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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से मनमोहन सरल की कहानी— चाबी के खिलौने


वह लॉबी में खड़ा था। उसकी औरत चमकदार कपड़ों में सोफ़े पर बैठी थी। वह पहले खड़ा नहीं था। जब मैंने वहाँ प्रवेश किया था तो दोनों को दूर से बैठे देखा था लेकिन मैं नहीं पहचान पाया था कि वह होगा। उसकी किसी औरत के साथ सटकर बैठे और चिडि़यों की तरह गुपचुप बातें करने की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी। मुझे आते देखकर वह बहुत पहले से ही खड़ा हो गया था लेकिन उसकी औरत वैसे ही बैठी रही थी।
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नज़दीक आते ही उसने खीसें निपोर कर नमस्‍कार किया और एक मर्दाना-सा नाम लेकर उस औरत से भी नमस्‍ते करने को कहा। मैंने देखा, आज उसकी शक्‍ल पर तीन बज रहे थे - ठीक तीन, चाहे तो कोई घड़ी मिला ले और मैंने सचमुच अपनी घड़ी मिला भी ली। मुझे खुशी हुई क्‍योंकि इससे पहले वह जब भी मिलता था, उसके चेहरे पर बारह ही बजे होते थे।
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दोनों नमस्‍कार कर चुके थे। मैंने कहा, 'बैठ जाओ।'
और दोनों एक साथ बैठ गए, चाबी के खिलौनों की तरह।
फिर मैंने पूछा, 'रात कहाँ ठहरे? सुना था, तुम्‍हारे लिए इंतजाम कर दिया गया था।'
'हाँ, लेकिन वहाँ मच्‍छर बहुत थे इनका मन नहीं जगता था।' उसका इशारा अपनी बीवी से था।

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