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बड़े बूढ़ों के स्वर्गवासी होने पर उनके बेटे-बहुओं में कैसा नारकीय तांडव होता है। यह अब मैं क्या बताऊँ। यह तो घर-घर कमी कहानी है। हम जीते-जागते इंसान अपने पुरखों की निशानी नहीं रहते। ये लोटा, गिलास, चिमटा करछुल हो जाते हैं।

गिलास चलता रहा। मेरे पापा भी वही गिलास इस्तेमाल करते रहे। घर स्टील के बर्तनों से जगमगाने लगा। पर पापा कहते कि गिलास को लेकर मैं अपने बाबूजी, दादाजी को अपने निकट महसूस करता हूँ। अपने बेटे-बेटियों को महसूसने की चेष्टा पापा ने कभी नहीं की। उन्हें हमलोगों से कोई मतलब ही नहीं था जैसे। हमारी उपलब्धियों से कभी प्रसन्न होते उन्हें नहीं देखा, वे बस सदा हमारी कमियों पर खीजते रहे। यह तो हमारी अम्मा ही हैं जो हम सब भाई-बहनों को समेटे रहीं। उनके प्यार दुलार पर हमारा एकछत्र राज्य रहा।

दस वर्ष पहले पापा नहीं रहे। पर अपने अंतिम दिनों में उन्होंने उस पीतल के गिलास का इस्तेमाल बंद कर दिया था। बीमार भी तो बहुत थे। कहते थे कि भारी बहुत है संभलता नहीं अब। सो उनका स्टील का नया लोटा-गिलास सदा उनकी
मेज़ पर रखा रहता।

अब पीतल के गिलास का गहारू कोई नहीं रहा। सभी को वह भारी बेकार सी चीज़ लगने लगा। हमारी छोटी भौजी, छुटकन की बहू को उस गिलास से चिढ़ सी थी कि बिना बात जगह घेरता है। आजकल घरों में बेकार की चीज़ें रखने की जगह भी कहाँ होती है।

बहू उस गिलास को लेकर कई बार झल्लाई, ”पता नहीं क्या धरा है इस गिलास में किसी काम का तो नहीं। बेच दें तो अच्छे पैसे मिल जाएँगे। ”अम्मा चिढ़ उठतीं“ तुम्हारा वश चले तो तुम अपने सास-ससुर को भी बेच आतीं।“
बहू वाचाल-झमक कर बोली, ”तुम्हें तो कोई मुफ्त में भी नहीं लेगा।
वह तो हमें ही ढोना है।“
अम्मा चिढ़ उठीं। गिलास गरम कपड़ों के बक्स के तले में डालते हुए बोलीं, ”अब हमारे मरने के बाद, तुम जो चाहो करो
अपनी जिंदगी में तो मैं बेचने न दूँगी। बहुत बेच लिया, बहुत फेंक लिया तुम लोगों ने मेरा सामान।“

गिलास गर्म कपड़ों के नीचे दबा पड़ा रहा। पापा को स्वर्गवासी हुए दस वर्ष हो चुके थे। मेरी सबसे बड़ी पुत्री मीनू अपने पति और दोनों बच्चों चिंटू और चीनी के साथ माँ के पास लखनऊ गई थी। माँ ने एक दिन गर्म कपड़ों को धूप दिखाने को बाहर निकाला तो वह गिलास नौ वर्ष के चिंटू को दिखाई पड़ गया। उसके लिए वह अजूबा ही था। लपककर उठाया तो संभालना मुश्किल हो गया, ”इतना भारी गिलास! परनानी जी, आप इसका क्या करती हैं? किसका है यह?“
अम्मा हंस दी, ”बेटा यह गिलास तुम्हारे परनाना जी का है। वे इसमें पानी और दूध पीते थे। लस्सी भी इसी में पीते थे।“

चिंटू उस गिलास पर लट्टू हो गया। ऐसी चीज़ उसने पहले कभी नहीं देखी थी। ”गिलास क्या है शो पीस है।“

अम्मा हमारी निहाल, ”अरे मीनू बिटिया। लगता है, तुम्हारे नानाजी तुम्हारे ही घर आ गए। वे तुझे प्यार भी तो कितना करते थे। नहीं तो घर में कितने बच्चे हैं पर किसी को यह गिलास फूटी आँख नहीं सुहाता है। ले जा, ले जा। बेटा, तू ही
रख इस गिलास को। तेरे परनाना जी का आशीर्वाद है इस गिलास में।

वह गिलास मीनू ने उठाकर अलमारी में रख दिया। सोचा बाद में जब सूटकेस खोलेगी तो उसमें डाल देगी। इतने बड़े गिलास को रखना भी तो आसान नहीं था। मीनू पूरे एक सप्ताह और रही। ख़ूब घूमे, ख़ूब मस्ती की। घमते-घामते जब तब चिंटू गिलास की याद दिला देता, ”मम्मी मेरा गिलास भूल न जाना।“

दो-तीन बार मीनू झल्ला भी उठी, ”बाबा तेरी जान उस गिलास में बसी है तो उसको गोद में लेकर बैठाकर। ठीक से घूमने भी नहीं देता है। गिलास न हो गया आफत हो गया। क्या करेगा तू उस गिलास का?

