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सोफे पर बैठती बैठती नेहा ने कहा , ''आन्टी आपको पता है, मम्मा अमेरिका चली गईं।''
''तो इसमें क्या हुआ। शायद उनके मामा वहाँ रहते हैं न। ऐसा ही कुछ तो वह बता रही थी।''
''नहीं आंटी यह बात नहीं है। दरअसल उन्हें इस उम्र में ऐसा नहीं करना चाहिए था।'' और यह कहती कहती वह सुबकने लग गई। मैं सोचने लगी क्या कर दिया सविता ने। क्या अपनी सब प्रापर्टी वह बेच गई या उसने और किसी के नाम वसीयत कर दी। सुधीर ने उसका ही नामांकन तो करा रखा था। क्यों सविता ने अपने बच्चों को दुखी किया।

नेहा के होंठ बार बार खुलने को होते लेकिन वह उन्हें भींचती जाती।
एक डाक्टर होकर भी उसे किस बात का संकोच है कि वह अपनी माँ को लेकर एक साथ आक्रोशित और रहस्यमयी है। मन कहता है सविता ने ऐसा कुछ नहीं किया होगा जिससे नेहा और भाई बहनों को शर्मसार होना पड़े। फिर भी जब नेहा कुछ कहने पर आमादा है तो कहीं कुछ ऐसा वैसा कर ही न दिया हो।

अचानक नेहा ने मुँह से शब्दों को थूकते हुए कहा , ''मम्मी ने शादी कर ली'' और दोनों हाथों में सिर ढाँपकर वह फिर बिसूरने लगी। गला साफ करती हुई अटक अटक कर फिर बोलने लगी। ''आंटी, मम्मा ने तो हम लोगों की नाक कटा दी। छोटी बहन होस्टल वापिस नहीं जा रही है।''

डाक्टर नेहा ने अपना हाथ मेरे हाथों पर रख दिया। मैंने उसे अपने में भींच लिया। हम दोनों एक दूसरे को अपलक देखते रहे। मैं लेकिन सविता के साथ थी। उसके बच्चे उससे नाराज हैं, तो क्या हुआ। मैं उन्हें समझाने की कोशिश करूँगी। फिर भी मैं सतर्क थी कि ऐसी वैसी कोई बात मुँह से न निकल जाय।
''शादी क्या तुम लोगों को बताकर नहीं की?''
''आंटी, मम्मी बहुत झगड़ा कर के गई हैं। हम सब भाई बहन इस शादी के खिलाफ थे। आखिर हमने अपनी माँ तो खो ही दी।''
''नेहा , सच बताओ! तुम अपनी माँ को प्यार तो करती हो न ?''
''हाँ S S S आंटी , लेकिनउनकी शादी के बाद हमें उन पर बहुत गुस्सा है।''
''अच्छा बताओ! तुम बच्चों ने सविता के जीवन के बारे में कभी कुछ सोचा था? कभी बैठकर बात की थी उससे? कभी उसे समझने की कोशिश की? कितनी मुसीबतें उठाकर उसने तुम सबको अपने अपने पैरों पर खड़ा किया। कुछ नहीं बचा उसके पास सिवाय उसके एकान्त के।''

मेरी बात का डाक्टर पर कोई अनुकूल असर नहीं पड़ा। उसने सूनी आँखों से मेरी तरफ देखा। और वह धीरे धीरे बाहर निकल गई।

तीन महीने बीत गये। मौसम में ठंड घुलने लगी थी। प्रौढ़ होती बरसात की तरह सविता की याद कभी कभार आ जाती। उस दिन हम गुनगुनाती धूप में लॉन में बैठे थे। पोस्टमैन डाक में एक खत भी छोड़ गया , जो अमेरिका से आया था। धूप के बावजूद लिफाफा खोलते खोलते मैं सविता की यादों की बरसात में भीगने लगी। उसने वह सब लिखा होगा जो उसके मन में बीते महीनों में बादलों की तरह घुमड़ गया होगा। तभी तो वह मुझे अपना शाक एब्जार्बर कहती थी। मेरी अँगुलियाँ खत को पकड़ने की कोशिश में सविता की भावनाओं की तरह फड़फड़ाने लगीं।


