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''कहीं नहीं देखा मुझे?'' वह फिर हँसने लगा।
''देखा है।'' मैंने कहा।
''कहाँ?''
ज़रूर देख रहा था मैंने उसे, लेकिन याद नहीं आया मुझे, कहाँ।
टेलीफ़ोन की घंटी सुन कर इधर आ रही माँ हमारी ओर बढ़ आईं। टेलीफ़ोन के कमरे से फाटक दिखाई देता था।
''मुझे नहीं पहचाना?'' आगंतुक हँसा।
''नहीं। नहीं पहचाना।''

माँ मुझे घसीटने लगीं। फाटक से दूर। मैं चिल्लाया, ''मेरा बाइक। मेरा बाइक...''
आँगन में पहुँच लेने के बाद ही माँ खड़ी हुई।
'हिम्मत देखो उसकी। यहाँ चला आया...''
''कौन?'' बाबा वुल्फ़ के कान थपथपा रहे थे। जो सींग के समान हमेशा ऊपर की दिशा में खड़े रहते।

वुल्फ़ को उसका नाम छोटे भैय्या ने दिया था- ''भेड़िए औऱ कुत्ते एक साझे पुरखे से पैदा हुए हैं।'' तीन साल पहले वही इसे यहाँ लाए थे। ''जब तक अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई करने हेतु मैं यह शहर छोडूँगा, मेरा वुल्फ़ आपकी रखवाली के लिए तैयार हो जाएगा।'' और सच ही में डेढ़ साल के अंदर वुल्फ़ ने अपने विकास का पूर्णोत्कर्ष प्राप्त कर लिया था। चालीस किलो वज़न, दो फुट ऊँचाई, लंबी माँस-पेशियाँ, फनाकार सिर, मज़बूत जबड़े, गुफ़्फेदार दुम और चितकबरे लोमचर्म पर भूरे और काले आभाभेद।

''हर बात समझने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?'' माँ झल्लायी- ''अब क्या बताऊँ कौन है? ख़ुद क्यों नहीं देख आते कौन आया है? वुल्फ़ को मैं नहला लूँगी...''
''कौन है?'' बाबा बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे हो लिया।
''आज कुणाल का जन्मदिन है।'' अजनबी के हाथ में उसका बीस का नोट ज्यों का त्यों लहरा रहा था।
''याद रख कचहरी में धरे तेरे बाज़दावे की कॉपी मेरे पास रखी है। उसका पालन न करने पर तुझे सज़ा मिल सकती है...''
''यह तुम्हारे लिए है...'' अजनबी ने बाबा की बात पर तार्किक ध्यान न दिया औऱ बेखटके फाटक की सलाखों में से अपना नोट मेरी ओर बढ़ाने लगा।

''चुपचाप यहाँ से फूट ले।'' बाबा ने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया- ''वरना अपने अलसेशियन से तुझे नुचवा दूँगा...।''
वह गायब हो गया।
''बाज़दावा क्या होता है?'' मैंने बाबा के कंधे अपनी बाहों में भर लिए।
''एक ऐसा वादा जिसे तोड़ने पर कचहरी सज़ा सुनाती है...।''
''उसने क्या वादा किया?''
''अपनी सूरत वह हमसे छिपा कर रखेगा...''
''क्यों?''
''क्योंकि वह हमारा दुश्मन है।''

इस बीच टेलीफोन की घंटी बजनी बंद हो गई और बाबा आँगन में लौट आए।
दोपहर में जीजी आईं। एक पैकेट के साथ।
''इधर आ।'' आते ही उन्होंने मुझे पुकारा, ''आज तेरा जन्मदिन है।''
मैं दूसरे कोने में भाग लिया।
''वह नहीं आया?'' माँ ने पूछा।
''नहीं'' जीजी हँसी- ''उसे नहीं मालूम मैं यहाँ आई हूँ। यही मालूम है मैं बाल कटवा रही हूँ...''
''दूसरा आया था।'' माँ ने कहा, ''जन्मदिन का इसे बीस रुपया दे रहा था, हमने भगा दिया...''
''इसे मिला था?'' जीजी की हँसी गायब हो गई।
''बस। पल, दो पल।''
''कुछ बोला क्या? इससे?''
''हमने उसे कुछ बोलने का मौका दिया ही कहाँ?''
''इधर आ।'' जीजी ने फिर मुझे पुकारा, ''देख, तेरे लिए एक बहुत बढ़िया ड्रेस लाई हूँ...''
मैं दूसरे कोने में भाग लिया।
वे मेरे पीछे भागीं।
''क्या करती है?'' माँ ने उन्हें टोका, ''आठवा महीना है तेरा। पागल है तू?''
''कुछ नहीं बिगड़ता।'' जीजी बेपरवाही से हँसी से हँसी- ''याद नहीं, पिछली बार कितनी भाग-दौड़ रही थी फिर भी कुछ बिगड़ा था क्या?''
''अपना ध्यान रखना अब तेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।'' माँ नाराज़ हो ली- ''इस बार मैं तेरी कोई ज़िम्मेदारी न लूँगी...''
''अच्छा।'' जीजी माँ के पास जा बैठीं, ''आप बुलाइए इसे। आपका कहा बेकहा नहीं जाता...''
''इधर आ तो...'' माँ ने मेरी तरफ़ देखा।

अगले पल मैं उनके पास जा पहुँचा।
''अपना यह नया ड्रेस देख तो।'' जीजी ने अपने पैकेट की ओर अपने हाथ बढ़ाए।
''नहीं।'' जीजी की लाई हुई हर चीज़ से मुझे चिढ़ थी। तभी से जब से मेरे मना करने के बावजूद वे अपना घर छोड़कर उस परिवार के साथ रहने लगी थीं, जिसका प्रत्येक सदस्य मुझे घूर-घूर कर घबरा दिया करता।
''तू इसे नहीं पहनेगा?'' माँ ने पैकेट की नई कमीज़ और नई नीकर मेरे सामने रख दी, ''देख तो, कितनी सुंदर है।''

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