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वो सामने बैठी है और दीनानाथ पछता रहे हैं। उन्हें क्या पता था कि मारिया नाम की यह औरत इतनी बदसूरत होगी। उन्होंने मुँह बिचकाया है। ऐसी औरत को देखते हुए खाना तो क्या खाया जाएगा... पानी भी नहीं पिया जा सकता।

दीनानाथ पशोपेश में हैं। पछता रहे हैं। सोच रहे हैं- इसे रखें या नहीं? रखे तो कैसे रखें? इसे देखकर तो वो और ज़्यादा बीमार हो जाएँगे।

दीनानाथ अपने आपको देखते हैं। अट्ठावन के हैं। बेशक, बीमार हैं। लेकिन अब भी अच्छे लगते हैं। उनके दोस्त कहा करते थे- डी.एन. (दीनानाथ को उनके दोस्त डी.एन. कहा करते थे। दीनानाथ में पुरानेपन का अहसास था। जबकि डी.एन. नए जमाने की संक्षिप्त अभिव्यक्ति थी) तुम बहुत खूबसूरत हो। ऐसी कद काठी, मिल्टरी ऑफिसरों की होती है। रौबीला, चौड़ा चेहरा। भरे हुए गाल जो अक्सर दो पैग पीने के बाद लाल नज़र आते, ऊँचा कद, खुलते कंधे, घने काले बाल और भेदती हुई नज़र! और फिर दीनानाथ जी का चुरुट पीने का अंदाज।

मारिया को देख कर न जाने क्यों वो अपनी एक जमाना पहले की शख्सियत याद करने लगे थे। मारिया... बदसूरत मारिया सामने बैठी हैं। ऐसी औरत को अपनी देख-रेख के लिए गवर्नेस रखना, उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वो अपनी शख्सियत की तौहीन कर रहे हों।

बेशक, पिछले ढाई साल से वो बीमार चल रहे थे। उनका चेहरा ढीला पड़ चुका था। रंगत जो कभी सुर्ख हुआ करती थीं, अब जर्द नजर आती थी। कभी वो तन कर चला करते थे, जैसे वो कोई चलता फिरता देवदार का दरख्त हों... अब उनके कंधे थोड़ा झुक गए थे। चाल में वो दमखम नहीं रहा था। ऐसे चलते जैसे कोई बूढ़ा बैल। दो-चार कदम चलते, हाँफ जाते। लौट कर अपने बिस्तर पर आ गिरते। फिर सोचते- कहाँ गया वो बल? वो हिम्मत। वो जोश। वो गरमी। वो ताकत। वो जिंदगी के खेल। जिंदगी की रुमानियत.... रंगीनी और ठाठ।

वक्त भी अजब किस्म का चोर है। कितनी सफाई से चुरा जाता है शरीर के भीतर से शरीर का ताप। पता ही नहीं चलता।

दीनानाथ सोचते हैं। जब तंदुरुस्त थे तो ज़माना उनके पीछे-पीछे भागता था। यार दोस्त थे। हंगामा था। हेकड़ी। गुमान। पार्टियाँ। सब था। सब अपना था। बीमार हुए तो अकेले पड़ते चले गए। इतने अकेले कि साथीपन के लिए किसी नर्स... गवर्नेस की जरूरत आन पड़ी। जो उनकी देखभाल कर सके। दवाइयाँ, इजेक्शन, डॉक्टर, डाइट... सब बातों के लिए एक कुशल स्त्री-गवर्नेस।

दुविधा यह थी कि इस बदशक्ल... बल्कि घृणा पैदा करती औरत से कैसे निजात पाएँ? इस औऱत को उन्होंने न सिर्फ बुलाया था बल्कि नौकरी का आश्वासन भी दिया था। चिट्ठी लिखते वक्त दीनानाथ जी के मन में मारिया नाम की किसी एंग्लोइंडियन स्त्री का खयाल था, स्मार्ट... साँवली लेकिन खूबसूरत। लेकिन यहाँ तो आलम ही दूसरा था।