हृयूस्टन
२ सितम्बर २००१

''मेरी अच्छी निशा,

तुम बहुत नाराज होगी कि मैं अचानक कहाँ गायब हो गई। सब कुछ इतनी तेजी से एक हादसे की तरह घट गया। मैं पत्ते की तरह अपनी पहचान से अलग होकर अपरिचित आकाश में उड़ गई। तुम्हें किस्सा तो मालूम हो ही गया होगा। पता नहीं किसने बताया हो। और शायद नमक मिर्च भी लगाकर।
बच्चों को मेरी जरूरत कहाँ रह गई थी। उनके साथ रहने के लालच में लखनऊ तबादला कराने का मेरा फैसला मुझमें पारा बनकर रेंगता रहता। सुधीर के जाने के बाद जो कुछ हुआ तुमसे ज्यादा कौन जानता है। तुमने ही मना किया था कि बहुत ज्यादा बच्चों का भरोसा नहीं करना। निशा, उम्र जब पकती जाती है, तब भी देह में आकांक्षाएं कच्ची ही रह जाती हैं। एकांत उन्हें विद्रोह करने पर उकसाता रहता है।

तुम कैलाश मामा को तो जानती हो न। उनके बैंक में जगदीश उनके साथ साथ काम करते थे। रिटायरमेन्ट के कुछ पहले जाने किस संयोग के लिए वे विधुर हो गये। कैलाश मामा ने उनसे बात की होगी। अचानक लखनऊ पहुँचे जगदीश ने अपने होटल से एक दिन फोन किया। बच्चे घर पर नहीं थे। फोन मैंने ही उठाया।

''हलो मैं जगदीश अरोरा बोल रहा हूँ । क्या मैं सविता सक्सेना जी से बात कर सकता हूँ।''
जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं घर पर अकेली हूँ तो जगदीश ने नपे तुले शब्दों में लेकिन दृढ़ निश्चय के साथ अपने आने का मकसद मुझे बता दिया। निशा निश्चय में जाने कैसा सम्मोहन होता है कि अपना अनिश्चय सहेजे मैं जगदीश के बुलावे पर थोड़ी ही देर में उनके होटल पहुँच गई। तुम सच मानो वहाँ क्या हुआ, मुझे कुछ समझ नहीं आया। छह फुट की आकर्षक कद काठी के जगदीश ने टेलीफोन पर कहे शब्द ही दुहरा दिये। आत्मविश्वास के साथ उन्होंने अपना दाँया हाथ बढ़ाया। मुझसे पूछे बिना मेरी दाँई हथेली उनके हाथ में गुम हो गई थी। हम दोनों केवल हाथों का सम्वाद सुनते रहे। जगदीश ने सोचने का मौका ही नहीं दिया।

ये एक हफ्ते से ज्यादा नहीं रुक सकते थे। अब मुझे छेड़ते हैं कि मेरी हालत जानते तो चौबीस घंटे में ही ब्याह लेते। बच्चों तक को फैसले के बारे में ठीक से नहीं बता पाई। संयम का बाँध भावना की नदी में बह गया। वैधव्य , मातृत्व जैसे मुहावरे साथी की तलाश की प्यास को नहीं तृप्त कर पाये। मैं बच्चों को मंजिल बनाना चाहती थी। लेकिन वे मुझे पड़ाव तक नहीं बना पाये। मेरा मातृत्व रिश्तों का रैन बसेरा बनकर जागता रहा। सुबह तेज धूप निकलती थी। सामने जिन्दगी का विशाल मरुस्थल अंधड़ों के थपेड़े चलाता रहता। शायद तुम ही समझ पाओगी निशा, जगदीश मेरा मरुद्यान हैं - - -

इस खत में शायद बहक रही हूँ निशा। क्या औरत को माँ बन जाने के बाद औरत बने रहने का अधिकार नहीं रह जाता। हम औरत पहले बनते हैं और बाद में माँ। तुम चाहे जो भी समझो निशा माँ होना औरत की भूमिका है। लेकिन औरत बने रहना उसके जिन्दा रहने का चरित्र। मुझे गुमान है कि मैंने औरत होने के चरित्र का शृंगार किया है। माँ की पोशाक मेरे वार्डरोब में अब भी हैं। जब भी हिन्दुस्तान आऊँगी, वही पहनूँगी। बच्चों को माँ की कमी महसूस नहीं होगी। लेकिन जो कुछ मैंने किया है, उसके कारण मैं बच्चों याद को बहुत गहाराई से महसूस करती हूँ, उनकी कमी महसूस नहीं करती। तुम बच्चों को सम्हालती रहना। सुधीर की यादें मेरे फैसले के साथ हैं। पत्र तो लिखोगी न !

तुम्हारी
सविता

मेरी काँपती हुई अँगुलियाँ स्थिर हो गई हैं। उनमें फँसा वह खत भी। सविता मैं तो सदैव तुम्हारी ही तरफ रही हूँ।

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२८ जून २०१०

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