साल बाद मैं सोचता हूँ कि उस दिन मैं और संतोष ग़लत थे। उस दिन विभु सही था। भले वह नादान था, नासमझ था, पर ग़लत नहीं था। तभी तो इन पच्चीस सालों में स्वामी जी कई बार आए। विभु ठीक कहता था कि स्वामी जी आएँगे। और वे इन पच्चीस सालों में कई बार आए भी। वे आए...कभी शाम की फ़ुर्सत में ऑफ़िस की थकान मिटाते हुए, चाय पीते समय अकेले में...मैं उन्हें देखता, तो कभी सपनों में लंबे अरसों के बाद उनकी कोई छवि दीखती, तो कभी बड़ी उम्मीद के साथ की जाने वाली चर्चाओं में मैं उनका ज़िक्र कर बैठता और वे उन बातों का हिस्सा होते...कभी-कभी हम टूटकर बतियाते हैं और सिर्फ़ अपनी बातें करते हैं, हमें सुनने वाले का ख़याल नहीं रहता, या यों कहें हम उनका ख़याल नहीं कर पाते...एक बरसों की भूख फिर से अपना सिर उठाती है और किसी का हाथ थामकर उसे अपनी बात कहने का मन करता है कि सिर्फ़ हम कहें और वह सुने...उन बातों को और उन बातों को धकियाते आग्रह को...सुने उस भूख के खालीपन को...उतार ले उस खालीपन को अपने भीतर...प्लीज...एक आग्रह है...बरसों से उम्मीद के साथ भीतर पलता आग्रह...और ऐसी ही बातों में स्वामी जी आ जाते थे।

यद्यपि मैं कभी किसी को ना तो बता पाया और ना वे सब समझ पाए कि स्वामी जी की तुच्छ-सी बात करने की मेरी इच्छा क्यों है...कि उनकी बात करने के क्या मायने हैं।...कभी किसी अकेले कोने में, जब उस कोने में अंधेरा घिरता और मैं अपने भीतर कुछ सहलाता, तो स्वामी जी दिख जाते...हमेशा नहीं बस कभी-कभी और मैं चुपचाप महसूस करता कि क्या सहलाने वाले हाथों में उनका भी हाथ है...वही गर्म बीमार हाथ जिसमें मेरी छोटी ठंडी हथेली थी...जिसे मैं महसूस कर सकता हूँ...पच्चीस बरसों का अंतराल भी उस स्पर्श को घोल नहीं पाया है। कभी वे बिना किसी संदर्भ के अचानक यों ही आ जाते...उन बातों की तरह जिनके आने का कारण नहीं...और यों कारण नहीं होने से वे बरसों तक चलती हैं। तो कभी किसी और तरह...। स्वामी जी बार-बार आए। आज भी आते हैं।

