मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


- ये सामान नहीं आया ..पंडिज्जी बोल रहे हैं, लावा धान के लिये,
- पैसे दो भई, केसु को भेज रहे हैं, नारियल लायेगा
- रोकना उसको, थाली और कलसा सजाने के लिये गोटा और... और, वो माथा खुजाती थीं, अरे हाँ एक फेवीस्टिक या टेप, कुछ भी..
- बीबी जी, बाहर मेहमान चाय के लिये कह रहे हैं ..

फिर सूटकेस की चाभी खो गई। उफ्फ सारा पैसा उसी में तो है ..

- सुनिये सब काम छोड़ कर सूटकेस खुलवाईये ..

इन सब हादसों के बावज़ूद सब व्यवस्थित चल रहा था। सबकी आवाज़ दबी मद्धम। जैसे दिल में कोई मधुर मीठा संगीत बजता हो। जैसे हरबार कुछ कहने, करने के पहले याद आ जाये कि हवा में जो खुनक है उसमें किसी घुँघरू की मीठी रुनझुन है। कि कुछ बहुत सुंदर बढ़िया होने वाला हो। कि जैसे खुशी के उमगते फूल इस किराये के मैरेज हॉल के कोने साँधी में बार बार खिलते हों। कि दुल्हन की छाती में एक मीठा मीठा भार हो, एक टीस भरी कसक हो, छाती गला सब किसी आवेग से रह रह अवरुद्ध हो, कि खुशी धूप का चमकता टुकड़ा हो और उसके पार घर से बिछड़ना हो, माँ बाप से अलगाव की अजब गज़ब टीस हो। दुल्हन की माँ रह रह कर किसी काम के बीच अचानक उमड़ आये आँसू को पोछ सोचे कि बेटी बस अपने ही शहर तो रहेगी फिलहाल ब्याह के बाद, हफ्ते हफ्ते मिलेगी, तब से भी ज़्यादा जब हॉस्टल रहकर पढ़ती थी और चार महीने में आती थी। बस सिर्फ इतना कि अम्बलिकिल कॉर्ड टूटा अब। जा छोड़ा तुझे अब, छोड़ा छोड़ा ...। बेटी के कमनीय चेहरे की काँति देखकर जी समझाती, खुश है, खुश है, मैं भी खुश हूँ, बहुत।

बाजू बन्द खुल खुल जाये ..

छोटे कमरे में कबर्ड से लगे दीवार पर करीने से लड़की का सूटकेस, सास का बक्सा, पूजा वाला टीन का बक्सा जिसमें जोड़ जोड़ गिन गिन सब सामान, पंडीजी के लिस्ट से मिला मिला कर एक जगह, भुलाये न, के हिसाब से इकट्ठा किया था, कलसा, पीढ़ा, काँसे की थाली, तिलक का सामान, थान थान कपड़े, बरातियों सरातियों को देने वाले कपड़े, टोकरी में खिलौने, खाजा और लड्डू .. कमरा भर गया था। चाभी कमर में खोंसे, मन ही मन लिस्ट से काम टिक करते सोचतीं ..न बाबा अगली शादी ऐसे नहीं। बेटे की कोर्ट मैरेज करूँगी ..फिर एक रिसेप्शन बस। ब्लड प्रेशर की गोलियाँ गटकते, तड़कते माथे के नस को उँगलियों से सहलाते थक कर निढाल मसनद की टेक लगाकर ओठंग जातीं।

फिर भी सब व्यवस्थित चल रहा था। हफ्ते भर पहले उठपुठ कर, अपना शहर छोड़ कर ब्याह के लिये यहाँ आई थीं। महीनों दिन से ले जाने वाली चीज़ों का लिस्ट बना बना कितने पन्ने रंग डाले थे। सूटकेसेस पर लेबल, गहनों का लिस्ट, मैचिंग ब्लाउज़ और पेटिकोट, चूड़ियाँ, लहठी, पायल बिछिया, काँजीवरम और बालूचरी साड़ियाँ, सिंदूर के छोटे छोटे डब्बे, आमंत्रित लोगों के लिस्ट, केटरर, शादी का कार्ड ..उफ्फ !

