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उस सुबह हर पल, अमन से बिना मिले दार्जिलिंग आने के लिए मन कचोटता रहा। जो बच्चा मुझे माँ बनाकर सदा के लिए मेरी गोद में खेलना चाहता था, उससे जब मैं यह कहती कि, ''धत! मैं तुझे लिए बैठी रहूँगी, तो हस्पताल के दूसरे बच्चे मेरा मुँह तकेंगे?'' तब बड़े प्यार से आँखें बड़ी करके उत्साह से बोलता, ''अरे नहीं बाबा! तुम सबको ठीक करना... मैं तुम्हारे पीछे तुम्हारा बैग लेकर चलूँगा।'' और हम दोनों की हँसी के साथ उस कमरे में रंग गूँज उठते। उसी अमन के अब पाँव कटने को है? सच, विधाता से बड़ा शत्रु, मनुष्य का और कोई कभी बन सकता है?

दिन में बैठी-बैठी, साग करने के लिए चोलाई-पत्ते बिंदारने बैठी। उसमें मन नहीं लगा तो मालती से यात्रा के लिए बैग ठीक करने कहा। कहना भर था कि बस! वह दुर्गा! दुर्गा! करती विस्मय ही बिखेरती रही पूरे दिन कि ऐसा ही मोह माया क्यों है मेरा। दूसरी तरफ से जब रायन को आते देखा, तो उसी से उलझ पड़ी।

''एई तो, रायन दादा! तोमार देवी माँ, चौले जाच्छेन काल के ई। ऐमौन माथा कादेर देखी ना। एबार जे काल थेके, शेई ना शुए, आर ना खेई थाकबेन आर की। निजेर शास्थो देखे ना, शुदू जौगौतेर चिंता निए बोशबेन। ऐमोन जा काज होए? किंतु आमार बौलले की लाभ? आपनी जौदी पारेन, एकटू जौत्नो कौरे देखून। एई रौकोम कि ओनादेर जौर ठीक होने?''
(ओ रायन भैया, तुम्हारी देवी माँ तो चली जा रही है कल ही। ऐसा माथा तो किसी का नहीं देखा। कल से बस वही, न खाने और न सोने का सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा। पूरे जगत की चिंता लिए बैठी है, किंतु स्वयं अपना स्वास्थ्य नहीं देखती। ऐसे क्या काम किया जाता है? लेकिन मेरे बोलने या न बोलने से फर्क ही क्या पड़ता है? तुम्हीं से अगर हो, तो एक बार रोकने की कोशिश करो, नहीं, ऐसे क्या उनकी बिमारी ठीक होगी?'')

अपनी रौ मैं बोलती मालती की बड़ी देर तक चौके से कुछ-कुछ आवाज़ आती रही। और रायन? रायन जैसे काट खाया-सा बस आँखें नीची किए बैठा रहा। अंत में मुझे ही चुप्पी से हारना पड़ा।
''अरे! आज फिर से पढ़ाने की छुट्टी है क्या? या गोलचौक में अभी तक पानी भरा है?''
तब भी मैंने उसे कुछ कहने का अवसर न दिया। तो क्या वह कुछ कहने आया था? अगर हाँ तो क्या?

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बरसों से कलकत्ता में हूँ। दार्जिलिंग नहीं गई। कलकत्ता की सड़कें अब बड़ी थकान साथ लिए दिखती है मुझे! दमा भी तो बढ़ गया है। अब कहाँ पहले जैसी फुर्ती रही। जो झटपट ७ बजे 'बाल विकास' पहुँच जाऊँ? हस्पताल पहुँचते-पहुँचते ९ तो बज ही जाते हैं। आज भी 'बाल-विकास' में कदम रखते ही बिशन ने आदतानुसार पहले महकते चंपई फूल दिए और प्यारी मुस्कान के साथ मेरी व्हीलचेयर ले आया। सुहास की मदद से कुर्सी पर बैठती हूँ, किंतु मुखड़ा निर्विकार रखने पर भी सुवास को हलकी दर्द वाली उच्छैवास का भान हो ही जाता है। औऱ, आज फिर...
''मौसी, इस बरस आप एक बार दार्जिलिंग हो ही आइए। ८ बरस बीत गए आपको वहाँ गए। घर भी ऐसे ही पड़ा हुआ है। और इस बार, मैं बिल्कुल नहीं सुनूँगा आपकी।''
''अच्छा! और मैं क्या करूँगी वहाँ?'' मेरी छोटी मुस्कान भी सुवास को रोक नहीं पाती...
''अरे, आपका दमा कितना बढ़ा हुआ है, इसका आभास है आपको? और फिर जो तो 'बाल-निकेतन' वाले आपको कितनी बार बुला भी तो चुके हैं।''
''हाँ सुहास। किंतु सोचो तो इतने बरसों में वह प्रदेश कितना बदल गया है। मालती भी तो किसी और ही जग में बिना संदेसा दिए, सदा के लिए चली गई... ऐसे में मैं वहाँ कहाँ फिर होउँगी?''
''पर मौसी, आपका कितना सुंदर मकान है वहाँ। सुना है किसी बौद्ध-मठ के सचिव रायन नाम के विदेशी ने आपके नाम से वहाँ एक अनाथालय खोला है आपकी जन-सेवा से प्रेरित होकर और आप इतनी उदासीन बातें कर रही हैं... 'बाल-निकेतन' वाले भी तो आपको बतौर व्यवस्थापक बुलाने के लिए आतुर हो रहे हैं।''
''तुमसे कोई आज तक जीता है सुहास?''
''नहीं, ऐसे ही तो आपको माँ सी नहीं मानता।''