बचपन के उन दिनों एक और मौत हुई थी। उस दिन कुछ बूँदा-बाँदी हो रही थी। मुझे घर में रहकर होमवर्क करने की हिदायत दी गई थी। मैं घर में ही था। हमेशा की तरह पिता जी और दत्ता अंकल चर्चा में मशगूल थे। पिता जी के हाथ में उस दिन का न्यूज़पेपर था। पिता जी बार-बार न्यूज़पेपर से कुछ पढ़ते और फिर दोनों बात करने लगते। वह उन्नीस सौ अस्सी का वर्ष था।
'वह एक महान आदमी था।'
'बेशक। उसको नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था। लेकिन वह कम्युनिस्ट था, लोग कहते हैं उसके विचार भिन्न थे। फिर नोबेल पुरस्कार में भी खूब राजनीति है। स्वीडिश अकादमी अमेरिका के प्रभाव में रहती है।'
दत्ता अंकल ने चाय गुटकते हुए, चश्मे से झाँकते हुए कहा।
'अरे नहीं तुमको नहीं मालूम, उसको नोबेल पुरस्कार मिला था।'
'पेपर में तो नहीं बताया है।'
'तो क्या हुआ, मिला था उसे।'
'पता नहीं पर उसका स्वभाव इन बातों की परवाह करने वाला नहीं था।'
'टर्की के हटने के बाद, यूगोस्लाविया में उसने महानतम कार्य किया था। देखो इस अखबार में लिखा है...। यह उसी का प्रयास था कि सर्व, क्रोयेट्स, स्लाव और बोस्नियन एक साथ आ पाए और एक राष्ट्र हो पाए।'
'महापुरुष था वह।'
'वर्ना इससे ज़्यादा समस्याओं वाली जगह दुनिया में कौन-सी रही है। कहो-कहो...। है कोई। पूर्वी यूरोप में सबसे जबरदस्त समाजवादी-राजनीतिज्ञ हैं।'
'यहीं से पहला विश्वयुद्ध चालू हुआ। सराजेवो में तो राजकुमार को कुछ लोगों ने गोली मारी थी और बाप रे बाप विश्वयुद्ध हो गया। सराजेवो भी यूगोस्लाविया में ही है। आप सही बोलते हो पूर्वी यूरोप में बहुत समस्याएँ हैं।
'और वहाँ इसने काम किया, लोगों को जोड़ा। एक राष्ट्र बनाया।'
'इस सदी में पूर्वी यूरोप का इससे बड़ा नेता कोई नहीं हुआ है ना।'
'महान व्यक्ति चला गया। सारी दुनिया को उसकी मौत से भारी नुकसान हुआ है। आप देखना बाद में लोग इस आदमी को लोग बहुत याद करेंगे।'
'उसने इतिहास रच डाला। लोग उसे भूल नहीं सकेंगे।
'आज तो हमारे ऑफ़िस में शोक सभी भी हुई।'
'सरकार ने आज अवकाश घोषित किया है।'
पिता जी फिर से पेपर पढ़ने लगे। वे फिर से उस आदमी के मरने की बात करने लगे जिसकी ख़बर पेपर के मुखपृष्ठ पर छपी थी। दत्ता अंकल और पिता जी देर तक बात करते रहे। मुझे उनकी बातों का आगा पीछा समझ नही आ रहा था। बस इतना ही समझ में आया कि कोई मर गया है, जिसकी खबर अखबार में छपी है। मुझे यह भी समझ में आया कि आज स्कूल की जल्दी छुट्टी क्यों हो गई। अध्यापिका ने स्कूल के सब बच्चों को मैदान में इकठ्ठा किया। फिर सबसे कहा कि जैसे ही घंटी बजेगी सब बच्चे दो मिनट तक शांत रहेंगे और फिर सब चुपचाप अपने-अपने घर चले जाएँगे। फिर घंटी बजी। सब बच्चे अध्यापिका के डर से चुप खड़े रहे। फिर दूसरी घंटी बजी और सारे बच्चे हल्ला-गुल्ला करते हुए अपने-अपने घरों को चले गए।

बाद में मैंने उस पेपर को देखा। उसके पहले पन्ने पर एक आदमी की फ़ोटो बनी थी। घोड़े पर बैठा हुआ कोई सैनिक जैसा आदमी। उस फ़ोटो के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था - युगोस्लाविया के महानायक मार्शल टीटो का अवसान...।
पिता जी और दत्ता अंकल मार्शल टीटो की मृत्यु को लेकर काफी बेचैन रहे थे। पिता जी कह रहे थे कि वे मार्शल टीटो को अच्छी तरह जानते है और वे उस पर एक लेख भी लिखने वाले हैं। बाद में वे देर तक अपनी मेज़ पर किताबों के साथ जूझते रहे, काग़ज़ों पर कुछ लिखते रहे। मुहल्ले में भी चर्चा थी। अगले दिन सुबह जब मैं पिता जी के लिए सादे पान के पत्ते ख़रीदने नुक्कड़ वाले पान की दुकान पर गया, तो देखा कि एक दो लोग मार्शल टीटो के बारे में बात कर रहे थे, वह मर गया...बड़ा ही महान आदमी था...वगैरह-वगैरह। इन सब बातों से मैं देर तक उलझा रहा। मुझे समझ में नही आ रहा था, कि मार्शल टीटो कौन है? उसके मरने की इतनी बातें क्यों हो रही है?