डायरी में छोटे बड़े काम का लिस्ट। फोन पर लगातार माँ और जेठानी से सलाह। रस्मों के ओरछोर खबर नहीं। फिर भी सब हो जैसे परिवार में पीढियों से होता आया है। कुलदेवी की पूजा और धागे में पिरोई हरेक शादी पर एक चौखुट चाँदी की ताबीजनुमा माला। पुराने करियाये ताबीजों की ढेर में एक और नया नवेला जुड़ेगा अब। लाल धागा बदलते हथेलियाँ सिहरी थीं पल को। जैसे कोई ददिया ननिया सास की हथेली की गर्माहट छू गई हो। ब्याह की रात कान का झुमका, गले का सतलड़ा हार, नाक का नथ और माथे का माँगटीका, बाँहों का बाजूबन्द ..सब खुलता गया था कैसे। हल्की पीली जरजरी रौशनी में कैसा सोने सा छींटा बिखरा था उस रात। लाल गठरी सा प्रेम, कैसे एक एक गाँठ खोला था उसने एक के बाद एक। मुट्ठी में अपनी शादी वाला चाँदी की ताबीज पसीज गया था। कितने साल ! कितने कितने साल, लेकिन सब जैसे आज जैसे कल ही तो। कुर्ता धोती में सजे मनोहर गुज़रते दिखे तो कैसे आँख में सब बीते बरस एक साथ आँसू में जमा हो गये। परदा हटाने भर की देर थी बस।


हमरी अटारिया पे आजा साँवरिया ...

आश्चर्य कि हमेशा ज़रा बदकहल बहू बनी रहीं। रीति रिवाज़, सिंदूर चूड़ी, सुहाग के निशान ..सब हमेशा झमेले लगे। तीज नहीं करूँगी ऐसा ऐलान शुरु में ही करके नाम कमा लिया था ससुराल में। फिर बिना चूडियों के लाठी जैसे हाथ लिये चाची मामी के विद्रूप का सामान बनीं। बहुरिया सिंदूर तक नै लगलिथिन ! औरतें साड़ी से मुँह ढँके आँखे हा किये हैरत से देखतीं। फिर मुँह बिचका फिक्क हँसतीं।

- कोन जमाने की बहू लाये हो मनोहर ? और मनोहर अपनी मनहारी मुस्कान बिखेरे हँस पड़ते ..

- बहू हमारे कंट्रोल में कहाँ, फूआ ?

कमरे के अकेलेपन में पत्नी को अंकवार भर कर चूम लेते .. माई डार्लिंग वाईफ ! और डार्लिंग वाईफ चमक जातीं ..जब तुम्हारी फुआ, मामी बोल रही थीं तब उनके साथ कैसे खड़े हँस रहे थे, बेशर्म !

अब अचानक कैसी शिद्दत से इच्छा उमड़ रही है कि सब पुरखों का आशीर्वाद मिनी को मिल जाये। सास, जो उनके ब्याह के पहले ईश्वर को प्यारी हुईं, और मिनी के बायें कनपटी पर तिल जो उनसे ही आया था, जैसे वही फिर आ गई हों इस रूप में। पंडितजी हाथ देखते बोले थे, बिटिया इसी पितृकुल में थी पिछले जनम में। उन्होंने श्रद्धा से पंडित जी के पैर छूये थे। आश्चर्य ! ऐसी चीज़ों में पहले कभी विश्वास नहीं रहा।

बेनी फुआ लावलश्कर सहित पहुँची हैं। रिक्शा भर सामान, साथ में छोटा नौकर माधो, हाथ में शीशा लगा, काम किया मखमल का बटुआ, पान दान। पैर छूने झुकीं तो फुआ भर भर आसीस दिये चलीं। मिनी आई तो गोद में भर लिया। आँखे उमड़ चलीं। आज भैया होते, भौजाई होती ..देखते कैसी राजकुमारी सी बेटी का ब्याह हो चला। फिर झटपट आँख पोंछते चाय की फरमाईश कर बैठीं। चाय पीते उनके इर्दगिर्द दरबार लगा। मनोहर एक तरफ बैठे, रंजू दूसरी तरफ। अपने कटे बालों को साड़ी के पल्ले में छुपाते हुये। बेनी फुआ ने एकबार वक्र दृष्टि से बालों को देखा, बुदबुदाईं ..अरे अब तो बड़ा कर लिया होता, खैर जाने दो ..

मिनी हल्दी लगवाकर अपने कोने वाले कमरे में लेटी जीन रीस पढ़ रही है। पन्ने पलटती सेल फोन चेक करती है। आज अभी तक राज का फोन नहीं आया। मन नहीं लग रहा, मैं ही लगा लूँ क्या ? कहा था उसे हर दिन फोन करना। एस एम एस करूँ ?

