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ससुराल में बरसों दुर्गति भुगतने के बाद ही वे आ पाईं थीं पिता के घर, आश्रय पाने यानी इसी हवेली में। कोई दस बरस पहले। तब हवेली में माँ थीं, भाई था। पुराने नौकर-चाकर थे। भाई मानसिक रोगी था। दुष्‍ट और दारूबाज भी। माँ बूढ़ी और बीमार सी। हवेली उजड़ी हुई और वीरान। नौकर-चाकर बेलगाम। उनके आते ही हवेली की हालत सँभलने लगी। देखते ही देखते जीवंत हो उठी हवेली। बिल्‍कुल उनके स्‍वर्गीय पिता के दिनों की तरह। बहनें उनकी आसपास के शहरों में ही ब्‍याही गई थीं। अब मायके आतीं तो प्रशंसा करते न थकतीं। बहनों के पति आते, बच्‍चे आते, ससुराली रिश्‍तेदार आते। हवेली गुलजार हो जाती। उनकी छाती भर आती। ये सब हैं मेरे अपने। जीवन की साँझ अब इनहीं अपनों के बीच गुजारूँगी। दौड़-दौड़कर उनके खाने-पीने का प्रबंध करतीं। उनके सोने का। उनके मनोरंजन का। उनके भरपूर सत्‍कार का।

लेकिन जब वे इन्‍हीं अपनों के लिए सौदा सुलुफ करके, भारी भरकम थैले उठाए हाँफती-हाँफती घर लौटतीं तो पाती कि माँ को घेरे बैठी बहनें जाने क्‍या खुसर-फुसर गुप्‍त मंत्रणा कर रही हैं।

फिर धीरे-धीरे झलकने लगी उनके प्रति उपेक्षा, तिरस्‍कार। माँ का मुँह भी सूजा रहने लगा, उनकी घोर सेवा के बावजूद। एक रात सब सपरिवार आईं और उन पर चढ़ ही बैठीं, 'तुम तो लगता है माँ के प्राण लेने ही आई हो यहाँ। जब जानती हो कि माँ के प्राण इसी भाई में बसे हुए हैं तो हर समय क्‍यों उसे डाँटती रहती हो?'

डाँटना! मेरा बस चले तो इसे मैं हंटरों से पीटूँ। यह पागलों से ज्‍यादा बदमाश और दुष्‍ट है। मेरे सामने खड़े होकर पेशाब करता है। सबेरे उठती हूँ तो देखती हूँ, पूरे आँगन में जहाँ-तहाँ पाखाना कर दिया है।'

करेगा, उसके बाप का घर है। जहाँ मर्जी पेशाब करेगा। जहाँ मर्जी पाखाना करेगा, तू उसको मोटी-मोटी रोटी बनाकर क्‍यों देती है? कभी खाया है वह ऐसी मोटी रोटी? पगला-भुतहा है, इसलिए बेचारे को कुछ भी बनाकर खिला दोगी? वह तो बदला लेगा।'

तुम लोग क्‍या खुद भी पागल हो गई हो?' वे एकबारगी ही चीख पड़ी थीं, अपने से उन छोटी बहनों पर। वह माँ से पैसे झींटकर दारू ले आता है, बर्तन बेचकर गाँजा-चरस पी आता है, मुझे और माँ को भद्दी-भद्दी गालियाँ बकता है।'
माँ के पैसे झींटता है, माँ के बर्तन बेचता है, माँ को भद्दी-भद्दी गालियाँ देता है, तो माँ तो कभी बुरा नहीं मानती। फिर क्‍या हम लोगों को नहीं देता था गालियाँ? हम लोग कैसे सब सह रहे थे यहाँ।'

क्‍यों सहते थे तुम लोग, ऐसे दुष्‍ट हरामखोर को?'

क्‍यों नहीं सहेंगे? हमारा सगा भाई है। हमारा खून है। माँ की जान है। माँ इस घर की मालकिन है। इस घर में रहना है तो यह सब सहना पड़ेगा।'

अरे शरम करो ... यह पड्रोसिनों के सामने अश्‍लील हरकतें करता है, अब किया तो मैं इसे सीधे पुलिस में दूँगी।'

हाँ, अब आई तुम्‍हारे पेट की बात जुबान में। बेचारे पागल भाई को पुलिस में देकर पागलखने भिजवाएगी। बीमार माँ का अकेले में टेंटुआ दबा देगी और फिर पूरी हवेली पर कब्‍जा करेगी।'