अगले दिन जब हम स्कूल जा रहे थे तब स्कूल वाले रिक्शे में मेरे स्कूल के दूसरे बच्चों के बीच मैंने यह बात छेड़ी। मैने संतोष से पूछा -
'नहीं तो मैं नहीं जानता कि मार्शल टीटो कौन है?
'तूने सुना है।'
'ऊँ हुंह...।'
'कल के पेपर में लिखा था। सामने वाले पेज पर लिखा था। लिखा था कि, मार्शल टीटो मर गया। पता है कल अपने स्कूल की छुट्टी भी इसीलिए हो गई थी। क्यों कि मार्शल टीटो मर गया था।
'पर मैं तो उसे नहीं जानता।'
'हमारी कॉलोनी में तो वह नही रहता है।'
'हाँ मैंने भी नहीं सुना। वो कहीं और रहता होगा।'
'क्या पता कौन है?'
'क्यों तुझे पता है क्या?'
'बता ना, तू जानता है क्या ?'
संतोष ने विभु से पूछा। विभु अपनी पानी की बोतल के पाइप को मुँह में ठूँसकर पानी पी रहा था और हम दोनों को टुकुर रहा था। उसने सेमल के झाड़ के नीचे संतोष से झगड़े के बाद, घर में अपनी दीदी से पूछा था कि मरने का क्या मतलब होता है? और यह भी कि क्या संतोष और मैं उससे सही कह रहे थे? उसकी दीदी ने उसे बताया कि हम दोनों सही कह रहे थे। मरने के बाद कोई वापस नहीं आता है। स्वामी जी भी अब वापस नहीं आएँगे। मरने के बाद सब ख़त्म...।
'नहीं। मैं नही जानता।'
उसने मुँह में भरा पानी गुटकते हुए कहा। स्कूल के दूसरे बच्चे जो रिक्शे में बैठे थे हमें देख रहे थे। हमारी बातें सुन रहे थे।
'मुझे पता है। मैं जानती हूँ।'

स्मृति ने अपना हाथ खड़ा करते हुए तपाक से कहा। जब उसे कुछ पता होता है, तो वह अपना हाथ खड़ा कर देती है। क्लास में भी ऐसा करती है और क्लास के बाहर भी।
'अच्छा बता, बता...।'
'तुझे पता है वो कहाँ रहता है।'
स्मृति ने हाँ की मुद्रा में अपना सिर हिलाया और फिर बताने लगी।
'मेरा भइया जिस स्कूल जाता है, वह उसी के पास रहता है। वह खूब मोटा-सा है। उसका नाम टीटो है। वह लंगड़ाता भी है। वो भइया के स्कूल में जब बच्चे टिफिन खाते हैं, तब वह उनकी देखभाल करता है।'
'हट वो नहीं हो सकता। मैंने पेपर में उसकी फोटू देखी है। वह मोटा नहीं है और ना ही लंगड़ा है। वह तो अच्छा सा आदमी है। घोड़े पर बैठता है।'
'हो सकता है, हमने कभी उसे देखा ही ना हो।'
'हाँ हो सकता है।'
'कितने तो लोग है। कई लोगों को तो अपन ने नहीं देखा।'
'मैं दीदी से पूछूँगा।'
'दीदी का चम्मच...।'
'ऊँ...। ये चिढ़ाता है।'

