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नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद के लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आँखें थी। इतनी साफ नीली आँखे केवल छोटे बच्चों की ही होती हैं। इस पर साफ गोरी त्वचा। पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएँ उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगीस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता। अपना खरीदारी का थैला बैंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिये बैठ गई। वह अँग्रेज नहीं थी पर टूटी फूटी अँग्रेजी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी।

“मेरा पति भी भारत का रहने वला है, इस वक्त घर पर है, तुम से मिलकर बहुत खुश होगा।"

मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंगलैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिन्दुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं। वहीं पर सैंकड़ों बस भी गये हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज के इलाके मैं कोई हिन्दुस्तनी क्यों आकर रहने लगा होगा। कुछ कोतुहल वश, कुछ वक्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया।

“चलिये, जरूर मिलना चाहूँगा।" और हम दोनों उठ खड़े हुए।

सड़क पर चलते हुये मेरी नजर बार बार उस महिला के गोल मटोल शरीर पर जाती रही। उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहाँ इसके साथ बस गया है। संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी। इसकी नीली आँखों ने कहर ढाये होंगे। हिन्दुस्तानी मरता ही नीली आँखों और गोरी चमड़ी पर ही है। पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लग था। पचास पचपन की रही होगी। थैला उठाये हुए सांस बार बार फूल रहा था। कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में। मैने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे।

“आप भी कभी भारत गई हैं?" मैंने पूछा।

“एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं।"

“लाल साहब तो जाते रहते होंगे?"

महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा "नहीं, वह भी नहीं गया। इसलिये वह तुम से मिल कर बहुत खुश होगा, यहाँ हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं।"

तंग सीढ़ियाँ चढ़ कर हम एक फ्लैट में पहुँचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दिवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ रखीं थीं। दिवार पर जहाँ कहीं कोई टुकड़ा खाली मिल था, वहाँ तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टाँग दिये गये थे। उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने , सांवले रंग और उड़ते सफेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बाँच रह था।

“लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो। तुम्हारे एक देशवासी को जबर्दस्ती खींच लायी हूँ।" महिला ने हँस कर कहा।
वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कोतुहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया।

“आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई। मुझे लाल कहते हैं, मैं यहाँ इंजीनियर हूँ। मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं।"

ऊँचे, लंबे कद का आदमी निकला। यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है। शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था। दोनों कनपटियों के पास सफेद बालों के गुच्छे से उग आये थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफेद बाल उड़ से रहे थे।

दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि असने सवालों की झड़ी लगा दी। "दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?" उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा।
“हाँ। बदल गया है। आप कब थे दिल्ली में?"
“मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूँ। यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूँ। रहने वाला तो मैं पंजाब का हूँ, जालन्धर का। जालन्धर तो आपने कहाँ देखा होगा।"
“ऐसा तो नहीं, मैं स्वंय पंजाब का रहने वाला हू। किसी जमाने में जालन्धर में रह चुका हूँ।"
मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाहों में भर लिया।
“ओ लाजम! तूं बोलना नहीं ऐं जे जलन्धर दा रहणवाला ए?"

मैं सकुचा गया। ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा। पर वह सिर से पाँव तक पुलक उठा था। इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज तेज चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिये अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी।

“हेलेन, यह आदमी जलन्धर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं।"

उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आँखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी।

“मैंने ठीक ही किया ना," महिला कमरे में आते हुए बोली। उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी। बड़ी शालीन, स्निग्ध नजर से उसने मेरी और देखा। उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है। वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आकर बैठ गई।

“लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था। आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे….."

वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बाँधे मेरी और देखे जा रहा था। उसकी आँखों में वही रुमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहने वाले हिन्दुस्तानी की आँखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है। हिन्दुस्तानी पहले तो अपने देश से भगता है और बाद से उसी हिन्दुस्तानी के लिये तरसने लगता है।

“भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गये, आपकी श्रीमती बता रही थी। भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?"