दीनानाथ जी के मन में द्वंद्व यह भी था कि इस औरत को जवाब दे भी दें तो फिर? दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं था उनके पास। अगर उनके पास किसी अन्य स्त्री का लेटर आया होता तो इस औरत को वो देखते ही गेट से बाहर कर देते। रही बात नैतिकता की तो एक दिन का टी.ए., डी.ए. दे कर जान छुड़ाते।

दीनानाथ जी ने गहरी साँस ली। जल्दबाजी पर उन्हें पछतावा हुआ और अन्य विकल्प न होने की हताशा।

उन्होंने उचटती-सी नज़र, सामने बैठी मारिया पर डाली- मोटी नाक। काले होंठ, थुलथुल देह, गाल अजीब से बेढब। चेहरा, न गोल न लंबा... कुछ चौड़ा कुछ चपटा। चेहरे की खाल जैसे सड़-सी गई हो। माथा सिकुड़ा हुआ और बाल उड़ते हुए। गर्दन मोटी- जैसे किसी भैंस की हो।

''सर जी, मैं चलती हूँ।'' सामने बैठी औरत की आवाज़ उभरी है। आवाज़ में बेचैनी और उकताहट का मिश्रण है।
चौंक-से गए हैं दीनानाथ। वो तो इस स्त्री को दफा करने के लिए कोई माकूल बहाना ढूँढ रहे थे। और यह स्वयं चले जाने की बात कर रही है। इसे कैसे पता चला कि मैं इसे नहीं रखना चाहता। उन्होंने सवालिया निगाह, सामने बैठी मारिया पर डाली- एक क्षण के लिए।

फर्श पर रखे पुराने सूटकेस और झोले को उठाने का विचार करते हुए और दीनानाथ की तरफ देखते हुए वो बोली, ''सर जी, इतने लंबे मौन का यही अर्थ होता है कि इस घर में मेरी ज़रूरत नहीं है।'' मारिया की आवाज में अजीब-सा दुख था। विनम्रता थी और कंपन था।

दीनानाथ जी को इस औरत की कोई चीज़ अच्छी नहीं लगी थी। लेकिन उसकी आवाज में आकर्षण था। दीनानाथ जी के चौंकने का एक कारण यह भी था कि यह औरत खामोशी को पढ लेती थी। अनकहे को समझ सकती थी। खामोशी को इसने कुछ देर पहले मौन कहा था। मौन के अर्थ वो जान गई थी।

वो अपने सामान को देखते हुए उठ रही है। दीनानाथ उसे देख रहे हैं। मन ही मन सोच रहे हैं- अच्छा हुआ बला टली।

''सर जी, आपके लेटर।'' वो कहती हैं। मुड़ती है। अपने सूटकेस को उठाती है। झोले को बगल में लटका कर दीनानाथ को देखती है।

दीनानाथ जी को लगता है जैसे यह औरत उन्हें शिकस्त दे कर जा रही है। जैसे बीमार और बूढे आदमी का मज़ाक उड़ा कर जा रही है। नहीं, इस तरह चली गई तो दीनानाथ अपने आपको दयनीय नजर आएँगे। इस औरत को किसी बहाने से रुखसत करना चाहिए।

''खत में तुमने सेलरी की बात नहीं लिखी थी।'' दीनानाथ ने कहा सेलरी की बात बहाना हो सकती है। वो ज्यादा सेलरी की डिमांड करेगी और दीनानाथ इसे मुद्दा बना कर औरत को बाहर का रास्ता दिखा देंगे।
''पैसा क्या बहुत महत्वपूर्ण होता है सर जी?'' वह पूछती है।
''फिलासॉफी रहने दो। काम की बात करो। मैंने जो पूछा है उसका जवाब दो। अगर मैं तुम्हें रख लूँ तो तुम कितनी सेलरी लोगी?'' रुखाई से पूछा है दीनानाथ जी ने। अपनी बात में रुखाई जानबूझ कर पैदा की है उन्होंने।
''जो आपके लिए सुविधाजनक हो।''
''सुविधाजनक।... सुविधाजनक का क्या मतलब हुआ? अगर मैं तुम्हें दस रुपए महीना दूँ तो?''
''तो भी चलेगा।''

चौंक गए दीनानाथ। हैरानी उनके चेहरे पर थी और दुविधा तथा संशय को मिटाते हुए और उनके अधूरे छोड दिए गए वाक्य का अर्थ समझते हुए बोली, ''ऐसा लगता है कि आप मुझे कुछ दिन ट्रायल पर रखना चाहते हैं?''