और उनका भेजा उड़ गया।
हाँव-हाँव करता एक पूरा का पूरा गिरोह-बहनें, उनके पति, उनकी संतान और साथ में माँ भी। दूसरी तरफ वे अकेली, उन्‍हें लगने लगा, जैसे सचमुच में उन्‍होंने कोई जघन्‍य पाप कर डाला। वे भागी वहाँ से। दूर परदेश में रहने वाले बड़े भाई से फोन में रो-रोकर सब बताया। उसका वही ठंडा जवाब - भई, उस घर में रहना है तो यह सब तो सहना पड़ेगा। मैं बहुमत के खिलाफ नहीं जा सकता।

वे हतवाक रह गईं। छाती पर पत्‍थर रखा उन्‍होंने। पत्‍थर क्‍या पहाड़! अपने आप को सँभाला। थोड़ी ही दूर में एक झोपड़ी थी, वहीं पनाह माँगी। पड़ोसियों ने सब कांड देखा था। कुछेक ने मदद भी की। किसी ने पुराना स्टोव दिया। किसी ने पुराने टूटे-फूटे बर्तन। किसी ने सोने के लिए एक पुरानी चटाई। किसी ने पुराने कपड़े। एक बर्बाद भिखारिन सा जीवन। मगर जी गईं वे। हफ्ते भर में छोटा-मोटा कारोबार भी शुरू कर दिया। मेहनती तो थीं ही। देखते-देखते कारोबार चल निकला। उनके काम की प्रश्‍ंसा होने लगी। उनके स्‍वभाव की, उनके हिम्‍मत की भी। सेवाभावी शुरू से थीं।

परिचितों की मुसीबत में जाकर खड़ी होतीं। मदद करतीं। धीरे-धीरे समाज सेवा से जुड़ी संस्‍थाएँ स्‍वयं आगे बढ़कर उन्‍हें अपने से जोड़ने लगीं। धीरे-धीरे ख्‍य‍ाति बढ़ने लगी। परिवार से निकाली गईं, पर पूरा शहर उनका अपना हो गया।

कि एक दिन पड़ोसिनें चिंति‍त सी आकर निहोरा करने लगीं, 'दीदी, जाइए न .. एक बार अपने पागल भाई को देख लीजिए। बहुत चिल्‍ला रहा है, हम लोग तो रात भर सो ही नहीं पाए हैं।'

वे आवाक रह गईं, 'माँ नहीं है क्‍या वहाँ? बहनें नहीं आतीं अब?'

कोई नहीं आता दीदी। कुछ दिन पहले आपकी माँ शायद ज्‍यादा बीमार थीं। शहर से आपकी बहनें आई थीं। बिल्डिंग में जहाँ-तहाँ ताला मारीं और गाड़ी में माँ को डालकर छू हो गईं। पागल भाई के लिए किसी होटल वाले को कह दिया था। मगर लगता है, उस होटल वाले को पूरा भुगतान नहीं हुआ है या क्‍या, पागल बहुत कलेजा फाड़-फाड़कर चिल्‍लाता रहा है रात भर ..।'

वे फौरन दौड़ीं। भाँय-भाँय करती हवेली के भीतर अपने पलंग पर अपने खिचड़ी बाल फैलाए, दाढ़ी बढ़ाए, कब्रिस्‍तान के मसान सा बैठा था वह पागल भाई। लप-लप करता पेट। बोलीं, 'क्‍या हो गया था तुझे जो .. ? क्‍यों चिल्‍ला रहा था?'

भाई बोला, 'भूखा हूँ कई दिनों से।'

उनका कलेजा फट गया। फौरन पलटीं। दस मिनट के भीतर ही खिचड़ी बना कर ले आईं। उसके पलंग के सामने ही ढक से जमीन पर थली रख दी, 'ले खा।'

वह जमीन पर बैठकर थाली टटोलने लगा। भाई की हालत देखकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसका हाथ पकड़कर थाली पर रखा। बोलीं, 'एक मिनट रूक। मैं पानी लाती हूँ, हाथ धो ले।' पर वह कहाँ रूकता? थाली हाथ में आते ही हबर-हबर खाने लग गया। आँसू पोछकर बोलीं, 'तूझे दिखता नहीं बाबू?'

नहीं।'
कब से?'
काफी दिनों से।'
तब तू भी माँ के साथ क्‍यों नहीं चला गया?'
ले नहीं गए। माँ के पास पैसा है। मेरे पास क्‍या है!  अगर तू खाना नहीं लाती तो मैं भूखा मर जाता।'
खिलाऊँगी भैया मैं तुझे। नहीं मरेगा तू भूखों की तरह।'

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