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लेकिन रवीन्द्र को पढ़ने की धुन थी, उसने कॉलिज में दाखिला ले लिया। यह सुनते ही रमाशंकर आगबबूला हो गया और रवीन्द्र को फिर धमकाया, ''आखिरी बार बोलता हूँ, घर में रहना है तो नौकरी कर ले वरना घर से बाहर हो जा।''
''मैं आगे पढूँगा।''
यह सुन कर रमाशंकर ने रवीन्द्र का हाथ पकड़ कर घर से बाहर कर दिया। माँ ने दरवाज़ा बंद कर दिया। रवीन्द्र अब क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था, वह प्रिंसिपल के पास गया। स्कूल परिसर में दो कमरों का क्वार्टर रहने को मिला हुआ था। रवीन्द्र को प्रधानाचार्य ने अपने घर पनाह दी, यह सोचकर कि हो सकता है, दो चार दिन बाद रवीन्द्र के माता पिता का गुस्सा शान्त हो जाए, लेकिन उसके विपरीत उन्होनें गाँव वालो के संग प्रिंसिपल के घर धावा बोल दिया और खुले शब्दों में चेतावनी दे दी कि वह गाँव के बच्चों को भड़काना बंद कर दे वरना उसे स्कूल में रहने नहीं देंगे। वह रवीन्द्र को अपने घर में नहीं रख सकता है। मजबूर हो कर प्रिंसिपल के घर से रवीन्द्र को जाना पड़ा लेकिन वह घर नहीं गया। सीधे शहर के लिए रवाना हो गया। लेकिन समस्या रहने की थी, जाए तो कहाँ। कॉलिज के पास एक मंदिर था। वह वहाँ कुछ देर बैठा रहा। रात को मंदिर बंद हो गया। सारी रात मंदिर परिसर में गुज़ार दी। उसकी जेब में फूटी कोडी नहीं थी। बस एक पैंट कमीज़ में घर से निकला था। सुबह मंदिर की घंटियों की आवाज़ से उसकी नींद खुली। पानी पी कर गुज़ारा कर लिया। भक्तों का तांता लगा और कुछ भक्तों ने दिए प्रसाद से पेट की भूख शांत की। कॉलिज खुलने में अभी एक सप्ताह था। वह क्या करे, उसको कुछ समझ नहीं आ रहा था। दूसरी रात भी मंदिर में काटी। अगली सुबह मंदिर के पुजारी ने उसे देखा, कि वह सो रहा है। लात मार कर उसे उठाया।
''उठ कौन है तू, लाटसाब की तरह सो रहा है। बाप का घर समझ रखा है।''
घबड़ा कर रवीन्द्र उठा और अपनी राम कहानी सुना दी।
''मैं कैसे मानू कि तू सच बोल रहा है।'' पुजारी ने अपनी शंका जताई।

रवीन्द्र ने कॉलिज में दाखिले और छात्रवृति के काग़ज़ दिखाए तब पुजारी को यकीन हुआ कि रवीन्द्र सच बोल रहा है। पुजारी मंदिर परिसर में ठीक मंदिर के पीछे क्वार्टर में रहता था। उसने रवीन्द्र को मंदिर मे ठहरने की इज़ाज़त दे दी, लेकिन इसमें उसका अपना स्वार्थ था। पुजारी ने शर्त रख दी कि उसके दोनों बच्चों को पढ़ाना होगा और मंदिर की सफाई और छोटे मोटे सभी कार्य करने होगें। रवीन्द्र को सिर छुपाने की जगह मिल गई और उसने पुजारी की शर्ते मान ली। बेघर रवीन्द्र को घर मिला। सुबह चार बजे उठ कर मंदिर की सफाई करने, कॉलिज में पढ़ाई करने और शाम को पुजारी के बच्चों को पढ़ाने के बाद रवीन्द्र थक कर चूर हो जाता था और मंदिर के एक कोने में सो जाता था। उसे मंदिर के धार्मिक कार्यक्रमों में भी काम करना पढ़ता था, लेकिन उसकी आईएएस की लगन में को बाधा नहीं आई। प्रिंसिपल प्रधानाचार्य उसका मार्ग दर्शन करते रहे, हौसला बढ़ाते रहे। कॉलिज में वह सिर्फ़ पढ़ाई में ध्यान लगाता, जब कोई क्लास नहीं होती तो लाइब्रेरी में रहता था। सारे कॉलिज में मिस्टर पढ़ाकू के नाम से मशहूर हो गया। उसका कोई दोस्त नहीं बना।