दीनानाथ जी अवाक रह गए। वो यही तो सोच रहे थे। कुछ दिन के लिए इसे रख लूँ और कोई माकूल बहाना मिले तो चलता करूँ। मुमकिन है, इस बीच कोई और आवेदन आ जाए।
''ठीक है, मैं तुम्हें रख लेता हूँ।'' दीनानाथ जी ने मारिया पर अहसान-सा लादते हुए कहा।
''धन्यवाद।'' मारिया सामान सहित थोड़ा-सा झुकी। एक बार फिर बोली, ''धन्यवाद, सर जी।''

दीनानाथ उठ कर अपने कमरे में चले गए। वो स्टिक के सहारे चला करते थे। कुछ पल तक स्टिक की खटखट सुनाई देती रही। फिर लगा, वो अपने बिस्तर पर लेट गए हैं।
मारिया ने सूटकेस फर्श पर रखा और झोला मेज पर। कुछ देर वह खड़ी रही। सोचती रही कि क्या करे? कहाँ से शुरू करे? इतना तो वह समझ गई थी कि घर के मालिक ने उसे रख तो लिया है लेकिन भारी मन से। उसने गहरी साँस ली। मन ही मन बोली, किसी का दोष नहीं। उसकी सूरत ही ऐसी है।

मारिया ने कोठी का चक्कर लगाया है। जैसे मुद्दत से इस कोठी को जानती हो। लेकिन वह पहली बार इस कोठी को हतप्रभ हो कर देख रही है। खूबसूरत है कोठी। दोनों तरफ खुला आँगन। कुछ दूर तक सीमेंट का पक्का फर्श। फिर घास। घास सूख चुकी है। क्यारियाँ उजड चुकी हैं। वृक्ष भी उदास से लगते हैं जैसे किसी ने परवाह न की हो। कमरे खुले और उनमें बड़ी-बड़ी अलमारियाँ, फर्नीचर। फर्नीचर गर्दआलूद है। किसी ने कपड़ा तक नहीं मारा इन पर। किचन बहुत बड़ी है। कुकिंग रेंज, ओवन- यह अनुमान उसने पहले दिन ही लगा लिया था। वो इंसुलीन का इंजेक्शन लगाती। इलैक्ट्रीकल केटल में चाय बनाती। दीनानाथ को देती। खुद पीती। वो, चाय दीनानाथ के साथ बैठ कर पीती। लेकिन क्या मजाल कि दीनानाथ के साथ एक भी शब्द बोलती हो तो। उसने दीनानाथ को समझाया कि नर्सों का ड्यूटी रूम होता है। वो सारा दिन पेशेंट के साथ नहीं बैठतीं।

दीनानाथ जी के साथ वाला कमरा ड्यूटी रूम बनाया गया। दीनानाथ बेल बजाते। नर्स दीनानाथ के पास पहुँच जाती। दीनानाथ को यह अनुशासन और व्यवस्था थोडी बोझिल-सी महसूस हुई। वो चाहते थे कोई उनके साथ रहे। उनके अतीत की बातें करे। और दीनानाथ स्मृतियों को खोलते रहें रेशा-रेशा। कोई हो, जो उनके खालीपन को तोड़े। सन्नाटे में सेंध लगाए। ज़िंदगी की खलिश को शेयर करे।

