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पहले बवाल मचता है फिर ज़लज़ला आता है और उसके बाद मान-मनौव्वल। घंटे दो घंटे तो लग ही जाते हैं पूरा बारामासी कार्यक्रम निपटने में। लेकिन मेरे घर में, क़सम, आज तक ऐसा कभी हुआ ही नहीं। ...तभी तो लोग कहते हैं कि मेरे पति आदमी नहीं, देवता हैं।

घर में तीन अख़बार आते हैं। दो फोन और एक रंगीन टी.वी. है ही। वह ऑफिस से लौट कर घंटों ऊपर-नीचे के सारे अख़बार पढ़ते हैं। सा-साथ टी.वी. भी चलता रहता है। जिस चैनल पर जो आता है, देखते हैं। जो चैनल लगा है उसे लगा रहने देते हैं जैसा कार्यक्रम आता है, आते रहने देते हैं। परेशान नहीं होते कभी। समय काटने की कोई समस्या ही नहीं उनके सामने। आपसे आप आराम से कटता जाता है...वरना कितने लोग तो ‘समय’ को लेकर ही तमाम उठा पटक किए जाते हैं कि कैसे काट जाए और कैसे बचाया जाए। मेरे पति को ऐसी कोई उधेड़बुन नहीं व्यापती। वह ऐसी हर समस्या के मूर्तिमान समाधान होते हैं। यही कारण है कि लोग उन्हें आदमी नहीं देवता कहते हैं! लेकिन अपनी क्या कहूँ । कहते भी शर्म आती है। उनके देवत्व को संभाल पाने का शऊर ही नहीं है मुझे। वह जितने देवता होते जाते हैं, मैं उतनी-उतनी बेढंगी। हँसती हूँ तो खिलखिलाकर हँसती चली जाती हूँ और रोती हूँ तो बेतहाशा सावन-भादों की झड़ी लगा देती हूँ। और गुस्सा तो मेरी नाक पर रहता है। वह भी बेवजह। बात-बेबात भभक पड़ती हूँ। अक्सर बिना बात अपने देवता समान पति पर भी। अच्छी तरह जानती हूँ, गलती सरासर मेरी ही होती है। फिर भी वह शांत ‘इट्स ओ.के.’ कह देते हैं, कभी ‘सो सॉरी...’ पड़ोसियों का कहना है कि आज तक कभी उनकी आवाज़ तक नहीं सुनाई दी। बात सच है । जब घर की घर में नहीं सुनाई दी तो बाहर कैसे जाएगी?

मान लीजिए, छुट्टी के दिन वह बाहर निकलते दिखें तो मुझसे रहा नहीं जाता। बरबस पूछ बैठती हूँ, “कहीं जा रहे हैं क्या?”
“हाँ...”
“कहाँ?”
“बाहर।” ”बाहर, कहाँ?”
“एक किसी से मिलने...” ”किससे?”
“तुम उन्हें नहीं जानती...” ”अच्छा, कब तक लौटेंगे?”
“जल्दी भी आ सकता हूँ, देर भी लग सकती है।”
वही तो, मैंने पहले ही बताया न, मृदुभाषी, मितभाषी बताइए, इसमें ज़रा भी कोई बौखलाने वाली बात हो सकती है? नहीं न । तो भी मैं तक़्ररार पर उतारू हो जाती हूँ। उनकी सारी सदाशयता ताक पर रखकर रार ठान लेती हूँ। एक बार तो मैं सीधे शिकायत पर उतर आई, “आप तो मुझसे कभी बात ही नहीं करते, सारा समय अख़बार, टी.वी., कम्प्यूटर
फोन।”

उन्होंने अख़बार, टी.वी. बन्द कर समझदारी भरे स्वर में कहा, “ओ सॉरी...ठीक है, बताओ, क्या बात करूँ?”

अब यह अनुकूलता की चरम सीमा ही हुई न, जो वह ख़ुद मुझसे पूछ रहे थे कि बताओ क्या बातें करें मुझसे।
लेकिन ऐन वक्त पर मेरी अक्ल पर पत्थर जो पड़ जाते हैं। हड़बड़ा कर सोचने लगी कि इनको क्या विषय दूँ, मुझसे बात करने के लिए। घबराहट यह भी है कि वह इंतज़ार कर रहे हैं और मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा।

हकलाकर कहती हूँ, “अरे, और कुछ नहीं तो यही कि आज पूरा दिन ऑफ़िस में कैसा बीता। दिन भर कितनी बड़ी-बड़ी चीज़ें घटी होंगी। वही कुछ।”

“ओ... यस,” उन्होंने याद करने की कोश्श की और स्थfर भाव से बताने लगे। मैं मन लगाकर सुनने लगी। जब वह
सुबह ऑफ़िस पहुँचे तो उनका चपरासी प्यारेलाल, हमेशा की तरह दूसरे चपरासी कामता के पास खैनी माँगने गया हुआ था। ऑपरेटर भी देर से आई। पैंकिंग में साढ़े दस से ‘गो-स्लो’ शुरू हो गया। इसलिए कायदे से माल की जो लोडिंग साढ़े तीन तक हो जानी चाहिए थी, वह साढ़े पाँच बल्कि पाँच पैंतालीस तक चली। ट्रकों को ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ा। पैंकिंग डिपार्टमेंट और लोडिंग वालों के बीच इस सबको लेकर तनातनी रही। कैशियर बरुआ ने छुट्टी बढ़ा ली। बहुत से बिलों का भुगतान रुक गया। बीच में डेढ़ घंटे बिजली ग़ायब रही। रहमतगंज वाले टैंकर का ब्रेक डाउन हो गया। साढ़े तीन बजे से बजट की मीटिंग थी। और ...अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। पति पूछ रहे...और बातें करूँ? कि बस?

