मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


श्रीमती सेन का घर आ गया था। जूली रुकी। समीर ने मुड़ते हुए उससे कहा, ''देखिए आप घर जाइए, अंधेरा होने के बाद अकेले घर से बाहर न जाया करिए।''
''धन्यवाद, मिस्टर चंद्र। एक बात और बताइए, आप कहाँ रहते हैं?''
''यहाँ से तीन घर बाद, १४ नंबर में।''

उस रात जूली देर तक जागती रही, सोचती रही। भारत कितना सुंदर और असुंदर है। सभ्यता और असभ्यता दोनों ही साथ-साथ। गई रात नींद न आई। सुबह श्रीमती सेन के उठने की आहट पाकर वह उनके कमरे में गई और उस शाम की आप बीती कह सुनाई। ऊपर से चुप दीखनेवाली श्रीमती सेन ध्यान से जूली की बातें सुनकर गंभीर हो गई। जूली पूछे जा रही थी, ''क्या करूँ, कैसे रहूँ, कोई भी उपाय नहीं है क्या?'' श्रीमती सेन आखिर बोलीं, ''भारत में स्त्री के सुरक्षित रहने का एक ही उपाय है- विवाह। विवाह करके पति उसकी रक्षा करता है।'' विवाह, विवाह, विवाह, जूली अपने कमरे में चली गई, पर किससे? जूली मुस्कराई, यह प्रयोग भी वह करेगी।

अगले दिन सुबह ही वह १४ नंबर के बंगले पर गई और दरवाज़ा खटखटाया। समीर ने दरवाज़ा खोला। जूली ने समीर का हाथ पकड़ लिया, ''समीर! तुमने मुझे बचाया, हम तुमसे शादी करेगी।''
''मुझसे?'' समीर हड़बड़ाया, ''पर क्यों?''
''नहीं। हम करेगी शादी।''

समीर अनाथ था और अकेला ही रहता था। नई-नई नौकरी थी। उसने हामी भर दी। जूली केंद्र नहीं गईं। उसी शाम समीर जूली को लेकर आर्य समाज मंदिर गया और जूली ने समीर से विवाह कर लिया।

जूली मन-ही-मन बेहद प्रसन्न थी। समीर भी अपने भाग्य पर आश्चर्य कर रहा था। स्वयं ही कठिनाइयों में पढ़-पढ़ाकर क्लर्की करते हुए उसे क्या कभी कोई गौरवर्णी कोई भारतीय लड़की भी मिलती? और अब बडों-बड़ों को सौंदर्य में मात देनेवाली जूली उसकी जीवन संगिनी बन गई। वह जूली को गुलाब के फूल की तरह संजोकर रखेगा। पर मन में हुई प्रतिक्रिया बस प्रतिक्रिया ही बनगर रह गई क्यों कि वह स्वयं असुंदर था। ज़रूरत से ज़्यादा ऊँची नाक और दुबला शरीर और उससे भी अधिक था वह भारतीय पुरुष, पुरुषत्व का अनोखा लिबास पहने।

जूली समीर को लेकर श्रीनगर घूमने गई। वहाँ जूली और समीर को हर आदमी ऐसे घूर-घूर कर देखता कि समीर का मन खट्टा हो जाता। मिठास कसैलेपन में बदलने लगी। इधर जूली मन व शरीर से ऊँचे डग भरती, उधर समीर चोट खाए घायल हिरन-सा मन-ही-मन कुढ़ता और गिरता। उसका भारतीय मन, पुरुषत्व की तेज आँच में भड़क उठा। सात दिन का हनीमून तीन दिन में समाप्त कर वह जूली को दिल्ली ले आया।

समीर, मशीन की तरह काम करनेवाला क्लर्क ही था। जूली उसकी पत्नी थी। उसका उस पर पूरा अधिकार था। समीर ने पूर्वी सभ्यता के पिंजड़े में, पश्चिम में स्वतंत्र पली जूली को कैद कर रखा था। जूली समीर को स्नेह देती, उसने दाल रोटी-सब्ज़ी और प्याज़ के मसाले की करी सभी-कुछ बनाना सीख लिया था। भारतीय नारी की तरह वह सुबह समीर से भी पहले उठकर चाय बना देती फिर नृत्य की साधना करती। अजीब मशीन की तरह जीवन बन गया। उसे लगा कि वह थक गई थी। एक वर्ष, आठ महीने, एक लंबा अरसा। उसका मन घुटने लगा और एक दिन उसने समीर से कह ही डाला, ''समीर, मैं अमरीका जाऊँगी।''
''कहाँ?'' समीर सकपकाया।
''अपने देश। यहाँ मेरा दम घुटता है। यहाँ मैं ऊब गई हूँ।''
''पर, पर मैं यहाँ अकेले कैसे रहूँगा?'' समीर की जबान लड़खड़ा गई।
''मैं यहाँ नहीं रहूँगी, समीर।'' जूली ने सख्ती से कहा।