लेकिन यह नर्स जैसे वॉलक्लॉक हो। ड्यूटी रूम में बैठ कर अंग्रेजी का नावेल पढ़ती रहती या फिर अपने बॉयफ्रेंड को फोन करती। बेशक, वो दीनानाथ की डाइट से ले कर इंजेक्शन तक सब बातों का ध्यान रखती। लेकिन दीनानाथ से नपे-तुले कुछ शब्द बोलती।

एक दिन दीनानाथ जी ने सुना। नर्स अपने बॉयफ्रेंड से कह रही थी कि बुड्ढा न सिर्फ सनकी है बल्कि सेक्स फ्रेस्टेटेड भी है।
दीनानाथ नर्स की बात सुन कर बौखला गए थे। वो तनाव में थे। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या करें? उन्हें लगा जैसे पल भर में वो बहुत छोटे, बहुत तुच्छ हो गए हैं। ऐसा विकार तो उनके मन में कभी नहीं आया था। उन्होंने सिर्फ यही चाहा था कि कोई हो जो उनकी तन्हाई को कम करे। उनके दुख को समझे- बस।

दीनानाथ जी अपनी पत्नी नित्या की मृत्यु के बाद बहुत अकेले पड़ गए थे। उन्होंने सोचा था नर्सें दोस्त जैसी होंगी। लेकिन ज़माना उनकी सोच से बहुत आगे निकल चुका था। लोग न सिर्फ प्रॅक्टीकल बल्कि यांत्रिक भी होने लगे थे। बाज़ारवाद ने संवेदना जैसा तत्व छीन लिया था। औऱ रिश्तों में डिमांड एंड सप्लाई का मंत्र घुस आया था।

उन्होंने दूसरी नर्स को भी बेदखल कर दिया।
दीनानाथ जी को पुराने दिन याद आते। उन्होंने स्तोन में पहाड़ों के ठेके लिए। पत्थर निकला... नीला। वो दिनों दिन अमीर होते चले गए। पीछ पलट कर नहीं देखा। खूब कमाया। लेकिन खर्च कहाँ करें, पत्नी नित्या सादगी पसंद। न गहनों का शौक न कपडों का। संतान हुई नहीं थी उनकी। संतान होती तो उस पर खर्च करते। खूब खर्च करते। बेशक, दीनानाथ खुद ठाठ से रहते थे। केवल बिहार में एक हजार गज में शानदार कोठी बनवाई। टोएटा क्राउन गाडी खरीदी। शान से जीते दीनानाथ। यार दोस्त थे। हंगामे थे। मस्ती थी। रंगीनी थी। महफिलें। जाम। शाम...

इसी शाम के पसःमजर वक्त उन्हें चिढ़ा भी रहा था- इस बात का इल्म उन्हें बाद में हुआ। और जब इल्म हुआ तो ज़िंदगी की रंगीन तितलियाँ उड़ चुकी थीं। उन्हें न सिर्फ डायबेटीज जैसी बीमारी ने अपना शिकार बना लिया, बल्कि बी.पी. हाई जो तीन सौ सत्तर तक जा पहुँचा था। कमर दर्द ने अलग परेशान कर रखा था। इन बीमारियों ने दीनानाथ जी की सारी चुस्ती छीन ली। काम लगभग ठप्प हो गया। दीनानाथ पर वक्त की मार यह भी पड़ी कि पत्नी नित्या, जिसे वो दिलोजान से चाहते थे- चल बसी।

बीमारियों का बोझ और अकेले दीनानाथ। वो चाहते थे कोई हमसफर न सही, हमखयाल ही होता। लेकिन उनके दोनों तजुर्बे नाकामयाब रहे। नर्सों ने उनकी देखभाल तो की, लेकिन ड्यूटी रूम में बैठ कर।

बाद में उन्होंने एक सर्वेंट रखा। नेपाली लड़का। खाना बनाता। दीनानाथ के पाँव दबाते हुए गप्पबाजी करता। डॉक्टर को बुला लाता। दवाई भी देता। लेकिन कई बार डोज 'मिस' हो जाती। यही उसकी सीमा थी। वो बार-बार यह भी कहता कि नौकरी पैसों के लिए कर रहा है। बूढ़े की सेवा भी उसकी नौकरी का हिस्सा है। यही बात दीनानाथ को विचलित किए रहती।