चिंटू मुग्ध भाव से कहता, ”तुम क्या जानो मम्मी। कितना सुंदर है वह गिलास। मैं अपनी पढ़ने की मेज़ पर रखूँगा। उसमें फूल लगाऊँगा सुंदर, सुंदर...नहीं तो अपना स्केल, पेंसिले, पेन सारी छोटी-छोटी चीज़ें उसमें ही रखूँगा। फिर चिढ़
उठता, ”तुम्हें क्या मतलब मैं कुछ भी करूँ पर तुम गिलास न भूलना।“

किंतु जब वे लोग गए तो गिलास सचमुच ही भूल आए। अचानक ही मीनू की ददिया सास के सख़्त बीमार होने का तार आ गया और वे लोग हड़बड़ी में निकल गए।
गिलास अलमारी में रखा रह गया।

और अम्मा की जान गिलास में। ”बच्चे ने तो पसंद किया था गिलास, पर मीनू नहीं ले गई। सभी इसे बेकार का चीज़ समझते हैं।“ वे रुआँसी हो जाती।
उन्हें पूर्ण विश्वास था कि पापा ने ही चिंटू के रूप में जन्म लिया है। तभी तो उसने गिलास इतना पसंद किया था।
पर मीनू गिलास नहीं ले गई।

गिलास को लेकर अम्मा के कई भावभीने पत्र मेरे पास भी आ गए। पत्र के ऊपर आँसुओं की पच्चीकारी होती। मेरा मन बड़ा दुखी होता। पर करती भी क्या? उन्हें तसल्ली देती रही कि कोई आता-जाता हो तो भेज देना गिलास।

उधर चिंटू भी कई बार अपनी मम्मी से झगड़ा कि ”गिलास क्यों नहीं रखा, जब उन्होंने दिया तभी क्यों नहीं रख लिया?“

पूरे एक वर्ष पश्चात छुटकन अपनी पत्नी के साथ मुंबई आया। दोनों मुंबई से गोवा भी गए। शिरडी, महाबलेश्वर सभी
जगह पूरे एक महीने घूमते रहे।

खाते-पीते कई बार गिलास की बात दोहराई गई कि गिलास मीनू के चिंटू को देना है। सो जब सब लोग मीनू के घर कोलाबा गए तो सबको याद था कि गिलास ले जाना है। पर जाने की हड़बड़ी में गिलास फिर भूल गए। चिंटू को दिलासा दे दिया कि गिलास तुम्हारी नानी के पास दे देंगे।

पर मेरी मति को क्या हो गया था कि गिलास की याद तभी आती जब वे लोग घर में नहीं होते। घर में होते तो कुछ भी सोचने, याद करने का समय नहीं होता। बातचीत, हँसी ठट्ठा, खाने-पीने में ही सारा निकल जाता।

होते-होते छुटकन तथा बहू के लौटने का समय आ गया। धुले कपड़े सूटकेसों में धर लिए गए। मैले एक गिलाफ में भरकर होल्डाल में डाल दिए गए। पर गिलास हम सभी के मस्तिष्क से गायब था। संभवतः उस गिलास की नियति हम सभी के मस्तिष्क पर हावी थी। हम सभी ने छुटकन और बहू को बड़ी भावभीनी विदाई दी। उपहारों का आदान-प्रदान हुआ। हुज्जतें हुई उपहारों को लेने-देने पर। किंतु गिलास उस सब में नहीं था। छुटकन और बहू ट्रेन पर सवार हो गए। मेरे बड़े बेटे ने उन्हें स्टेशन पर पानी भरकर दिया, पर गिलास याद नहीं आया। पहुँचने पर तार से सूचना देने का वायदा लिया गया। घर में सभी को नमस्कार और प्यार कहलाया गया। अम्मा को सभी ने सादर प्रणाम कहलवाया किंतु अम्मा
के गिलास को सभी भूले रहे।