अचानक ही समीर को जैसे किसी ने आकाश से स्थल में ला पटका। वह ऑफ़िस नहीं गया। रात में फफक-फफककर रोया भी।
''मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। मैंने तो तुम्हीं को प्यार किया है। तुमसे मैंने शादी की है, जूली।'' समीर ने हर तरह से जूली को बहलाया-फुसलाया, प्रेम जताया। पर जूली दृढ़ निश्चय कर चुकी थी। पुरुष के इस रूप से जूली बिलकुल अनभिज्ञ थी। समीर की विलखन ने जूली को और डुबा दिया। वह उठकर खड़ी हो गई।
''तुम हिंदुस्तानी आदमी।''

समीर रातभर करवट बदलता जागता रहा। जूली खिड़की की सलाख पकड़े खड़ी रही। उसका मन कोसों दूर अमरीका की खुली हवा में अठखेलियाँ कर रहा था। रात खड़े-ही-खड़े कट गई। सुबह-सुबह जूली ने केंद्र में मानसी दीदी के चरण छूकर उन्हें अपना निश्चय कह सुनाया।

केंद्र में कानाफूसी हुई और १५ दिन बाद ही जूली अपना सूटकेस समेटकर स्कर्ट पहन पालम हवाई अड्डे गई। केंद्र का कोई भी अध्यापक और साथी उसको पहुँचाने न गया। उसे पहुँचाने आया तो केवल समीर।
जूली के मन में समीर का स्थान केवल एक परिचित के रूप में ही रह गया ही था। पर समीर के लिए जूली, पत्नी थी। वह बार-बार जूली से कहता, ''अकेले जा रही हो। वहाँ पहुँचते ही तार देना।'' आदि-आदि। जूली सुनी-अनसुनी कर रही थी। अमरीका का खुला स्वतंत्र जीवन उसे बुला रहा था। जूली ने जाते समय समीर से हाथ मिलाया, और समीर के माथे पर शांत चुंबन देकर अंदर चली गई। समीर लुटा-लुटा-सा देखता रह गया। वह जाने कितनी देर हवाई अड्डे पर खड़ा रहा। जहाज़ कब का जा चुका था।

समीर के पास जूली का न कोई पत्र आया, न कोई समाचार। जूली सपना-सी हो गई थी समीर के लिए। वही नीरस जीवन, जूली से मिलने के पहले वाला। चार महीने बीत गए। एक दिन ऑफिस से लौटते समय आप-ही-आप पैर केंद्र की तरफ़ मुड गए और समीर मानसी दीदी के पास जा पहुँचा।
''अरे समीर मैं तो आज ही तुमको याद कर रही थी। जूली का पत्र आया है।''
''जूली का पत्र?'' समीर को विश्वास न हुआ।

मानसी दीदी ने समीर को पत्र पकड़ा दिया। समीर ने काँपते हाथों से पत्र खोला।
''दीदी...''
आपको यह पत्र पाकर आश्चर्य होगा। चार महीने में यह पहला पत्र है। इन चार महीनों में, मैं बराबर अपने आपसे लड़ रही थी और लगा कि मैं जो ढूँढ़ रही थी वह मुझे भारत ही में मिला था। एक पति का प्यार, उनकी तरह तो यहाँ कोई भी नहीं लगा। समीर मेरे पति हैं, उनके बिना जीवन अधूरा-सा है। वह मुझे शाम को रोज़ लेने आते थे क्यों कि वह मेरे पति थे। मैं भी तो उनकी पत्नी हूँ, हम दोनों ने घर बनाया था, उनके बंधन में अधिकार था, स्नेह था। वह मेरे थे, मैं अच्छी-बुरी सब तरह से उन्हीं की थी। समीर और उनका अधिकार और केंद्रवालों का स्नेह व कंसर्न, एक-दूसरे के बारे में। भारत की हवा में नमी है, यहाँ की हवा सूखी है। मैं यहाँ चार दिन से अपने अपार्टमेंट में बीमार हूँ। यदि वहाँ केंद्र न आती तो मानसी दीदी आप भी मुझे देखने आ जातीं। चार महीने की लंबी अवधि के नितांत अकेलेपन के बाद आज मैं इस निर्णय पर पहुँची हूँ कि मैं शेष जीवन समीर के पास भारत में ही बिताऊँगी। मुझे मालूम है समीर वहाँ आते होंगे। आप उनको बता दें। मैं उनकी पत्नी हूँ वह मुझे माफ़ कर देंगे। आप उनसे कह दें मेरी तरफ़ से। उनको लिखने का साहस न जुटा सकी। उनका केबिल पाने पर ही वहाँ आऊँगी।--- आपकी जूली।

पत्र पढ़कर समीर की आँखें डबडबा आई थीं। मानसी दीदी ने समीर का हाथ पकड़ा, ''मेरा क्लास ख़त्म हो गया समीर, चलो जूली को अभी केबिल देकर आते हैं।''
समीर चुपचाप मानसी दीदी के साथ चल दिया।
''तत् थई, तत् थई, तत् थई।''

समीर को घुँघरुओं की मधुर ध्वनि दूर से सुनाई दे रही थी।

पृष्ठ : . . .

२ फरवरी २००९

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।