यही कोई बीस-बाइस दिन पहले नेपाली लड़के ने अपना ट्रंक सँभाला। महीने की पगार उसमें रखी और दीनानाथ को अलविदा कर दी।
दीनानाथ जी ने उसे रोकना चाहा तो उसने खरा-सा जवाब दिया, ''इस कोठी में वो बोर हो गया है।''

दीनानाथ जी को झटका-सा लगा। नेपाली लड़के के चले जाने के बाद, जिंदगी का यथार्थ, सीने में कील की तरह चुभता महसूस हुआ। एक गिलास पानी तक देने वाला कोई नहीं था। अकेलापन इतना तल्ख कि वो इस बड़ी-सी शानदार कोठी में डरे-डरे रहते। डर-सन्नाटे से। डर-अकेलेपन से डर बीमारियों से और सबसे बड़ा डर, अपने आप से।

दीनानाथ जैसे तैसे डबल रोटी चाय का नाश्ता, करते। दोपहर को डबलरोटी और रात को भी। इधर, शूगर बढ़ गई थी और बी.पी. हाई। चक्कर से आते। ठिठक जाते दीनानाथ। कभी ज़िंदगी कितनी मस्त-मस्त थी। शीवाज रीगल का लार्ज पैग ऑन दी रॉक्स पीते। अपनी कोठी के लॉन में बैठे-बैठे लाडपुर की पहाड़ियों को देखते। साल के दरख्त, आम के दरख्त, लीची के दरख्त-खूबसूरत साँझ और साँझ को वायलिन की लय में बदलने का हुनर जानते दीनानाथ।

ज़िंदगी इतनी मुश्किल, इतनी अकेली और इतनी तकलीफजदा भी होगी- उन्होंने कब सोचा था?
बदकिस्मती ऐसी कि गवर्नेस के लिए दिए गए विज्ञापन में जवाब आया तो मारिया का। इस बदसूरत बेडोल खिन्न पैदा करती औरत का।
वो मारिया के बारे में सोच रहे थे। सोच रहे थे और कुढ़ रहे थे। इस बीच मारिया आई। बोली, ''आप इंसुलिन डिपेंडेंट है न।''

दीनानाथ ने देखा मारिया सिरिंज में इंसुलिन की डोज़ भर कर खड़ी है। उसने दीनानाथ जी की जाँघ में इंसुलिन का टीका लगाया। चली गई।
उसके चले जाने के बाद दीनानाथ जी सोच में पड़ गए- इस औरत को कैसे पता चला कि मैं इंसुलिन डिपेंडंट हूँ? उन्हें तत्काल ध्यान आया। पुरानी नर्स ने मेडिसिन का रजिस्टर बनवाया था। इस औरत ने उसमें से पढ़ लिया होगा। खामख्वाह अपना भाव बढ़ा रही है।

इंजैक्शन लगाने के बाद मारिया, दीनानाथ जी के कमरे में नहीं आई थी। दीनानाथ जी ने तय किया कि अब इस औरत के बारे में नहीं सोचेंगे। बदसूरत है तो होती रहे। मैंने क्या करना है? एक-दो बार फिर 'एड' देंगे। कोई न कोई रिस्पांस देगा। किसी अन्य स्त्री को गवर्नेस के रूप में रख लेंगे। और इस औरत को तुरंत बाहर करेंगे। फिलहाल इसे निकालना मुनासिब नहीं। यह औरत चली गई तो फिर दूध और डबल रोटी पर ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी।

मारिया लंच ले आई। लंच की ट्रे को तिपाही पर रखते हुए बोली, ''सर जी, थोड़ी देर हो गई... कल से सब काम टाइम पर होगा।'' इतना कहते हुए उसने चिलमची को दीनानाथ जी के बिस्तर के पास रखा। झट से तौलिया ले आई। पानी का जग दीनानाथ के पास ले जा कर बोली, ''सर जी, हाथ धो लीजिए।''
दीनानाथ थोड़ा चौंक गए। इससे पहले किसी ने उनके हाथ नहीं धुलाए थे।