पहली बार मिली थी तब कैसा उजबक लगा था। ऊँट जैसा हहूट। जाने कौन सी केमिस्ट्री थी। उसी उजबक से दिल लग गया। अभी हँस हँस कर बताने में कैसा मज़ा आता है।

गाँव वाली गोतिया की औरतें झुरमुट बनाये बैठीं हैं, मूड़ी से मूड़ी सटाये। मोटे जाँघों के बीच साड़ी फँसाये, मुग्दर से हाथों में दबोच कर पहनी हुई काँच की कामदार चूड़ियाँ दम घुटे क्या बजें। पाँव के झालरदार पायल की सुर अलबत्ता बजती है रह रह कर। चाय स्टील के ग्लास में सुड़क सुड़क कर पीती हैं, बहस करती हैं, किस रस्म के बाद कौन रिवाज़ ? सब भूल भाल गई हैं।

- का बबुनी ? ई त तहरा नैहर के चाल बा ?

फिर दोहरा दोहरा हँस पड़ती हैं, माथे को हाथ से ठोक कर। बड़की मामी तकिये के नीचे से सीटा हुआ चिमचिमी निकालती हैं, दोहरावन तिहरावन करके रखा कोई कागज़ का पुर्जा निकालती हैं। टेरती हैं किसी बच्चे को, ..

- अरे बबुआ ज़रा ई फोन नमबर तो केहू के फोन से मिलवा दे बाबू ..

-- किसका है नम्बर दादी ? मिनी अपने कमरे से झाँकती है।

- लाईये हम लगा देते हैं।

मनोहर झाँकते हैं, पुकारते हैं, ज़रा इधर आना एक मिनट। रंजू बैठ जाती है। मियाँ बीबी गुपचुप गुपचुप दबी आवाज़ में बतियाते हैं। जब अपनी शादी हुई थी तब कहाँ ये सब हुआ था। हल्दी चंदन की रस्म तक नहीं हुई थी। नानी हल्ला करती थीं, ऐसी शादी न देखी न सुनी। हे ईश्वर सब शुभ शुभ हो। फिर गुस्सा दबा कर अकेले अकेले कोई ब्याह का गीत गाने लगतीं। तब लगता था कैसा विद्रोह का परचम लहरा रहे हैं। ब्याह सिर्फ एक घँटे का होगा के ऐलान पर कैसा घर में कोहराम मचा था। मनोहर जिद पर अड़ा था और पापा ? उन्होंने तो हमेशा अलग करने की कोशिश की थी। पूजा पाठ में कोई विश्वास कभी नहीं किया। कैसा अनूठा नया कर रहे हैं जैसे किसी आत्म मुग्धता बोध से नहाये रहते थे तब। जैसे जंगल में बेल लतर को कुल्हाड़ी से काटते नया राह बना रहे हों। आह ! विद्रोह का बस यही एक सुर पकड़ पाये थे और उसी में जी जान से लगे थे। कितने साल बाद तक भी अपनी शादी के किस्से कैसे गौरव से बयान करते थे, कि देखो कैसे हमने सड़ी गली परंपराओं का निषेध किया।

फिर ? जैसे पूरा गोल घूम आये वापस। पुरखों की थाती, अपने संस्कार को छाती से समेटे लगाये ले आये हैं यहाँ तक सदियों से, पीढियों से, इसी के लिये ? कि गँवा दे सब ऐसे ही, बिसरा दें सब ऐसे ही ? किसी पॉप कल्चर के हवाले कर दें खुद को ? अपनी संस्कृति अपने संस्कार, अपनी परम्परा, सब अरवी के पत्ते पर पानी के फिसलते बून्द सा बहा दें ? करें क्या ?

हम होंगे कामयाब एक दिन

ऐसा द्वन्द पहले तो कभी नहीं हुआ। परंपरा और आधुनिकता में चुनने में कभी मुश्किल ही नहीं हुई। पुराना सब सड़ा गला बकवास है, भीगा बोथा कपड़ा है, उतार फेंकना ही नियति है। माँ जब मंदिर जातीं तो कैसे हर बार लाख मनुहार के बावज़ूद बाहर ही रुक जातीं।

“न, हमें इन सब पर विश्वास नहीं। “

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।