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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
दीपक शर्मा की कहानी— 'माँ का दमा'


पापा के घर लौटते ही ताई उन्हें आ घेरती हैं, ''इधर कपड़े वाले कारखाने में एक ज़नाना नौकरी निकली है। सुबह की शिफ़्ट में। सात से दोपहर तीन बजे तक। पगार, तीन हज़ार रुपया। कार्तिकी मज़े से इसे पकड़ सकती है...''
''वह घोंघी?'' पापा हैरानी जतलाते हैं।
माँ को पापा 'घोंघी' कहते हैं, ''घोंघी चौबीसों घंटे अपनी घूँ घूँ चलाए रखती है दम पर दम।'' पापा का कहना सही भी है।

एक तो माँ दमे की मरीज़ हैं, तिस पर मुहल्ले भर के कपड़ों की सिलाई का काम पकड़ी हैं। परिणाम, उनकी सिलाई का मशीन की घरघराहट और उनकी साँस की हाँफ दिन भर चला करती है। बल्कि हाँफ तो रात में भी उन पर सवार हो लेती है और कई बार तो वह इतनी उग्र हो जाती है कि मुझे खटका होता है, अटकी हुई उनकी साँस अब लौटने वाली नहीं।
''और कौन?'' ताई हँस पड़ती हैं, ''मुझे फ़ुर्सत है?''
पुरा घर, ताई के ज़िम्मे है। सत्रह वर्ष से। जब वे इधर बहू बनकर आई रहीं। मेरे दादा की ज़िद पर। तेइस वर्षीय मेरे ताऊ उस समय पत्नी से अधिक नौकरी पाने के इच्छुक रहे किंतु उधर हाल ही में हुई मेरी दादी की मृत्यु के कारण अपनी अकेली दुर्बल बुद्धि पंद्रह वर्षीया बेटी का कष्ट मेरे दादा की बर्दाश्त के बाहर रहा।

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