गार्ड ने हरी झंडी दिखाई। इंज़न ने डकराना शुरू कर दिया। ट्रेन धीरे-धीरे सरकने लगी। हाथ हिलाकर, रूमाल हिलाकर ‘टाटा’ उड़ाया गया। पर...अरे...वह गिलास...लगा कि तेज़ पकड़ती ट्रेन के पीछे दौड़ लगा दूँ। अरे छुटकन! अरे बहू! वह गिलास! भाई-भौजाई के बिछुड़ने का दुख नहीं रहा। गिलास मेरे हृदय पर लोट लगाने लगा। मेरा मन चीत्कार कर रहा था ”अम्मा का गिलास...‘चिंटू का गिलास।’

एक ही आशा थी कि बहू गिलास घर में ही कहीं धर गई होगी। सो थकी-माँदी होने पर भी सारा घर छान डाला। ऐसी जगहों पर भी देखा जहाँ गिलास घुस भी नहीं सकता था। जब गिलास था ही नहीं तो मिलता कैसे? वह तेज़ी से लखनऊ की ओर भागा जा रहा था...सूटकेस में बंद।
हे भगवान! क्या सोचेंगी अम्मा क्या कहेगा चिंटू, कि एक गिलास की याद मैं न रख सकी।
मन बड़ा उद्विग्न रहा, जैसे गिलास नहीं कोई जीवित प्रिय अपने से सदा के लिए बिछुड़ गया हो।
और एक सप्ताह पश्चात छुटकन का पत्र आ गया। पत्र क्या था, जैसे बंब का गोला था। विस्फोट करता हुआ।

प्यारी जीजी,
सादर चरण स्पर्श। हमलोगों के यहाँ सकुशल पहुँचने का समाचार तार द्वारा मिला होगा।
अब एक अति आवश्यक बात जो कुछ भी हुआ बहुत बुरा हुआ। पर अब सारी स्थिति तुम्हें ही संभालनी है।

रास्ते में ध्यान आया कि गिलास देना तो हम भूल ही गए। पहले तो हम दोनों ही एक-दूसरे को गिलास न देने का दोष देते रहे। फिर यह परेशानी मुख्य थी कि अम्मा गिलास वापस देखकर कितना गुस्सा होंगी। उनके श्लोकों का सामना करने का साहस हम दोनों का ही नहीं था। उनकी गुस्सा बर्दाश्त कर भी लें किंतु फिर उनका रोना, खाना-पीना छोड़कर आसन पाटी लेना कौन बर्दाश्त करता। बीमार तो रहती ही हैं।

हम दोनों ही जानते थे कि कितना भी प्रयत्न करते अम्मा की पैनी दृष्टि से गिलास छिपाना असंभव है। सो हमलोगों ने बड़ी जल्दी में एक निर्णय लिया कि गिलास को गंगा को समर्पित कर दिया जाए। बस पापा की याद करते हुए वह गिलास हमने गंगा जी को भेंट कर दिया। वैसे गलती अम्मा की ही थी। उन्होंने वह गिलास ब्रासो पॉलिश करके रेशमी
कपड़े में लपेट कर दिया था। ऐसे ही दे देतीं तो वह कपड़े निकालते धरते दिख ही जाता।

मीनू तो लगता है वैसे ही गिलास ले जाना नहीं चाहती थी। फिर गिलास की नक्काशी काफी घिस चुकी थी और चिंटू का क्या। बच्चा है। उसे आसानी से बहलाया जा सकता है। उसे हम मुरादाबाद से बढ़िया नक्काशीदार गिलास ला देंगे। या तुम ही वहाँ खादी भंडार से कोई नया। बर्तन लिवा देना। बेहद सुंदर चीज़ें हैं वहाँ।

बस तुम और मीनू दोनों ही अम्मा को पत्र लिख देना कि गिलास मिल गया। आशा है इस स्थिति को तुम संभाल लोगी। बस तुम ही संभाल सकती हो। अम्मा तुम्हारा बहुत विश्वास करती हैं। हम जब से आए हैं, हज़ार बार कह चुके हैं कि गिलास पहुँचा दिया पर अम्मा हमारा विश्वास ही नहीं कर रही हैं। अम्मा ने बचपन से मुझे झूठा समझा। अब भी समझ रही हैं।

प्लीज़ जीजी इस मुसीबत से कैसे भी हो उबार लो।

सबको यथावत।
तुम्हारा छुटकन

मेरा हृदय चीत्कार करने लगा। पापा की बात याद आती तो लगता है कितना सही कहते थे कि इस गिलास से वे अपने बाबा जी और बाबू जी को अपने निकट महसूस करते थे। मुझे क्यों लग रहा है कि गिलास नहीं, पापा को ही, उनकी याद को भी उठाकर गंगा जी में फेंक दिया इन लोगों ने।