हम लोगों के बीच मार्शल टीटो को लेकर देर तक बात होती रही। पर अंत तक उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। फिर मैंने सोचा, होगा कोई मार्शल टीटो। क्या लेना देना। जाने दो। पर मन में एक खटका ज़रूर रहा। स्वामी जी के मरने की बात किसी ने नही की। पिता जी ने तो यह तक कहा, ठीक हुआ जो वह मर गया। अच्छा रहा जो मर गया। झंझट टली। किसी ने कुछ नहीं कहा। किसी को दुख नहीं हुआ। दत्ता अंकल भी पिता जी की हाँ में हाँ मिलाते रहे। कालोनी की गली, नुक्कड़ वाली पान की दुकान, गज्जू हलवाई की दुकान, स्कूल, दूधवाला, तलमले किराना स्टोर...कहीं भी किसी ने भी स्वामी जी के मरने की चर्चा नहीं की। इनमें से कइयों को तो पता ही नही था, कि स्वामी जी मर गए। कइयों को तो मैंने खुद स्वामी जी मरने के बारे में बताया था। जिन्हें बताया उन्होंने भी बस ज़रा-सा आश्चर्य प्रकट किया। इस विषय पर कोई बात नहीं की। मुझे लगता रहा कि वे कुछ कहेंगे। शायद किसी को अफ़सोस भी हो। शायद कोई दुखी हो। लोगों को स्वामी जी के मरने के बारे में बताने के बाद मैं उनके चेहरे देखता... शायद कोई उनके मरने को जानकर विचलित हो। उसके चेहरे पर कुछ अचानक उतर आए। पर ऐसा नहीं हुआ। किसी ने कोई अफ़सोस ज़ाहिर नही किया। कोई संवेदना नहीं दिखाई। जबकि मार्शल टीटो के मरने की खबर पूरे मुहल्ले में आग की तरह फैली। पिता जी उस पर लेख लिख रहे हैं। पान की दुकान पर मार्शल टीटो के मरने की चर्चा हो रही थी। पान की दुकान वाला उनकी बातें ध्यान से सुन रहा था। स्कूल टीचर शोक-सभा करवाते समय बड़ी उदास दिख रही थी। जब मैं रेड लेबल चाय का पैकेट ख़रीदने तलमले किराना स्टोर गया था, तब दुकान में बैठा एक आदमी जोर से रेडियो बजा रहा था। उस रेडियो पर खबर आ रही थी कि, मार्शल टीटो मर गया कि अब दुख के कारण रेडियो पर कोई गाना नहीं आएगा, कोई मनोरंजन नही होगा, रेडियो पर बस सारंगी बजती रहेगी...। हर जगह उसके मरने की चर्चा है। उसके मरने पर सब कितने दुखी हैं। पर स्वामी जी के मरने की किसी ने बात तक नहीं की। ऐसा क्यों? मेरे मन में यह बात खटकती रही। मैंने सोचा पिता जी से पूछूँगा।

फिर मैं पिता जी से पूछने का मौका तलाशने लगा। मुझे मौका मिल गया। वह शाम थी । पिता जी बगीचे में पानी दे रहे थे। मैं अपनी बात सीधी नहीं पूछ पा रहा था।
'पिता जी ये मार्शल टीटो कौन था?'
'बेटा जैसा हमारा देश है भारत, वैसे ही दुनिया में कई दूसरे देश भी हैं। उन्हीं में से एक देश है, योगोस्लाविया...। मार्शल टीटो वहाँ का नेता था। बड़ा महान लीडर था।'
'योगोस्लाविया क्या हमारे शहर से पास है?'
'नहीं तो... वह तो बहुत दूर है।'
'आपने मार्शल टीटो को देखा है।'
'नहीं बेटा...। वह बहुत दूर देश की बात है। वहाँ हम कभी नहीं गए। बस सुना है कि मार्शल टीटो है।'
'मतलब उसको किसी ने नहीं देखा। पूरी कॉलोनी में किसी ने भी नहीं।'
'हाँ शायद।'
'पर उसके मरने की तो बड़ी चर्चा है। हर कोई उसकी बात करता है। जब किसी ने उसे देखा ही नहीं, उससे मिले नहीं, उसे जानता नहीं........। तो ऐसे आदमी के मरने की क्या चर्चा करना। उससे क्या होगा ?'
'बेटा वह बड़ा आदमी था। महान आदमी था। इसलिए हर कोई उसकी चर्चा करता है।'
मैं थोड़ी देर चुप रहा। पिता जी ने पानी डालना बन्द कर दिया।वे मेरे पास आ गए और मुझे समझाने लगे।
'उसे किसी ने नहीं देखा। पर सुना है। वह वाकई बड़ा आदमी था।'
'तभी पेपर में उसके मरने का आया, रेडियो में आया।'
'हाँ । कुछ लोग महत्वपूर्ण होते है। उनके मरने की ख़बर अखबार में, रेडियो में हर जगह आती है, हर जगह शोक मनाया जाता है।'
'महत्वपूर्ण याने।'
'याने जो बड़े है। महान हैं।'
'पर स्वामी जी के मरने की बात किसी ने नहीं की। मतलब वो महत्वपूर्ण नही थे।'
'अरे वो तो बेकार आदमी था।'