हाथ पोंछ कर उन्होंने खाने की ट्रे पर रखी दूसरी ट्रे को हटाया तो खुशबू-सी फैल गई। मूँग की धुली दाल, लौकी की सब्ज़ी, थोड़ा-सा सलाद, अल्युमिनियम फॉइल में रॅप की हुई तीन चपातियाँ... सेंधा नमक... नींबू।
वो खाना खाने लगे। अचानक उन्होंने नज़रें उठाईं। मारिया खड़ी थी। तुरंत बोली, ''सर जी, अभी चली जाऊँगी। मैं इसलिए खड़ी थी कि कुछ चीज़ की ज़रूरत हो तो...'' इतना कहते-कहते हुए वो चली गई।

खाना अच्छा था। बहुत अरसे बाद उन्होंने स्वादिष्ट भोजन किया था। उनका मन था कि एक चपाती और माँग लें खाने के लिए। लेकिन मारिया से चपाती माँगना उन्हें अपनी कमज़ोरी जैसा लगा। और उसके सामने वो कमज़ोर नहीं दिखना चाहते थे। लेकिन इतना ज़रूर पूछा कि घर में दाल और सब्ज़ी तो थी नहीं। फिर ये चीज़ें कहाँ से आ गईं?
''सहस्त्रधारा मोड़ से ले आई थी।'' मारिया ने कहा। आवाज़ में वही विनम्रता। वही सादगी।
''लेकिन पैसे?''
''मेरे पास थे।'' मारिया ने कहा और तिपाई पर रखी खाने की ट्रे उठा कर चली गई।
दीनानाथ सो गए। दो-ठाई घंटे बाद उठे। उन्होंने अपने आपको समझाया- दीनानाथ, अजनबी औरत पर इतना ज़्यादा विश्वास करना ठीक नहीं। अभी एक दिन भी नहीं हुआ। कौन जाने कैसी है? तुम सोये रहो और वो घर खाली करके चली जाए।

रात को खाना खाने के बाद दीनानाथ बिस्तर पर पसर गए। मारिया ने मेनगेट का ताला लगाया और चाबी दीनानाथ के पास रख दी।
सुबह जब दीनानाथ उठे तो उन्हें सबसे पहले यही खयाल आया कहीं वो औरत घर लूट कर तो नहीं चली गई? लेकिन सब कुछ सही सलामत था। दीनानाथ स्टिक के सहारे बाहर आँगन में चले आए। मारिया सूखी हुई बगीची में से खरपतवार निकाल रही थी। खुरपी से ज़मीन खोद रही थी। दीनानाथ को देख कर ज़रा-सा मुस्कराई। गुडमॉर्निंग की। जिसका जवाब देने की जरूरत दीनानाथ जी ने नहीं समझी।

खुरपी से ज़मीन को खोदते हुए मारिया बोली, ''सर जी, एरोकेरिया और मौरेया के पौधे लगवा लेते हैं।''
''किसके लिए?'' दीनानाथ ने पूछा। फिर कहा, ''तुम तो यहाँ दो-चार दिन के लिए हो।''
''मैं अपने लिए नहीं कह रही सर जी।'' मारिया ने हँसने की कोशिश की। फीकी-सी हँसी हँस दी।
''फिर किसके लिए कह रही हो?'' दीनानाथ ने शुष्क लहजे में सवाल किया।
''आपके लिए सर जी! मौरेया की खुशबू बहुत अच्छी होती है। आपको उसकी भीनी-भीनी खुशबू बहुत सुहाएगी। सर जी, मैं इस ज़मीन की गुड़ाई करके पानी से ज़मीन तर कर दूँगी। मेरे चले जाने के बाद आप पौधे ज़रूर लगवा लेना।'' मारिया ने सादगी से कहा। उसके चेहरे पर अजीब-सा दुख उभर आया।

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