जहाँ कॉलिज के लडके रोज़ नए फैशन के कपड़ों में नज़र आते और चमकती कारों, बाइकों में घूमते, वहीं दो जोड़ी पुराने कपड़ों में उसका दरिद्र्य झलकता था, पैदल आया जाया करता था, जिसके कारण को उसे अपने पास नहीं आने देता था। लेक्चरर और प्रोफ़ेसर ही उसके साथी थे। तमाम मुश्किलों के बीच प्रिंसिपल प्रधानाचार्य उसे लक्ष्य बताते रहे और कठिन डगर पर चलाते रहे। जिसका परिणाम पहले वर्ष ही नज‍र आ गया। पूरे कॉलिज में प्रथम रहा और उसके जितने अंक कॉलिज के इतिहास में किसी के नहीं आए थे। इसके बाद पढ़ने वाले छात्र उसके नज़दीक आने लगे और दोस्ती करने लगे। पुजारी के नालायक बच्चे भी अच्छे नंबरो से पास हुए। रवीन्द्र जिस कार्य को करता, पूरी लगन से करता, चाहे खुद पढ़ने का हो या पुजारी के बच्चों को पढ़ाने का हो। सुबह पूरे मंदिर की सफ़ाई कर चमका देता था, जिस कारण मंदिर की रौनक दुबारा लौट आई थी। भक्तों की संख्या बढ़ गई थी और पुजारी की आय। पढ़ने की लगन से वह पूरी यूनीवर्सिटी में प्रथम रहा और आईएएस की परीक्षा पहली कोशिश में मेरिट के साथ पास की।

''रवीन्द्र आज तुमने अपने नाम को सार्थक कर दिया। जैसे सूरज सारे जगत को प्रकाश देता है, वैसे रवि तुमने पढ़ने में नाम रौशन किया है। इस राह पर हमेशा चलते रहो, यही मैं चाहता हूँ।'' कह कर प्रधानाचार्य ने रवीन्द्र को गले लगा लिया। ''हमेशा सत्य की राह पर चलो, किसी रुकावट से मत डरना, यही मेरी शिक्षा है और तुम्हें आशीर्वाद है।''
कुछ रुक कर प्रधानाचार्य ने रवीन्द्र से फिर पूछा, ''क्या अपने माता पिता से नाराज़ हो।''
''नहीं, प्रिंसिपल जी, लेकिन मैं वहाँ ट्रेनिंग के बाद जाऊँगा, मैं चाहता हूँ कि मेरे पास होने की ख़बर आप उन्हें दें।''

ट्रेनिंग के बाद जहाँ बाकी आईएएस अफ़सरों ने विकसित शहरों में अपनी पोस्टिंग चाही, रवीन्द्र ने अपना पिछड़ा जिला चुना। पहला काम उसने नहर पर पुल बनवाने का किया। रवीन्द्र के माता पिता खुशी से फूले नहीं समाए, लेकिन इस चिन्ता में डूब गए कि उनका रबी मिलने क्यों नहीं आया, क्या वह नाराज़ है।
''आज तुम्हारा बेटा जिले का कलक्टर बन गया है, अगर तुम्हारी बात मान कर कारखाने की नौकरी करता तो अभी तक क्लर्की ही कर रहा होता। आज वह पूरे जिले का मालिक बन गया है।'' इससे पहले कि प्रधानाचार्य और अधिक कुछ कहते, पिता ने बात काट दी। ''हम तो मूर्ख थे, तभी तो आपकी बात नहीं समझ सके प्रिंसिपल साहब। हमने आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, हमें माफ़ कर दो।''
''तुम गाँव निवासी अज्ञानता का पर्दा उतार दो, पढ़ाई की महिमा को समझो, यही मेरा सपना है। यही मेरी माफी है।''

नहर पर पुल का काम तेज़ी से चल रहा था और गाँव वालों को अपने रबी से मिलने की बेताबी थी। आखिर वो घड़ी आ ही गई। पुल का उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री ने किया। आज पाँच साल बाद रवीन्द्र अपने गाँव जा रहा था। जीप धीरे-धीरे पुल से गुज़र रही थी, रवीन्द्र की आँखे नम होती जा रही थी। पूरा गाँव रवीन्द्र के स्वागत में खड़ा था। प्रधानाचार्य सबकी अगुवाई कर रहे थे। उन्होंने आगे बढ़ कर रवीन्द्र को गले लगाया। उसके बाद माता पिता ने अपने बेटे को गले लगाया। कोई कुछ नहीं कह सका। तीनों की आँखे नम थी। माँ रोती रोती बस इतना ही बुदबुदा सकीं ''मेरा रबी।''

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९ नवंबर २००९

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