पिता जी ने मुँह बनाते हुए बेकार कहा। उनका ऐसा कहना मुझे अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्वामी जी को मुँह बनाते हुए बेकार कहा। मुझे दुख हुआ। मैंने फिर पिता जी से बात नहीं की और बाहर खेलने चला गया।
अब मार्शल टीटो का तो पता चल गया था। पर एक दूसरा शब्द भीतर अटक गया था-महत्वपूर्ण। महत्वपूर्ण लोगों का मरना और उन लोगों का मरना जो महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण होना या महत्वपूर्ण नहीं होना। मार्शल टीटो महत्वपूर्ण की तरह मरा और स्वामी जी किसी ऐसे आदमी की तरह मरे जो महत्वपूर्ण नहीं हैं।
मैं सोचता रहा-हर किसी को मरना होता है। कभी ना कभी हर कोई मरता है। तो फिर मैं किस तरह मरूँगा? महत्वपूर्ण लोगों की तरह, या उन लोगों की तरह जो महत्वपूर्ण नहीं है? मार्शल टीटो की तरह या स्वामी जी की तरह?

मेरे मन में अजीब-सा ख़याल आया। मरने के बाद मैं वापस नहीं लौट पाऊँगा। कोई लौट ही नहीं सकता। कोई उपाय ही नहीं है। बस सब ख़त्म हो जाएगा। पर इस संसार में तब क्या हो रहा होगा? क्या लोग मेरे मरने की बात करेंगे? अगर किसी ने बात नहीं की तो...। अगर मैं मर जाऊँ और कोई मेरे मरने पर मेरे मरने की बात भी ना करे। लोग तो कुछ लोगों के मरने से खुश भी होते हैं।  जैसे स्वामी जी के मरने से पिता जी और दत्ता अंकल खुश हैं। क्या मेरे मरने से भी कोई खुश होगा? शायद माँ खुश हो जाएँ। माँ मुझे पूरा दिन डाँटती रहती हैं। कहती हैं, मैंने उनका जीना हराम कर रखा है। कहती हैं, मुझे घर से निकाल देंगी। क्या पता माँ को मेरा मरना अच्छा लगे। वे सोचें, चलो पिंड कटा।...शहर में, कालोनी में मेरे मरने की कोई बात भी ना हो। उल्टे लोग गालियाँ दें भला बुरा कहें...। जैसे स्वामी जी को कहते है।...ऐसा सोचते मेरा मन भारी हो गया।

