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ईश्वर में नानी की गहरी आस्था थी। पानीपत वाले मकान के हॉल में नानी ने एक बड़ी अलमारी को मंदिर का रूप दे रखा था। अलमारी के सामने एक चौकार तख़्त रखा रहता था जिस पर एक मृगछाल थी। यह नानी का आसन था। मोहल्ले की औरतें अक्सर दोपहर को इकट्ठी होकर आती थीं और नानी के चरण छूकर उनके इर्द-गर्द फ़र्श पर बैठ जाती थीं। फिर शुरू होता था नानी के भजनों का दौर। नानी अपने भजन खुद ही बनाती थीं और पुराने भजन भूलकर रोज़ नए भजन रचती थीं। सब भजन भगवान कृष्ण की महिमा में होते थे। कृष्ण नानी के आराध्य कम और दोस्त ज़्यादा थे। नानी के असली आराध्य थे हनुमन जी जिन्हें वह महावीर जी कहती थीं। उनकी गदा का चिह्न हमेशा धारण किए रहती थीं। हालाँकि उत्तर भारत में महिलाएँ हनुमान जी के मंदिर नहीं जातीं लेकिन नानी ने खुद को ही हनुमान घोषित कर दिया था। उनके श्रद्धालु उन्हें 'महावीर जी' कहकर ही संबोधित करते थे। हम भी शुरू से ही उन्हें बजाय नानी या कुछ और कहने के 'महावीर जी' ही कहते थे। यही उनका नाम बन गया था। उनके डील-डौल और ताक़त को देखकर लोग उन्हें सहज ही हनुमान जी का अवतार मान लेते थे।

नानी का अपना अध्यात्म था और किसी धर्मगुरु की तरह ही उनके पास पानीपत में श्रद्धालुओं की छोटी-मोटी फौज थी। ये लोग समय-समय पर नानी के मंदिर में मत्था टेकने, अपनी समस्याओं का निदान पूछने, सपनों का हाल जानने और आशीर्वाद लेने आया करते थे। मोहल्ले में जितनी भी शादियाँ होती थीं, सब नवदंपत्ति नानी के मंदिर में आशीर्वाद लेने आते थे और चाँदी के 'कलीरे' चढ़ाकर जाया करते थे। नानी के बारे में यह भी मान्यता थी कि नानी जिन नव वधुओं को पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती थीं उनको बेटे ही पैदा होते थे- लेकिन यह बात अलग है कि बावजूद तमाम आशीर्वादों के नानी की अपनी बहू तीन बेटियों की माँ बनी। नानी की अपनी किस्मत में पोतियाँ ही लिखी थीं, पोता नहीं।

उनका नाम था राजारानी और ज़िंदगी भर उन्होंने अपने को किसी रानी से कम नहीं माना। मुसीबतों के वक़्त भी मर्ज़ी उन्हीं की चलती थी- नतीजे चाहे जो भी हों। बुढ़ापे में कमज़ोरी के बावजूद उन्हें कभी गवारा नहीं हुआ कि वो अपने बेटे के घर जाकर रहें। दरअसल उन्हें आदत थी घर को अपने राजपाट जैसे चलाने की। किसी और के घर में तो उनका राज चलता नहीं। यही सोचकर वह कभी हमारे मामा के घर जाकर नहीं रहीं। बावजूद इसके कि मामा उन्हें बार-बार बुलाते रहे। एक बार गई थीं तो हफ्ते भर में लौट भी आईं। मामा के घर जाकर न रहने की शायद एक वजह और भी थी। नानी को घर में हमेशा 'फुल अटेंशन' चाहिए होता था। अपने घर में तो नाना का पूरा ध्यान वह अपने पर केंद्रित कराके रखती थीं। हद तो ये थी कि वे नाना को न तो टी.वी. देखने देती थीं, न अखबार या किताब पढ़ने देती थीं। अपनी बेटियों से वह अक्सर शिकायत करती थीं कि तुम्हारे पिता तो टी.वी. में या किताबों में औरतों की तस्वीरे देखते रहते हैं। नाना को नफीस शौक था उर्दू शायरी का। वह नानी ने टोक-टोक कर बहुत पहले ही छुड़ा दिया था। इस तरह नाना पर उनका पूरा राज चलता था। नाना की क्या मजाल कि वह नानी की आज्ञा के बगैर घऱ के बाहर कदम भी रख लें। दरअसल नानी जब से बीमार थीं तब से उन्हें लगता था कि उनके इर्द-गिर्द किसी न किसी का होना ज़रूरी है।

नानी का अपना एक सौंदर्य-बोध भी था। खुद को वे बहुत सुंदर मानती थीं और बीमारी के दिनों में भी खूब सजधज के रहती थीं। उठने से लाचार थीं इसलिए एक आईना उनके बगल में ही पड़ा रहता था। नानी का रंग गोरा था और नाक बहुत लंबी। उन्हें अपनी लंबी तोतापरी नाक का बहुत गुमान था। छोटी नाक वाले लोग उन्हें पसंद नहीं आते थे। खानदान में जितने बच्चे पैदा होते उन सबको जब नानी से मिलवाने लाया जाता तो नानी सबसे पहले नाक टटोल कर देखती थीं और नाक लंबी पाने पर बहुत खुश होती थीं।

नानी जो कुछ भी थीं पूरी शिद्दत से थीं। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। हमेशा लड़ाई लड़ीं- उसमें जीतीं या हारीं, यह अलग बात है।
मौत से भी उनकी लंबी लड़ाई चली। बीच-बीच में कई बार मर कर जी उठीं नानी। यहाँ से वहाँ टेलीफ़ोन खनखनाए जाते। सब लोग इकट्ठे हो जाते और नानी वापस जी जातीं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। गहरी बेहोशी में जब नानी के मुँह में पानी डाला तो पानी भीतर गया नहीं। नब्ज़ लगभग गायब थी। डॉक्टर को सबेरे से आने का बोल रखा था, उन्हें दुबारा खबर की। लेकिन डॉक्टर का इंतज़ार नानी ने नहीं किया। वह चल बसीं।

नानी की शवयात्रा में ढेर सारे मखाने, छुहारे, सिक्के, बताशे उड़ाए गए। सब चीज़ें एकदम फर्स्ट क्लास थीं। चिता पर डालने के लिए खूब सारा घी भी था। हमारी नानी का राजरानी की राजसी शान के मुताबिक ही था सारा इंतज़ाम। नानी ज़िंदा होतीं तो कितनी खुश होतीं ये सब देखकर। ख़ासतौर पर इतना सारा घी देखकर।

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१६ फरवरी २००९

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