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मुझे विशेष रूप से निमंत्रित किया गया है अनाथालय के एक कार्यक्रम में जिसका निर्माण रायन ने मेरे नाम पर किया है। धुंध उड़ाती हरे पत्तों वाली चूनर, सदा से दार्जिलिंग की धरोहर रही है पर अब इस बावन वर्ष की उम्र में शरीर के साथ हरियाली भी कितनी धूमिल और बेबस-सी ही लग रही है। और मन? मन के जो विचार हैं, वे तूफान की भाँति घरघराते हुए से, मुझे स्वयं में खो देने के लिए बढ़े आ रहे हैं। जो किशोरावस्था में, यौवन-वसंत में कभी विचलित न हुआ वही ह्रदय मेरा, सारे बाँध तोड़ डालने के लिए विचलित है। रायन आज बौद्ध-मठ का सर्वेसर्वा है। सबके आदर और श्रद्धा का स्रोत है। उस स्रोत से अब करुणा और जन-हित का झरना बहता है।

अनाथालय में जैसे प्रेम और सुरक्षा की छत तानी है रायन ने इन बच्चों के लिए। लगता है जैसे एक परिवार जन्मा है। जहाँ मैं माँ हूँ रायन पिता है और ये बच्चे हैं छोटी छोटी आँखों विशाल भविष्य का सपना संजोए। जैसे कलकत्ता की थकान हवा बनकर उड़ रही है जैसे गुज़रा हुआ वसंत लौट रहा है जैसे जीवन का उत्साह फिर से जन्म ले रहा है। न जाने कितना समय बीत गया है इन बच्चों के बीच। यह बच्चों से मिलने की खुशी है या रायन से सान्निध्य की समझ नहीं पाती हूँ। इन अनाथ बच्चों के बीच जैसे मैं अपने जीवन की कड़ियाँ जोड़ रही हूँ। यहाँ बहते हुए झरने में प्रेम और संग की लड़ियाँ खोज रही हूँ! उसे छूने के लिए मानो उँगलियों के पोर नर्म हुए जा रहें हों... पसीजे जा रहे हों... मेरी बंद आँखें सिर्फ रायन की भौचक्की खुली आँखों को ही देखती है। कार्यक्रम के बाद भोजन हो जाने पर रायन ने जीवन भर का चुप तोड़कर केवल एक प्रश्न पूछा- चलें, मठ पर कुछ देर शांति से बैठें।

जीवन का सारा वसंत पार कर के आयी हूँ। इस वेला में जब सारा जीवन मौन बीता अब क्या कहना है बैठना तो शांति में ही है। एक शिला पर वह दूसरी पर मैं प्रकृति के विशाल विस्तार में स्वयं को खोजते हुए या एक दूसरे को खोजते हुए। हमारे चारों ओर हमारे प्रशंसकों की भीड़ का एक सागर है, हमारे चारों ओर हमारे कार्यों निरंतर निर्मित एक चौकस बाड़ है वह हमें एक दूसरे को खोजने नहीं देगी। हम इस संसार की नदी के दो किनारे हैं जो इस संसार को सहारा देंगे। हम एक दूसरे को देखकर जीवन पाते हैं नदी के लिए स्वस्थ खड़े रहते का। हमें साथ तो रहना ही होगा। भले ही दो अलग छोरों पर।

शायद रायन भी यही सोच रहा है। वह पहले की तरह आँखें झुकाकर बात नहीं करता है। वह सिर उठाकर बात करता है- "लंबी सर्दियों के बाद इस बार दार्जिलिंग में वसंत आया है। अच्छा हुआ वापस आ गयीं। बच्चों की देखभाल तुमसे बेहतर कौन कर सकता है। कलकत्ता के अस्पताल को संभालने वाले बहुत से लोग हैं पर यहाँ अनाथालय को संभालने वाला कोई नहीं। सुहास और भारती तुम्हारी सेवा में रहेंगे। बहुत पहले कुछ कहना चाहता था। पर साहस नहीं हुआ। मैं ठहरा भिक्षुक, इतना समर्थ नहीं था कि तुम्हारी जैसी कर्मठ डाक्टर, पत्रकार और समाज सेविका के लिए घर बना सकूँ पर अब तुम्हारे नाम का एक घर बनाया है। मेरे कामों की सराहना करती हो तो इस घर की देखभाल रखना। मुझे लगता है एक दूसरे का साथ हमें प्रेरित और उत्साहित रखता है। रह सकोगी दार्जिलिंग में? सर्दियाँ सहन न हों तो कलकत्ता चली जाना फिर आ जाना वसंत के उतरते ही।" रायन कहीं दूर देखता हुआ कह रहा था।

मेरी आँखें तरल हो उठीं शायद रायन की भी तभी तो वह दूसरी ओर देख रहा था।

दूर दूर खड़े दोनों तटों को सद्भावना का पुल जोड़ रहा था। बर्फ की नदी पिघल चुकी थी और वसंत उस पुल से होकर लौटने को था। क्या सचमुच लौटेगा वसंत?

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१५ फरवरी २०१०

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