मेरे मन में एक दबी इच्छा कुलबुला रही थी। एक दबी हुई इच्छा अपने पंख पसार चुकी थी, कि ठीक है पूरा शहर ना सही, ना सही पूरा मुहल्ला पर कम से कम कुछ लोग, थोड़े से लोग तो कहें कि तुषार मर गया, ...तुषार अच्छा था, उसको इतना जल्दी नहीं मरना था, ...काश वह कुछ दिन और जीता...। कोई ऐसा हो जो मेरे मरने के बाद भी मेरी बाट जोहे, जैसे मैं आज भी घर की छत पर चढ़कर कम्यून की तरफ़ देखता हूँ, ...एक अनिश्चित से विश्वास के साथ कि शायद स्वामी जी दिख जाएँ, ...जैसे वे दिख सकते हैं...उनके मरने के बाद भी मैं एक भ्रम पाले हूँ कि वे आएँगे और मरने के बारे में जो कुछ मैंने जाना है, जो कुछ सुना है और जो माना है वह एक क्षण को गलत हो जाए। कम्यून का ताला खुला हो और किसी रात जब मैं सो रहा होऊँगा स्वामी जी आ चुके हों। फिर मैं विभु से कहूँगा कि तुम सही थे- भला कोई ऐसे भी जा सकता है कि कभी लौटे ही नहीं? नहीं कोई नहीं...सबको आना ही होता है जाने के बाद।...कोई ऐसा हो जो इसी तरह मेरे लिए भी मेरे मरने के बाद करे। ठीक है पेपर में न आए, रेडियो पर ना आए... पर कुछ लोग तो ऐसे होने ही चाहिए जो मेरे मरने पर मेरी बात करें। ठीक है स्कूल की छुट्टी ना हो। कुछ नहीं होता। पर कुछ लोगों को तो मेरे मरने का बुरा लगना ही चाहिए। ठीक है नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर बात ना हो पर कोई तो हो जो मेरे मरने से दुखी हो जाय। कुछ लोगों को मेरे मरने पर अवश्य दुखी होना चाहिए। पर अगर ऐसा नहीं हुआ तो...। अगर कोई भी मेरे मरने पर शोक ना करे...तब। ऐसा ख़याल आते ही मेरे भीतर कुछ तेज़ी से धड़कने लगता। एक अजीब-सी परेशानी मुझे घेर लेती। मुझे लगता जैसे मैं बहुत अकेला हूँ। मैं कुछ डर भी गया।

मुझे लगा मैं पिता जी से पूछ सकता हूँ। क्या पता मैं सही हूँ? क्या पता मैं ग़लत हूँ? पर अगर मैं सही हुआ तो...। यह सोचकर मैं फिर उदास हो जाता। उस दिन मैं देर तक छज्जे की तरफ़ जाने वाली सीढ़ियों पर बैठा रहा। आँगन में बाल्टी से टंकी में पानी उँड़ेलती माँ को देखता रहा। माँ ने एक दो बार मेरी तरफ़ देखा मुझसे पूछा-क्या बात है? पर मैं गर्दन हिलाकर, कुछ नहीं कहकर चुपचाप बैठा रहा। फिर उन्होंने मुझसे कहा, मैं कितना अच्छा लग रहा हूँ... इस तरह चुपचाप बैठा हुआ। मुझे इसी तरह चुपचाप बैठना चाहिए। हमेशा इसी तरह...।
मुझे पिता जी से पूछना था।

उस दिन तेज़ गर्मी थी। हम घर के आँगन में सो रहे थे। मैं पिता जी के पास लेटा था। लाइट गोल हो गई थी। पिता जी हाथ वाला पंखा घुमा रहे थे। ऊपर तारों भरा काला आकाश था जो मच्छरदानी से छनकर मेरी आँखों में ठंडक घोल रहा था।
मैंने पिता जी से पूछा-
'पिता जी क्या मैं भी महत्वपूर्ण हूँ...?'
पिता जी से शाम को बात करने के बाद यह प्रश्न मुझे परेशान कर रहा था। मार्शल टीटो महत्वपूर्ण है, स्वामी जी महत्वपूर्ण नहीं... महत्वपूर्ण याने बड़े लोग, महान लोग...। फिर मुझे लगा मैं भी तो बड़ा नहीं हूँ। मैं महान भी नहीं हूँ। तो क्या अगर मैं मर गया तो स्वामी जी की तरह मरूँगा? जिनके मरने की लोगों ने बात तक नहीं की। क्या मेरे मरने की भी बात नहीं होगी? 'क्यों?'