उफ़ ! मैं तो भूल ही गई थी कि मैंने उन्हें बातें करने के लिए कहा था और वे इतनी देर से मेरा कहा मान कर दिन भर चले कार्यकलापों का विवरण दे रहे थे।

जब कि मैं शायद बीच में झपक जाने या कुछ और सोचने लग जाने की वजह से कुल एक-दो वाक्यों से ज़्यादा कुछ ठीक से सुन समझ नहीं पाई थी। अब यह तो मेरी ही बेअदबी की हद हुई न कि खुद ही पूछे सवालों के जवाब सुनने की जगह उबासियाँ लेती कुछ और सोचती-झपकती रही। लेकिन वह अब भी पूछ रहे थे कि क्या कुछ और बातें की जाएँ... हार कर एक रास्ता निकाला, जाने दीजिये, आप थक गए होंगे। मैं चाय बनाती हूँ। बनाऊँ?”

वे मेरे मना कर देने पर, निश्चिंत भाव से टी.वी. देखने लगे थे। मेरा कहा सुन नहीं पाए। मैंने रुककर थोड़ा इंतज़ार किया। फिर पूछा, “चाय बनाऊँ पीयेंगे?” तब उन्होंने शांत भाव से कहा, “ हाँ, पी लूँगा।“

मैं अच्छी-खासी समझदार पत्नी की तरह किचन में गई। पतीला गैस पर चढ़ाया। इतने ही में बस पता नहीं क्या हुआ कि मेरे अन्दर झल्लाहट का भभका-सा आ गया। एक्दम पागलपन के दौरे की तरह। जैसे दिल-दिमाग की सारी समझदारियाँ धड़ाधड़ ध्वस्त-पस्त होने लगें। जैसे कोई तोड़क, विध्वंसक बुलडोज़र अचानक कतार से खड़ी सलीकेवार इमारतों को तोड़ने, ध्वंस करने पर उतारू हो जाए। इस तोड़क दस्ते का आक्रामक संचालन भी मैं ही कर रही हूँ ... और इसे जो कुछ थोड़ा बहुत सुन-समझ पड़ रहा है उसका आशय है ---
“पी लूँगा...क्या मतलब ! कोई एहसान करोगे क्या मुझ पर? कायदे से यह नहीं कह सकते थे कि हाँ हाँ बनाओ न! ...मेरा भी दिल कर रहा है चाय पीने का।
या फिर यही कह देते कि ... ऐसा करो, ज़रा अदरक, काली मिर्च भी डाल कर तड़कदार बनाओ...ठीक...?”

इस किस्म की सारी इबारतें नाजायज़, सारे निर्माण अवैध... सब गिरे, ढहे, ध्वस्त-पस्त। मलबे पर सिर्फ़ एक मनहूस-सा शब्द टँगा है –“पी लूँगा।”
लेकिन यह सब मेरे अन्दर वाले लोक की माया है। बाहर तो गैस पर चाय का पानी खौल रहा है और ट्रे में बदस्तूर शूगर पॉट और मिल्क पॉट के साथ चाय की प्यालियाँ सजी हैं।
अचानक फिर से मुझे जाने क्या होने लगता है। चाय का पानी मेरे अन्दर खौलने लगता है। बर्नर की लपटें और तेज़ी से लपलपाने लगती हैं...यहाँ-वहाँ, सब कुछ दहकने, तपने लगता है। दिल-दिमाग बेकाबू, एक वहशी उत्तेजना की चपेट में। और ... अचानक मैं खुद को रोकते, न रोकते, चाय की पत्ती और कुटी अदरक के संग पूरे चम्मच भर काली मिर्च को बुकनी खौलते पानी में डाल देती हूँ!

और, अब मैं साँस रोक, धड़कनें समेटकर उन्हें चाय का पहला घूँट लेते देख रही हूँ। अब बोले...अब सब, उफ मै ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर पाती –
क्यों? क्या हुआ?...” मैं लगभग बेसब्र होकर पूछ बैठती हूँ, “काली मिर्च खूब ज़्यादा पड़ गई है न!...बोलो, बोलो न!”
“हाँ” ...
“तो?” मैं धड़कनें रोककर पूछती हूँ।
“इट्स ऑल राइट।”

“क्या...... ?” मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं होता। मेरा मौन वहशियाना हो उठता है, “बात-बात कैसे नहीं? साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि काली मिर्च झुँकी हुई है चाय में। चाय चरपरी नही, बल्कि मिर्च का शोरबा है। और... यह शोरबा मैने बनाया है, जानबूझकर... जिससे घर में बिछी वर्फ़ की सिल्लियाँ चकनाचूर हों; बर्फ़ पिघले तो पानी बहे, पानी बहे और हवा हिलकोरे तूफ़ानी ही सही। हवा, पानी, बर्फ़ और तूफ़ान, बादल और बिजली सब कुछ एक अष्टधातु की साँचों में ढली मूरत चिटके और हाड़माँस के एक साबुत आदमी से साबका तो पड़े...”
लेकिन मैं इंतज़ार करती रही। कोई तूफ़ान नहीं आया। कोई बिजली नहीं कड़की, न बादल, बारिश ही।

ग्लानि से भरी मैं चुपचाप उठी। मैने अपने आपको कहते हुए सुना “सॉरी मुझसे काली मिर्च की बुकनी ज़्यादा पड़ गई, दूसरी बना कर लाती हूँ” ... और ट्रे उठाकर चल दी।

आपको अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आता न! मैं खुद हक्की बक्की, हैरान सी देखती हूँ, “मेरे देवता समान” पति और मैं शांति से “साथ-साथ” चाय पी रहे हैं।

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१८ जुलाई २०११

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