पत्र आने से पहले ढेरों काम थे घर में करने को। किंतु अब कुछ याद ही न रहा। औंधी पड़ी रही, शक्ति ही न रही शरीर में कुछ भी करने को।

घर में रही भी कहाँ। मैं तो भागती ट्रेन में छुटकन और बहू की हुज्जत सुनने लगी। झगड़ा तो वे ज़रा-ज़रा सी बात में बच्चों की तरह करते हैं। फिर तुरंत दूध-शक्कर की तरह घुलमिल भी जाते हैं।

और ऐसे ही घुलकर दोनों ने गिलास गंगाजी में फेंक देने का निर्णय लिया होगा। यह निर्णय अवश्य बहू की ओर से आया होगा, छुटकन ने तो झटपट उस पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे। जोरू का गुलाम जो ठहरा! और गंगा का पुल आने पर उन्होंने वह गिलास फेंक दिया। गिलास छुटकन ने फेंका या बहू ने या दोनों ने एक साथ हाथ में ले कर पापा के नाम तर्पण किया होगा। नहीं इतने समझदार नहीं हैं वे। और वह गिलास लोहे के गर्डरों से ठन-ठन टकराता हुआ तेज़ी से नीचे
गिरता गया होगा।

अरे! गंगा जी में तो वह आदमी नहा रहा है...नहीं शायद किसी औरत की गोद में बच्चा है। नहा रहे हैं दोनों...तेज़ी से गिरता हुआ गिलास उसकी खोपड़ी को नारियल की तरह... नहीं... मैं चीख़कर उठ बैठती हूँ।

छुटकन ने देख लिया होगा कि नीचे कोई भी नहीं है... पर आकाश पर बिचरण करनेवाले धरतीवालों की परवाह कब करते हैं?

गंगा जी में पड़ा गिलास किसी को मिला होगा क्या? मिलने पर बेच दिया होगा या घर ले गया होगा? या वह गिलास रेत में गहरे धंस गया होगा। न जाने कितने वर्ष दबा पड़ा रहेगा वहाँ। दस वर्ष...सौ वर्ष या हज़ारों वर्ष बाद किसी म्युज़ियम की शोभा बढ़ाएगा... और वैज्ञानिक उस पर शोध करेंगे... आज की सभ्यता का पता लगाएँगे। उन्हें क्या पता लगेगा कि वह मेरे परबाबा जी का गिलास है। मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं कि उस गिलास पर परबाबा जी का नाम भी ख्शुदा है या नहीं। हमलोगों ने उस गिलास की कद्र भी कब की थी?

पता नहीं किसको मिले वह गिलास। और क्या पता गिलास सदा-सदा...युगों वहीं दबा पड़ा रहे या रेत के साथ-साथ
खिसकता हुआ समुद्र की अतल गहराइयों में समा जाए... हे भगवान...अब चिंटू से क्या कहूँगी।

गिलास गर्डरों से ठन-ठन टकराता कितनी ज़ोर से चीख़ता नीचे गया।

अचानक लगता है मैं कुछ भूल रही हूँ। कानपुर की गंगा जी के पुल पर गर्डर नहीं है। वहाँ तो ट्रेन केवल खंभों के ऊपर हवा में उड़ती चली जाती है। नहीं कुछ भी याद नहीं आ रहा है। साठ वर्ष की होने की आई... मुंबई से लखनऊ जाते-आते पचासों बार गंगा जी का पुल पार किया है किंतु याद ही नहीं आता कि पुल पर गर्डर हैं कि नहीं...हों भी तो मैं कहाँ थी छुटकन और बहू के साथ... होती तो क्या गिलास ऐसे फेंकने देती?

फिर... फिर मैंने गिलास के ठन-ठन टकराने की आवाज़ कहाँ सुनी? कैसे सुनी? कितनी तेज़ आवाज़ कि जैसे कान फट जाएँगे।
मैं फिर लेट जाती हूँ। हाँ, आवाज़ सुनी है ज़ोरों की ठन ठन ठन...
अचानक लगता है यह आवाज़ मेरे मस्तिष्क की शिराओं से उठ रही है। गिलास वहीं टकरा रहा है... बार-बार टकरा रहा है...ठन, ठन...या कि ये उसकी चीख़ें हैं?
फिर वह मेरे हृदय की गहराई में डूब जाता है... एक राज की तरह, बड़े गहरे डूब जाता है।
किंतु उसकी चीख़ें अभी भी मेरे कानों से टकरा रही हैं।

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२९ अगस्त २०११

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