शायद पिता जी शाम वाली बात भूल गए थे। 'आपने बताया था ना कि मार्शल टीटो महत्वपूर्ण था, स्वामी जी नहीं। महत्वपूर्ण लोगों के मरने की चर्चा होती है पर जो लोग महत्वपूर्ण नहीं होते हैं उनकी बात नहीं होती है। मैं भी तो छोटा हूँ और महत्वपूर्ण भी नहीं....। अगर मैं मर गया तो लोग मेरे मरने की बात नहीं करेंगे हैं ना....। जैसे स्वामी जी के मरने की बात किसी ने नहीं की। मैं महत्वपूर्ण जो नहीं हूँ।' 'छि: कैसी बेहूदा बात करता है। ऐसी ऊटपटाँग बात तुझे सूझती कैसे है?' माँ ने मुझे डपटते हुए कहा।
'तुम्हीं इसे सिखाते हो यह सब...।'
माँ पिता जी पर भी झल्ला गईं।
पिता जी ने कुछ नहीं कहा। उन्होंने दूसरी तरफ़ करवट बदल ली।

थोड़ी देर बाद उन्होंने मेरी ओर करवट बदली। उन्होंने मुझे अपने पास खींच लिया। मेरा सिर उनकी बाहों पर था। उनके सफ़ेद कुर्ते की बाँह का कोना मेरी आँखों के सामने था। कुर्ते के उस कोने ने तारों भरे काले आकाश को मेरे लिए आधा ढँक दिया था। ऊपर सिर्फ़ तारों वाला काला आकाश नहीं था। आधे हिस्से में पापा का सफ़ेद कुर्ता था और आधे हिस्से में काला आकाश। बस ज़रा-सी एक करवट की बात थी। पिता जी का सफ़ेद कुर्ते का वह छोटा-सा कोना पूरे काले आकाश को ढँक सकता था। पिता जी ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया था।

मुझे उखड़ती-सी नींद आ रही थी। जब मैं आँख खोलता पिता जी का चेहरा दीखता। फिर उनका धीमा-सा स्वर सुनाई पड़ता- 'सो जाओ'। वे कुछ देर तक मुझे थपकी देते। मेरा सिर सहलाते। मेरे बालों में उनकी उँगलियाँ थीं। थोड़ी देर में मुझे नींद आ गई।
पिता जी ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया था।

नींद में मुझे लगा जैसे स्वामी जी वापस आ गए हैं। वे मेरे घर के बाहर खड़े हैं। घर में कोई नहीं है और मैं उन्हें घर के भीतर ले आया हूँ। फिर उन्होंने मुझे पकड़कर ऊपर उठा लिया है।...और फिर उन्होंने धीरे से मेरा माथा चूम लिया।...अचानक मेरी नींद टूट गई। मैं उनींदा-सा जाग गया। मुझे अपने माथे पर चुंबन का नम-सा अहसास हुआ। मुझे किसी की ठुड्डी और गर्दन दिखाई दी। पर वे स्वामी जी नहीं थे। वे पिता जी थे। पिता जी अभी तक सोये नहीं थे। मेरे बालों में अब तक उनकी उँगलियाँ फँसी थीं।

मैं फिर से पूछना चाहता था। पिता जी ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया था।
मेरे माथे पर एक नम अहसास ठहर गया। ठीक उसी जगह जहाँ उस दिन स्वामी जी ने चूमा था। क्षण भर को मैं उलझ गया था- स्वामीजी या पिता जी।
पिता जी ने मेरी बात का जवाब दिया था।
उन्होंने मेरी बात का जवाब दिया था। पर उस रात मैं पिता जी को सुन नहीं पाया था। दिनों दिन पिता जी का वह जवाब मेरे सामने ज़्यादा खुलकर आता रहा...।

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१ सितंबर २००८

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