|  | सभी के शरीर में मस्से कहीं 
					न कहीं होते ही हैं। उनकी संख्या ज़्यादा नहीं होती। हर कोई 
					अपने शरीर में उनकी जगह के बारे में जानता है। उनकी संख्या का 
					भी कुछ-कुछ अनुमान उसे होता है। लेकिन हमारे गाँव में सेमलिया 
					की पूरी देह में मस्से ही मस्से थे। इतने कि उसे खुद अपनी देह 
					में उनकी जगह और उनकी संख्या के बारे में अंदाज़ा नहीं होगा।
					
 मस्से सबसे ज़्यादा उसके चेहरे पर थे।
 मस्से भी बड़े-बड़े। गोल, चमकीले। चने की दाल या भुट्टे के 
					दानों की तरह चेहरे पर छितराये हुए। उनमें से कोई-कोई तो काफी 
					बड़ा भी था। जैसे चेहरे पर त्वचा का कोई बुलबुला बन गया हो। 
					कुंदरू के आकार का। सेमलिया का रंग काला था।
 
 यह तब की बात है, जब तक बिजली हमारे गाँव में नहीं आयी थी। रात 
					में लालटेन, लैंप और दिये जला करते थे। सँझबाती हुआ करती थी। 
					बुआ शाम होते ही पहला दिया जला कर, सारे घर में उसे फिराने के 
					बाद, भगवान के पास रख देती थीं। उस दिये को सब प्रणाम किया 
					करते थे। लैंप को हम 'लंफ` कहते थे।
 
 ढिबरी भी होती थी, जो किसी छोटी-सी शीशी के ढक्कन में छेद 
					बनाकर, उसमें चिथड़े की बत्ती डालकर और उसके काँच के पेट में 
					मिट्टी का तेल भर कर बनाई जाती थी।
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