मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


'सलाह तुम अब भी पहले की ही तरह देते हो।'

मैं केवल मुस्‍करा दिया था। लेकिन बिन्‍दु की स्थिति देखकर मैं बेचैन था। यह तो पता चल ही गया था कि उसकी बेटी व एक बेटे की शादी हो चुकी है। मुम्‍बई वाले बेटे की शादी हुई है या नहीं इस बारे में उसने कुछ नहीं कहा था। मैंने ही पूछ लिया - मुम्‍बई वाले की शादी हुई या नहीं।

'हाँ, उसने भी पिछले महीने अपनी मर्जी से शादी कर ली।'
'अच्‍छा।'
'तुम्‍हारा यह अच्‍दा कहना सवालिया है या कि आश्‍चर्यजनक।'
'न सवालिया और न ही आश्‍चर्य वाला।'
'उसने न तो किसी को बुलाया और न ही कोई रीति-रिवाज ही निभाए। कहता था कि अग्नि को साक्षी मानकर कसमें वादे भले ही कितने किये जाते हों, उन्‍हें निभाता कौन है।' मैं बिन्‍दु को केवल सुने जा रहा था। उसका एक-एक शब्‍द पीड़ा से सना हुआ था। वह बोले जा रही थी।

'और हर्ष ने भी अग्नि के समक्ष कसमें खायी थीं कि हर सुख-दुख में साथ दूँगा। सुख में तो उन्‍होंने पूरा साथ दिया। अब उन्‍हें क्‍या पता कि क्‍या बीत रही है मुझ पर। बच्‍चों की जिंदगी अपनी है। उसमें तो हस्‍तक्षेप नहीं कर सकती न। जब इन्‍सान को पता ही है कि कसमें-वादे निभाने वाली डोर उसके हाथ में ही नहीं है तो वह वादे करता ही क्‍यों है?' ऐसा कह कर वह चुप हो गयी। मैं भी मौन न तोड़ सका। वह फिर आहिस्‍ता से बोली -
'तुमने भी मेरे साथ एक वादा किया था। निभाया था?'

मुझे लगा कि अब रात ज्‍यादा काली होने वाली है। मैं अधिक देर रूकने की हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा था। मैंने उससे कहा -

'मुझे अब चलना चाहिए। तुम्‍हारा घर तो देख ही लिया है कभी कभार आ जाया करूँगा।'
'चाय नहीं पियोगे।' बातों में ही ऐसी उलझ गयी कि चाय पूछना ही भूल गयी।

'अगली बार दो कप पिऊँगा।'
'तुमने कहाँ जाना है?'
'डी ब्‍लाक में।'
'चलो मैं भी चलती हूँ। तुम्‍हें वहाँ तक छोड़ दूँगी। लेकिन अब तुम अपनी गाड़ी आगे रखोगे और मैं तुम्‍हारे पीछे-पीछे आऊँगी गाड़ी लेकर।'
'मैं तो यही सोच रहा था कि तुम मेरे साथ चलो। तुम्‍हें बहुत अच्‍छा लगेगा।'
'अब वृत्ति कुछ इस तरह की हो गयी है कि अच्‍छा तो कुछ लगता ही नहीं।'
'चलो तो सही।'

मैं गाड़ी ड्राइव करता हुआ जा रहा था। शीशे में बिन्‍दु का चेहरा दिखाई दे जाता था। मुझे कालेज समय की बिन्‍दु याद आ जाती है जो मेरे साथ गृहस्‍थी बसाना चाहती थी। आज इस मोड़ पर उसे देखकर लगा कि कुछ लोग खुशियाँ बाँट सकते हैं। उनके हिस्‍से में खुशियाँ अधिक देर साथ नहीं चलतीं। डी ब्‍लाक आते ही पहले कार्नर पर मैंने गाड़ी रोक दी। बिन्‍दु ने भी थोड़ा आगे बढ़ा कर गाड़ी पार्क कर दी। जब हम दोनों सड़क पर आ गये, वह पूछने लगी -

'यहाँ से कितनी दूर पैदल चलना होगा।'
मैंने उसे इशारे से बताया कि वो सामने दुमंजिला भवन है उसी में जाना है। इस पर वह बोल पड़ी।
'वो तो वृद्धाश्रम है।'
'हाँ, क्‍या वहाँ नहीं जाया जा सकता।' और हम दोनों उस वृद्धाश्रम में पहुँच गये थे। मैंने अपना कमरा खोला और अंदर चला गया। बिन्‍दु कुछ भी समझ नहीं पा रही थी। वह एक कुर्सी पर बैठ गयी।

'तुम यहाँ रहते हो?'
'हाँ'
'लेकिन तुमने तो मुझे बताया ही नहीं।'
'अब तुम मेरे घर आयी हो, अपने बारे में सब कुछ बताऊँगा।'
इतने में एक व्‍यक्ति दो गिलास पानी लेकर आ गया था। वह दोनों गिलास टेबल पर रख कर चला गया। मैंने बिन्‍दु से कहा -

