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"नहीं, नहीं,'' उन्होंने मेरी बात को बीच में काटते हुए कहा, "ड्यूटी के दौरान इस तरह की मृत्यु पर ऐसा प्रावधान है। आपसे इतना ही कहना था कि आप यह काम जल्दी निपटा दें ताकि दोपहर बाद चैक तैयार हो जाए।"
"ठीक है, मैं अभी यह काम करवा देता हूँ।" मैं उठकर केबिन के बाहर आ गया। जल्दी-जल्दी मैंने साहब के निर्देशानुसार पत्र तैयार करवाए और फिर हस्ताक्षर हेतु उनके पास भेज दिए।

यह एक निजी और बड़ी कंपनी है। लगभग आठ सौ कर्मचारियों और मज़दूरों की इस कंपनी में मैं कार्मिक विभाग में काम करता हूँ। मिस्टर श्रेष्ठ इस कंपनी के क्रय-अधिकारी थे और मुख्य महाप्रबंधक के रिश्तेदार भी। परसों मंगलवार को वह कोई बड़ी मशीन क्रय करने गए थे। वापस लौटते समय उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया था और उनके ड्राइवर शेरसिंह की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई थी। मिस्टर श्रेष्ठ का भी दो घंटे बाद अस्पताल के आपातकालीन वार्ड में देहांत हो गया था।

कल दोनों की अंत्येष्टि की गई और कंपनी का काम-काज नहीं हुआ था। आज भी कंपनी में माहौल गमगीन ही था, परंतु फिर भी काम तो रोका नहीं जा सकता था। मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि मिस्टर श्रेष्ठ का वेतन प्रतिमाह लगभग दस हज़ार रुपए रहा था। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो लड़के और एक लड़की हैं। दोनों लड़के डाक्टर बन गए हैं और लड़की अभी छोटी है। भरा-पूरा घर है, किसी भी प्रकार के सुख-साधन की कमी नहीं। मिस्टर श्रेष्ठ की आयु भी पचपन वर्ष के लगभग थी अर्थात सेवानिवृत्ति में तीन वर्ष बाकी थे।

लेकिन उनके ड्राइवर शेरसिंह को तो कंपनी में अभी दस वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे और उसकी तनख़्वाह मात्र दो हज़ार रुपए से कुछ ही ज़्यादा थी। उसके भी तीन बच्चे थे और सब के सब दस वर्ष से नीचे की उम्र के। फिर शेरसिंह स्वयं भी अभी तीस का नहीं हुआ था। भविष्य बुनने की उसकी यही तो उम्र थी।

आज सुबह ही शेरसिंह का छोटा भाई मेरे घर आया था। मेरे मकान से तीन मकान छोड़कर चौथे मकान की दूसरी मंज़िल पर शेरसिंह किराए पर रहता था और पाँच सौ रुपए तो वह उस डेढ़ कमरे और एक रसोई का किराया देता था। साथ में यह छोटा भाई भी उसके पास था जो ग्रेजुएट मगर बेरोज़गार था। ट्यूशन पढ़ाकर छ:-सात सौ रुपए प्रति माह कमा लेता था। इस तरह से परिवार को आर्थिक मदद तो मिल ही जाती थी और उसका वक्त भी गुज़र जाता था। शेरसिंह की तरह उसका छोटा भाई रामसिंह भी बेहद शरीफ़ और समझदार था। आज जब सुबह वह आया था तो उसका चेहरा उतरा हुआ था और यों लग रहा था कि वह कल पूरी रात सो नहीं पाया था। उसके थरथराते होंठ और उसकी आँखों में झाँकता खालीपन किसी भी इंसान को द्रवित करने के लिए काफी था।

उसने बताया था कि अभी सुबह-सुबह दोनों ब्याही बहनें अपने परिवार के साथ आ पहुँची हैं। दोपहर का खाना खिलाने को घर में अनाज का एक दाना भी नहीं है। मैंने चुपचाप नज़दीक बैठी अपनी पत्नी को इशारा किया। वह रसोई में गई और फ्रिज में से ब्रेड का एक पैकेट, कच्ची सब्ज़ी आदि एक थैले में डाल लाई। मैंने रामसिंह को वह थैला और जेब में हाथ डालने पर बाहर आए रुपए उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा, "देखो, शर्म नहीं करना। अभी ये रुपए जितने भी हैं, रख लो, शाम का खाना यहाँ से बन जाएगा। मैं देखता हूँ और क्या हो सकता है?"

पता नहीं, उसको क्या सूझा? मेरे और मेरी पत्नी दोनों के पैर छूकर, हाथ जोड़कर अपनी अश्रुपूरित आँखों को पोंछता हुआ झोला हाथ में लेकर वह दरवाज़े के बाहर हो गया। मैं बहुत देर तक दरवाज़े पर हिल रहे पर्दे को देखता रहा था।

"हैलो अवस्थी," किसी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। आँखें उठाकर देखा, मेहता खड़ा था।
"अरे मेहता, आओ बैठो। मना आए छुट्टी? कैसा रहा तुम्हारा टूर? नैनीताल की झीलों का पानी सूख तो नहीं गया?" मैंने उससे पूछा।
"कहाँ यार, छुट्टी का सारा मज़ा किरकिरा हो गया। लाडले को वहाँ पहुँचते ही ठंड लग गई। इलाज करवाया, घूमना फिरना ज़्यादा हुआ ही नहीं पर..." उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि इस बीच मैंने इंटरकॉम पर कैंटीन ब्वॉय से चाय लाने को कह दिया।

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