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पर कल्पनाएँ भी कभी सच में तब्दील होती हैं। उसकी जैसी न जाने कितनी वर्तिका होंगी जो किसी के हाथ की तपिश पाने के लिए, प्यार का अहसास महसूस करने के लिए ललक रही होंगी। फिर वह वर्तिका ब्याहता हो या कुँआरी क्या फर्क पड़ता है।
ज़रूरत तो होती है एक साथी की।
फिर यह किसने प्रमाणित कर दिया कि शादीशुदा वर्तिका अकेलापन नहीं महसूस करती है। बंधन की तपिश कई बार इतनी सुखद नहीं होती जो उष्मा दे सके। शायद भटक रही है वर्तिका। क्या करे मौसम ही ऐसा है। सुबह के दस बजे हैं। ऑफिस से छुट्टी ली है वरना छुट्टियाँ बेकार हो जातीं। सोचा था आकाश के स्कूल जाने के बाद चैन से मौसम का लुत्फ उठाएगी, न, अकेले नहीं बल्कि सुमित के साथ। पर हर बार की तरह इस बार भी उसकी सोच पानी के बुलबुले की तरह ही साबित हुई।
सुबह ही उसने बता दिया था सुमित को। ''आज छुट्टी ली है मैंने।''
''तो?'' प्रश्न उछाल हमेशा की तरह लापरवाही की मुद्रा धारण कर ली थी सुमित ने। उसने उसे देखा तो सुमित थोड़ा आवाज़ में नरमी लाते हुए बोला, ''हमेशा काम में लगी रहती हो, ऑफिस, घर, आकाश... थक जाती हो तुम। आज आराम करो। फ्रेश फील करोगी। जस्ट रिलैक्स।''
वह कुछ कहने के लिए मुँह खोलती इससे पहले ही सुमित सैर के लिए निकल गया। इस रुटीन में कभी बदलाव आ जाए, यह तो संभव ही नहीं है।

सैर से वापस आकर सुमित कब रजाई में घुस गए उसे भान तक न हुआ। वह तो जल्दी-जल्दी रसोई का काम समेट रही थी। बातचीत का क्रम जोड़ने के लिहाज से वह रसोईघर से ही बात करने लगी। जब जवाब नहीं आया तो कमरे में झाँका। सिर्फ खर्राटों की आवाज थी। मन हुआ झिंझोड़कर उसे उठा दे, पर रुक गई। बेकार में झुँझलाएगा और उसका सारा दिन खराब हो जाएगा।

याद है उसे शादी हुए तब पंद्रह दिन ही हुए थे। सुबह से ही बारिश होरही थी, उसने अति उत्साह से सोए हुए सुमित को उठा दिया था।
''क्या है?'' लगभग चिल्लाते हुए पूछा था सुमित ने।
वह फिर भी अपनी रौ में बहते हुए बोली थी,
''बारिश हो रही है, चलो न छत पर चलकर भीगते हैं।''
''तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं है? बारिश हो रही है तो क्या करूँ? नाचूँ क्या? नींद खराब कर दी। आइंदा कभी मुझे सोते से उठाने की जुर्रत भी मत करना।'' सारा रोमांस, मूड और उमंग जो खतम हुई तो आज तक कहीं दब कर रह गई है। छोटी-छोटी खुशियाँ क्या नहीं पाई जा सकतीं?