और मेरी नजर किताबों से ठसाठस भरी अल्मारियों पर पड़ी। दिवारॊं पर टँगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे। उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गयी थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो।

“लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालन्धर में रहते हैं। कभी-कभी उनका खत आ जाता है।" फिर हँसकर बोली, "उनके खत मुझे पढ़ने के लिये नहीं देता। कमरा अन्दर से बंद करके उन्हें पढ़ता है।"

“तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!" लाल ने भावुक होते हुए कहा।

इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई।

“तुम लोग जालन्धर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूँ।" उसने हँसके कहा और उन्हीं कदमों रसोई घर की और घूम गई।

भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचन्भा भी हो रहा था। देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था।

“मेरे एक मित्र को भी आप ही कि तरह भारत से बड़ा लगाव था," मैंने आवाज को हल्का करते हुए मजाक के से लहजे में कहा, "वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था। उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पाँव रख पाऊँगा।"

कहते हुए मैं क्षण भर के लिये ठिठका। मैं जो कहने जा रहा हूँ, शायद मुझे नहीं कहना चाहिये। लेकिन फिर भी घृष्टता से बोलता चल गया, " चुनांचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवाकर हवाईजहाज द्वारा दिल्ली जा पहुँचा। उसने खुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था। हवाईजहाज से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ गायब था…"

बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गयी थी, जैसे अतीत की अँधियारी खोह में से दो आँखें मुझ पर लगी हों।

“उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है," उसने धीरे से कहा, "दिल की साध तो पूरी कर ली।"

मैं सकुचा गया। मुझे अपना व्यवहार भोंडा सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था।

वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था। फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ- ऐसे मौके तो रोज रोज नहीं आते। इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे।" और पीछे जा कर एक अलमरी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया।

जाम में कोन्याक उड़ेली गई। वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराये।

“आपको चाहिये कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें। इससे मन भरा रहता है।" मैंने कहा।

इसने सिर हिलाया "एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊँगा।" शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था। मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, "मैं घर से भाग कर आया था। तब मैं बहुत छोटा था। इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आये हैं, "वह ठोड़ी देर के लिये पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा देकर वर्तमान में लौटा लाया। "जिंदगी में कभी कोइ बड़ी घटना जिंदगी का रुख नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनायें ही जिंदगी का रुख बदलती हैं। मेरे भाई ने केवल मुझे डाँटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो……..और मैं उसी रात घर से भाग गया था।"

कहते हुये उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला "अब सोचता हूँ, वह एक बार नहीं , दस बार भी मुझे डाँटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता। कम से कम कोई डाँटने वाला तो था।"

कहते कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गयी, "बाद में मुझे पता चला कि मेरी माँ जिन्दगी के आखिरी दिनों तक मेरा इन्तजार करती रही थी। और मेरा बाप, हर रोज सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिये के आने का वक्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आकर खड़ा हो जाता था। और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊँ, घर वालों को खत नहीं लिखूँगा।"

एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आयी और बुझ गई,"फिर मैं भारत गया। यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी। मैं बड़े मंसूबे बाँध कर गया था….."

उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुँह खोला ही था कि चाय आ गयी। नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाये, मुस्कुराती हुई चली आ रही थी। उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला जिन्दगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?

चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई।

“जालन्धर में हम माई हीराँ के दरवाजे के पास रहते थे। तब तो जालन्धर बड़ा टूटा फूटा सा शहर था। क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालन्धर में हम कहाँ पर रहे थे?"

“मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियाँ बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी - तब वह डेढ़ साल की थी- मक्खी देख कर डर गई थी। पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी। वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था। गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चढ़ गयी तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आयी थी। ……और क्या था वहाँ?"

“……….हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे……"

चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे। भारत की अर्थ्व्यावस्था की, नये नये उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गतिविधि से बहुत कुछ परिचित है।

“मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हू, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।"

उसने मेरी और देखा और होले से मुस्कुरा कर बोला," तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है।"

मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव सा, इस आदमी के दिल को अन्दर ही अन्दर चाटता रहता है- एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियाँ और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो।

सहसा उसकी पत्नी बोली, "लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिये माफ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की।"

“हेलेन…"

मैं अटपटा महसूस करने लगा। मुझे लगा जैसे भारत को लेकर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुड़ापे की दहलीज तक आ पहुँचे थे। मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूँ ताकि यह सज्जन आपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाये लेकिन यह कोशिश बेसूद थी।

“सच कहती हूँ," उसकी पत्नी कहे जा रही थी, "इसे भारत में शादी करनी चाहिये थी। तब यह खुश रहता। मैं अब भी कहती हूँ कि यह भारत चला जाये, और मैं अलग यहाँ रहती रहूँगी। हमारी दोनो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। मैं अपना ध्यान रख लूँगी…."

वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज में कहे जा रही थी। उसकी आवाज में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का। मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिन्तित ढंग से कह रही हो।

“पर मैं जानती हूँ, यह वहाँ पर भी सुख से नहीं रह पायेगा। अब तो वहाँ की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कए पायेगा। और वहाँ पर अब इसका कौन बैठा है? माँ रही, न बाप। भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था।"

“हेलेन, प्लीज…" बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा।

अब की बार मैंने स्वंय इधर उधर की बातें छेड दीं। पता चला कि उनकी दो बेटियाँ हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी युनीवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनो बड़ी समझदार और प्रतिभा संपन्न हैं। युवतियाँ हैं।

क्षण भर के लिये मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिये, इसे सनक से ज्यादा नहीं समझना चाहिये, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है। मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जायेगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जायेगा।

आखिर चाय का दौर खतम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया। कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े थोड़े वक्त के बाद चल रहा था। कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई।

“हाँ, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी…."

वह क्षण भर के लिये ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, "तुम अपने देश से ज्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिये नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफियत क्या होती है। पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत कि याद रह रह कर मुझे सताने लगी। मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा। मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा। कभी कभी मैं कुर्ता पायजाम पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिन्दुस्तानी हूँ, भारत का रहने वाला हूँ। कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मँगवायी थी, लोग सचमुच बड़े कौतूहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता। मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूँ, धोती पहन कर चलूँ। मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूँ, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूँ।

परदेस में रहने वाले हिन्दुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लाँघता चला जाये और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ होता है। दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियाँ लाकर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी माँग में लाल रंग भरता। मैं इस बात के लिये तरस तरस जाता कि रक्षा बन्धन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बाँधे, और कहे ’मेरा वीर जुग जुग जिये!’ मैं ’वीर’ शब्द सुन पाने के लिये तरस तरस जाता। आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूँगा और अपनी डेढ़ बरस की बची को भी। हेलेन को भारत की सैर कराउंगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी मोटी नौकरी करके रह जाऊँगा।"

“पहले तो हम भारत में घूमते घामते रहे। दिल्ली, आगरा, बनारस…. मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आँखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता। इसे कोई जगह पसन्द होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता।"

“फिर हम जलन्धर गये।" कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा होकर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा होगया, मुझे जगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है। पर सहसा उसने कंधे झटक दिये और फर्श की ओर आँखे लगाये ही बोला, " जालन्धर में पहुँचते ही मुझे घोर निराशा हुई। फटीचर सा शहर, लोग जरूरत से ज्यादा काले और दुबले। सड़कें टूटी हुई। सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा। क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूँ? हमारा पुशतैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा बड़ा और शानदार लग करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ। माँ बाप बरसों पहले मर चुके थे। भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बाँटने आया हूँ और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा। छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जाकर रहने लगी थी। क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वपन देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिये बरसों से तरसता रहा हूँ? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे। गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था। अब वह पहले से भी ज्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाये, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूँ बैठा था। गलियाँ बोसीदा, सोयी हुई। मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूँ? दो तीन दिन इसी तरह बीत गये। कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चल जाता, कभी गली बाजार में घूमता। पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराये नगर में पहुँच गया हूँ।

तभी एक दिन बाजार में जाते हुए मुझे अचानक ऊँची सी आवाज सुनायी दी - ’ओ हरामजादे !’ मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह हमारे शहर की परम्परागत गाली थी जो चौबिसों घंटे हर शहरी की जबान पर रहती थी। केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है।

“ओ हरामजादे ! अपने बाप की तरफ देखता भी नहीं?"

मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही सम्बोधन कर रहा है। मैंने घूम कर देखा। सड़क के उस पार, साईकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था।

मैंने ध्यान से देखा। काली काली फनियर मूँछों, सपाट गंजे सिर और आँखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी। फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया। वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी।

”हरामजादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!" दूसरे क्षण हम दोनो एक दूसरे की बाहों में थे।

“ओ हरामजादे! बाहर की गया, साहब बन गया तूं?" तेरी साहबी विच मैं……." और उसने मुझे जमीन पर से उठा लिया। मुझे डर था कि वह सचमुच ही जमीन पर मुझे पटक न दे। दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियाँ निकाल रहे थे।

मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था। तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालन्धर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है। अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था। तिलक राज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा पराया पन जाता रहा। मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूँ। मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूँ, झगड़ सकता हूँ। हर इन्सान कही का बन कर रहना चाहता है। अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था। अपनाया नहीं था। यह गाली मेरे लिये वह तन्तू थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था।

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