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माँ अब लौट रही है। उसे रेंगते हुए कीड़े का अहसास होता है... कीड़े उसे हमेशा से बुरे लगते रहे हैं और वह उन्हें पैरों से चीप दिया करता है, मगर वह आँखें फेर लेता है। वह जानता है, माँ बहुत मुश्किल से खाट पर चढ़ेंगी, फिर सांस फूलेगी और वह थोड़ा सहलाएगा। लेकिन तसल्ली और दवा दो चीज़ें हैं।

वह पहले, दूसरे भाई के साथ रहता था। मगर जब बड़े भैया ने, माँ से शायद तसल्ली के तौर पर ही कहा... ''हमारा घर बड़ा है। आ जाइए, आराम रहेगा।'' तब वह माँ के साथ आ गया बड़े भैया के यहाँ। घर में एक हंगामा बरपा हो गया। भाभी ने भैया को डाँटा, ''यह मुसीबत मेरे ही गले बाँधनी थी?''
''मैं क्या जानता था कि सचमुच आ जाएँगी।'' - दबी आवाज़ में भैया बोले। और फिर, बाथरूम के पासवाला गोदाम खाली कर दे दिया गया। एक खाट लगा दी गई और माँ बिना उफ किए उस पर चुपचाप जाकर लेट गई। लेकिन जब बच्चे बाथरूम जाते तो दरवाज़े की आवाज़... माँ कहतीं, ''बेटा, छाती पर धक्का-सा लगता है। बच्चों से कहो, दरवाज़ा आहिस्ता बंद करें।''

उसे फिर धक्का-सा लगा, ऐसे नाम से फ़ायदा? मगर वह इस चोट को भुलाता है, मुट्ठी खोलकर, जुगनू देखता है, ''अब हम लेक्चरर हो गए हैं और इस बीच तुम भी बहुत बड़े लेखक हो गए हो, हमें भूल तो नहीं गए? तुम्हें देखने को बहुत मन करता है। कभी किसी बड़े लेखक से नहीं मिली।''
और वह सचमुच भूल गया था। याद आते ही, तौलिया भिगोकर वह जल्दी से माँ का जिस्म पोंछने लगता है।
माँ कहती हैं, ''बेटा कोई नहलाता भी नहीं है। गरमी से बदन चिपचिपा हो जाता है। अपने ही शरीर से घिन लगती है।''

शरीर को सूख कपड़े से पोंछ कर, पाउडर लगाते-लगाते उसका हाथ रुक जाता है और वह सोचता है, बेटा न होकर, अगर वह बेटी होता तो माँ की सेवा ठीक तरह से करता... और इस बार उसे फिर उस जुगनू का बहुत-बहुत ख़याल आता है। माँ अपने काँपते हाथ पर पाउडर लेकर खुद ही किसी तरह भीतर लगाती है, ''तू कब तक मेरी सेवा करेगा? नौकरी-धंधे से भी नहीं लगा... मेरे बाद तेरा क्या होगा बेटे... मरने से पहले तुझे बहू के ज़िम्मे लगा जाती तो आराम से...।''
और उसने मुट्ठी में बंद जुगनू को लिखा था, ''माँ मौत के दरवाज़े पर हैं। मरने से पूर्व बहू को देखना चाहती हैं। मगर जिस गरीब लेखक के पास रोटी भी नहीं, वह बहू कहाँ से लाए?''

और ऐसा हुआ कि उत्तर में वह खुद आ गई। उसे लगा, उसकी मुट्ठी में आज सचमुच जुगनू है, अंधेरे पर उजाले की नक्काशी... माँ की भीतर तक धँसी आँखों में चमक पैदा हो गई।
जुगनू ने उसके साथ तसवीर उतरवाई, ''किसी लेखक के साथ तसवीर उतरवाने का यह मेरा पहला मौका है, हम इसे फ्रेम कर टाँगेंगे।''
वह हँसता है, ''जैसे ईसा मसीह को सलीब पर!''
वह हँसती है और उसकी हँसी की तरह दिन गुज़र जाते हैं। जाते वक्त माँ पूछती हैं, ''फिर कब आ रही हो बेटी?''
वह सिरहाने बैठ जाती है, ''माँ, इधर किसी कॉलेज में जगह खाली होने पर इनसे लिखवा भेजिएगा... हम आ जाएँगे। फिर आपको अपने ही पास रखेंगे।'' ... कमरे में जैसे ढेर सारे जुगनुओं की लालटेन जगमगाने लगीं।

वह चुपचाप सब सुनता रहा। मरने के पहले, जो एक ख़ास तरह की चमक आँखों में पैदा होती है, वही चमक उसने माँ की आँखों में देखी थी, उस दिन। मगर वह अब भी चुप है। उसके हाथ में रंग उड़ा एल्युमीनियम का गिलास हे।
माँ पूछती हैं, ''बहू की चिट्ठी आई?''
''अब उसी के लिए सांसे रुकी हैं। मरने से पहले, दो दिन भी आराम से तेरे घर में कट जाएँ तो... बेटा, चावल बहुत कड़े हैं।''
वह गिलास का पानी प्लेट में उंडेल देता है। वह जानता है, गिलास का पानी अब कभी खतम नहीं होगा और वह इसी तरह चावल को मुलायम करता रहेगा, माँ इसी तरह लाचार होकर सुरकती रहेंगी... और फिर, अपना चेहरा छिपाने की गरज से एक तरफ़ कर लेता है वह।

दीवार पर टँगे शीशे में उसे अपनी गीली आँखें दिखती हैं। उसे लगता है, वह इसलिए रो रहा है, कि कुछ दिनों पहले लड़की ने लिखा था... मैं एक आई.ए,एस. अफ़सर की पत्नी बनकर भोपाल आ गई हूँ। हड़बड़ी में कार्ड नहीं भेज सकी। हाँ, तुम्हारे साथ जो फ़ोटोग्राफ़ खिंचवाया था, उसे हमने अपने ड्राइंग रूम में बड़ा कर लगवाया है। मेरे पति भी गर्व के साथ तुम्हारा फोटो सबको दिखाते हैं, ''ही इज ए जीनियस राइटर... मेरी वाइफ़ इनकी फैन है... मिल भी चुकी है... बहुत नाम है इनका।'' ... उसे लगता है, माँ की प्रतीक्षा, भाभी का ताना कसना, नौकरानी का कड़े चावल बनाना, भैया का फर्ज़ से भागना... जैसे अनेक तीखी कीलवाले लट्टू एक साथ उसकी हथेली पर नाच रहे हों... सूराख.. सूराख... सूराख... मुट्ठी खुली नहीं... फिर भी, इन्हीं सूराखों में से किसी एक से, उसकी मुट्ठी का जुगनू उड़ गया है, सिर्फ़ एक सवाल पूछकर, ''ऐसे नाम से फायदा?''

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१५ सितंबर २००८

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