वह सुमित के व्यवहार और रूखेपन की आदी हो चुकी थी पर आज तो उसे बहुत ही बुरा लगा। क्या रात का हैंगओवर सुबह दुबारा सोकर ही उतारा जा सकता है। झुंझलाहट से भरी वर्तिका सारा काम छोड़ बालकनी में जाकर बैठ गई। ऑफिस जाने वालों की आवाजाही थी। हर तरफ एक शोर था। व्यस्तता चहलकदमी करती प्रतीत हो रही थी। वहाँ भी अच्छा नहीं लगा तो अपने कमरे में आकर सिमट गई। हाँ उसके और सुमित के अलग-अलग कमरे हैं। पति-पत्नी पर कमरे अलग। क्या फर्क पड़ता है, वैसे भी आपस में संवाद ही कितना है। सुमित उसकी संवेदनशीलता को मूर्खता का दर्जा देता है। उसको किस बात से ठेस लग सकती है इसकी वह कभी परवाह नहीं करता। आठ बरसों के वैवाहिक जीवन में उसने कभी पूछा तक नहीं कि वर्तिका तुम्हारी क्या इच्छा है? यहाँ तक कि उसकी पसंद- उसे कौन-सा रंग अच्छा लगता है, यह भी कभी गौर करने की कोशिश नहीं की। उसकी पसंद की सब्ज़ी के बारे में भी नहीं जानता है।

अब तो वह भी भूल गई है कि उसकी अपनी भी कोई पसंद है, कि इच्छाएँ करने का हक उसे भी है। अपनी पसंद-नापसंद उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। सुमित, आकाश, बस इन दोनों के इर्दगिर्द ही घूमती रहती है उसकी दुनिया। हाथ में हाथ डाल घूमने का सपना तो कभी पूरा नहीं हो सकता पर फिर भी वर्तिका ने सपने लेना नहीं छोड़ा है। एक अदृश्य आकार के साथ वह इन सपनों में जी लेती है। कल्पनाओं का एक लंबा-चौड़ा दायरा बना उस आकार के साथ छोटे-छोटे दुख-सुख बाँटती है और अहसासों की उष्मा को सहेज कर दौड़ने लगती है अपनी व्यस्त, रूखी ज़िंदगी में। वह पीछे छूटकर भी पीछे रहने को तैयार नहीं है- हारना नहीं जानती वह। ''आज खाना कैसा बना है?'' अदृश्य आकार से वह जब पूछती है तो वह सुमित की तरह यह नहीं कहता ठीक है, अब इसकी भी तारीफ करनी होगी, बल्कि वह कहता है, ''तुम्हारे हाथों में जादू है।'' तब उसका मन करता है वह अलग-अलग चीज़ें बनाए।

जब वह उससे पूछती है कि ''आज मैं कौन-सी साड़ी पहनूँ?'' तो वह सुमित की तरह हँसता नहीं है कि पढ़ी लिखी होकर व्यवहार गँवारों-सा करती हो। कुछ भी पहन लो, क्या फर्क पड़ता है?'' वह कहता है, ''तुम पर बैंगनी बहुत अच्छा करता है, वही पहनो न।'' वह खिल उठती है औऱ ललक उठती है अपने को सँवारने के लिए। वह अदृश्य आकार सच नहीं हो सकता वह जानती है पर उसी के सहारे वह सुमित के कटाक्षों को झेल पाती है। आत्मनिर्भर स्त्री भी मार खाती है, कोई यकीन कर सकता है पर यह सच है। पिये हुए आदमी का हाथ रोकना कठिन होता है उसके लिए।

वर्तिका यह भी नहीं जानती कि उस आकार को कभी वह साकार होते भी देख पाएगी कि नहीं लेकिन वह अदृश्य आकार हताशा के क्षणों में, उदासी के पलों में उसे संबल अवश्य देता है। एक निराधार विश्वास उसकी ज़िंदगी के सपनों को टूटने से बचाता है। वे सपने हैं जिसमें वह अपने आप ही गुनगुनाती है, उसका मन तब हिलोरें लेने लगता है और अल्हड़ युवती की तरह वह भीतर ही भीतर उन्मुक्तता से छलाँगे लगाती है मानो लहलहाते, झूमते खेतों के बीच दौड़ रही हो। कुलाँचे भऱती हिरणी-सी फुर्ती आ जाती है। सुख महसूस होता है वातावरण में। आसपास सब जीवंत हो उठता है।

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