'आज खाना यहीं खाकर जाना। तुम्‍हें एक सरप्राइज़ दूँगा।'
'पहले यह बताओ कि तुम यहाँ अकेले रहते हो।'
'अकेला कहाँ मेरे जैसे कई हैं यहाँ। जब घर में था तो अकेला जरूर था। दो बेटे हैं। उनका परिवार है। मेरी पत्‍नी पांच साल पहले गुजर गयी थी। एक बाप अपने दो बेटों को तो पाल सकता है पर दो बेटे और उसके परिवार एक बाप को नहीं रख सकते। अब रिटायर्ड हूँ न। बोझ बन गया था उन पर। यहाँ के वृद्धाश्रम का इश्तिहार निकला था अखबार में। बस जगह मिल गयी और आ गया। दो कमरे मिल गये हैं। खाना भी मिल जाता है। सब सुविधाएं हैं।'

'कभी घर जाते हो।'
'अब तो यही घर है। वैसे अभी एक महीना ही हुआ है मुझे यहाँ आए हुए।'

वृद्धाश्रम का नौकर खाना पूछने आ गया था। मैंने तीन लोगों के लिए खाना लाने के लिए कह दिया था। साथ ही उसे यह भी कह दिया था कि कमरा नंबर आठ से मैडम को भी भेज देना। बिन्‍दु के चेहरे पर आश्‍चर्य के भाव थे। वह पूछ बैठी -

'यह मैडम कौन है?'
'इस मामले में तुम अब भी पहले जैसी ही हो।'
'वह है कौन।'
'अभी आती ही होगी। तुम उसे देखकर बहुत खुश होगी।'
इतने में दस्‍तक हुई और महिला ने प्रवेश किया। वह बिन्‍दु को देखकर भौंचक्‍क रह गयी। उसका हाथ पकड़ कर उसके साथ वाली कुर्सी पर बैठ गयी।
'अरे बिन्‍दु, कमाल हो गया। तुम भी यहाँ आ गयी।'
'मंजू तू। तू यहीं रहती है। क्‍या संयोग है। हम तीनों कालेज में भी इकट्ठे ही थे। जीवन के इस पड़ाव में भी इकट्ठे हो गये हैं।'
'हाँ बिन्‍दु, मैं कभी कह नहीं पायी थी कि मैं राहुल से प्‍यार करती हूँ।'

'मुझे यह आज ही पता चला कि मंजू भी मुझे प्‍यार करती थी। लेकिन उसने ऐसा आभास नहीं होने दिया। मैं तो यही जानता था कि मंजू हमारी अच्‍छी मित्र है।' मैंने उससे कहा -

'वो तुमने कभी कहा ही नहीं।'
'मैं जानती थी कि तुम और बिन्‍दु दोनों एक दूसरे को बेहद चाहते हो। मैं यह तो नहीं जानती कि तुम दोनों की आपस में शादी न होने की क्‍या वहज रही। लेकिन मुझे यह पता जरूर लग गया था कि तुम दोनों की शादी अलग-अलग जगह हो गयी है। मैं कहीं और शादी करने की हिम्‍मत नहीं जुटा सकी। केवल शादी करना ही मेरे जीवन का मकसद नहीं था। मैं समाज सेवा में जुट गयी। लेकिन राहुल मैं तुम्‍हें भुला नहीं पायी। पापा की इकलौती बेटी होने की वजह से उनका सारा पैसा मुझे ही मिला। इस वृद्धाश्रम की शुरूआत मैंने ही की थी। अब तो काफी बड़ा बन गया है।'
मैं असमंजस की स्थिति में था। मंजू मुझसे इतना प्‍यार करती थी कि जिंदगी भर उसने शादी नहीं की।

'तुमने क्‍या सच में प्‍यार किया था मुझसे। अगर मुझे पता होता कि ..'
बिन्‍दु बीच में ही बोल पड़ी।
'तो क्‍या कर लेते। मेरा तो पता था न कि मैं तुमसे शादी करना चाहती थी। लेकिन तुमने कब सीरियस लिया?'

मंजू उस समय को बातों में उलझाना नहीं चाहती थी। वह चाह रही थी कि जान सके बिन्‍दु की गृहस्‍थी कैसी चल रही है। लेकिन जब उसे यह पता चला कि उसके पति की मृत्‍यु हो चुकी है और तीन-तीन बच्‍चों के होते हुए भी एकाकी जीवन जी रही है तो वह उदास हो गयी। उसने आहिस्‍ता से बिन्‍दु के कंधे पर हाथ रखा।

'मैं तेरी स्थिति का अहसास जरूर कर सकती हूँ बिन्‍दु। इन्‍सान जब किसी को अपना बनाना चाहता है और बना नहीं पाता, उसका संताप मैं जानती हूँ। परंतु किसी अपने का चला जाना कैसा हो सकता है यह भी मैं महसूस कर सकती हूँ। जिंदगी का चक्र घूमता रहता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर ऐसा लगता है कि हम जहाँ से चले थे वहाँ आकर ठहर गये हैं। तीस साल पूर्व हम तीनों इकट्ठे होते हुए भी तो अकेले थे। तुम्‍हारे दोनों के बच्‍चे हैं लेकिन कौन साथ देता है। मनुष्‍य को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है।'

इतने में दस्‍तक होती है और नौकर खाना लाकर मेज पर रखने लगता है।

पृष्ठ : . . .

१८ अप्रैल २०११

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।